नैतिक कहानी-34 “डरपोक पत्थर की कहानी”

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Ekta Ranga

शिव बहुत ही अच्छा शिल्पकार था। पूरे गांव में उसके हाथ की बनी मूर्तियां सभी को बहुत पसंद आती थी। वह इस काम में पारंगत था। उसके हाथ की बनी हुई मूर्तियां विदेशों तक पहुंचाई जाती थी। हालांकि इस व्यवसाय में उसको ज्यादा मुनाफा नहीं होता था। लेकिन फिर भी वह पूरी ईमानदारी और मेहनत के साथ इसी काम में दिन रात जुटा रहता। उसे यह काम बहुत पसंद आता था। वह सभी से यही कहता कि भले ही उसे इस व्यवसाय में कम पैसा मिलता है। लेकिन जो आनंद उसे भगवान की सेवा करने से मिलता है वैसा आनंद उसे और कहीं नहीं मिल पाता है। सभी लोग उसकी कला की बहुत प्रशंशा करते थे।

एक दिन शिव को किसी व्यवसायी ने भगवान विष्णु की सुंदर प्रतिमा तैयार करने को कहा। उस व्यवसायी को भगवान शिव की मूर्ति मंदिर में स्थापित करवानी थी। शिव को व्यवसायी के हिसाब से मूर्ति बनानी थी। इसलिए शिव ने सोचा कि क्यों ना प्रतिमा के लिए पत्थर जंगल से से इक्ट्ठे कर लिए जाए। इसी के चलते शिव जंगल रवाना हो गया।

जब वह जंगल पहुंचा तो उसने अच्छे और सुंदर पत्थर ढूंढने के लिए नजरें इधर-उधर दौड़ाई। काफी देर ढूंढने के बाद उसे दो बहुत ही अच्छे पत्थर मिले। उसने ज्यादा देर ना करते हुए उन पत्थरों को उठाया और उन्हें लेकर वह घर के लिए रवाना हो गया। उसने मन ही मन सोचा कि इन पत्थरों से कितनी सुंदर भगवान की प्रतिमा तैयार हो जाएगी।

दो दिन बाद उसने सोचा कि क्यों ना अब पत्थर से मूर्ति बना ली जाए। इसी सोच के चलते उसने पत्थर उठाया और उस पत्थर पर अनेक प्रकार के औजार चलाने लगा। वह पत्थर थोड़ी देर तक तो खुद पर ऐसा वार सहन करता गया। लेकिन जब थोड़ी देर बाद उसे असहनीय पीड़ा होने लगी तो वह झट से बोला, “अरे, मुझे बहुत तेज दर्द हो रहा है मालिक। आप कृपया करके मुझपर प्रहार ना करें।

“शिव ने कहा, “पर अगर मैं तुम पर काम नहीं करूंगा तो फिर और किसपर करूंगा। मुझे मूर्ति बनाने के लिहाज से तुम्हारा रंग रूप बहुत ज्यादा पसंद आया। तो भला मैं तुमसे ही तो सुंदर प्रतिमा तैयार करूंगा ना।” पर वह पत्थर गिड़गिडाने लगा, “मालिक, आप मुझे कृपया करके छोड़ दे। आप मेरे बदले दूसरे पत्थर से मूर्ति तैयार कर ले।” शिव दिल से बहुत दयालु था इसलिए उसने उस पत्थर से मूर्ति बनाने का विचार त्याग दिया।

शिव ने जल्दी से वह दूसरा पत्थर उठाया और उसे तोड़ने लगा। उसने उस पत्थर पर खूब वार किए, पर उस पत्थर ने पहले पत्थर की तरह अपने मुंह से एक शब्द तक नहीं निकाला। बहुत दिन तक कड़ी मेहनत करने के बाद आखिरकार शिव ने भगवान विष्णु की एक सुंदर मूर्ति तैयार कर ली। वह तैयार की हुई मूर्ति उस व्यवसायी के पास ले गया।

व्यवसायी ने शिव की खूब तारीफ की। उसने शिव से खुश होकर सोने की सिक्के ईनाम में दिए। फिर व्यवसायी ने कहा कि उसको मंदिर में प्रतिमा के साथ एक ऐसा मजबूत पत्थर चाहिए जिसपर सभी भक्त नारियल फोड़कर भगवान को प्रसाद अर्पित कर सके। शिव के पास तो पहले से पत्थर पड़ा था। उसने वह पत्थर लाकर व्यवसायी को दे दिया।

व्यवसायी ने भगवान विष्णु की प्रतिमा मंदिर में स्थापित की और मूर्ति के आगे वह बड़ा पत्थर भी रख दिया। लोग भक्ति भाव से विष्णुजी की मूर्ति की उपासना करने आते। उपासना करने के बाद वह पत्थर पर हर दिन नारियल फोड़ते थे। जब भी लोग पत्थर पर नारियल फोड़ते, तो वह पत्थर कहराता। उसे हर दिन भयंकर पीड़ा होती। वह सोचता कि वह लोगों को खुद पर प्रहार करने से कैसे रोके। वह पत्थर हर दिन रोता। वह लोगों के व्यवहार से परेशान हो गया था।

एक दिन जब भक्तों को आने में देरी थी तो वह पत्थर भगवान की मूर्ति की आगे फफक फफक कर रोने लगा और बोला, “भगवान, यह जो आपकी मूर्ति है उसको भी पत्थर से ही बनाया गया है। परंतु भगवान, मैं यह कहना चाहता हूं कि आज मुझे इतनी प्रताड़ना क्यों मिल रही है? मैंने क्या किसी का गलत किया है। मैं भी आपकी ही तरह सम्मान पाना चाहता हूं।”

पत्थर की यह बात सुनकर भगवान बोले, “मैं तुम्हारी पीड़ा को अच्छे से समझता हूं। मैं यह भी जानता हूं कि लोग हमेशा तुमपर नारियल फोड़ते हैं। लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं होता अगर तुम अतीत में एक गलती नहीं दोहराते तो।” पत्थर ने उत्सुकतापूर्वक पूछा, “भगवान, मैंने कौनसी बड़ी गलती कर दी जिसकी सजा मुझे अब मिल रही है?” भगवान बोले, “अच्छे से याद करो तुम। क्या तुम्हें याद है कि शिल्पकार शिव दो पत्थर लाया था।

उसने पहले तुमसे प्रतिमा बनाने की सोची। लेकिन जब तुमने उसे मूर्ति बनाने से रोका तो वह दूसरे पत्थर के पास गया। दूसरे पत्थर ने कोई शिकायत नहीं की तो उसने उसी पत्थर से मेरी मूर्ति बना दी। अगर तुम थोड़ा सा कष्ट सह लेते तो आज दूसरे पत्थर की जगह तुम होते।” भगवान की पूरी बात सुनकर उस पत्थर को शर्म आ गई। उसने उसी समय अपनी गलती मान ली।

इस कहानी से मिलने वाली सीख- इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें सहनशील बनने की आदत डालने चाहिए। हमें हर परिस्थितियों में ढलना आना चाहिए। हमें अपना जीवन निडरता के साथ जीना चाहिए।

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