बहुत समय पहले दिनेश नाम का एक कुम्हार काशी के छोटे से गांव में रहा करता था। दिनेश बहुत ही ज्यादा मेहनती किस्म का आदमी था। वह बड़े ही आनंद के साथ अपने बच्चों और पत्नी के साथ रहता था। गंगा में गोते लगाना उसे बहुत पसंद था। वह मां काली के मंदिर के आगे बैठकर खिलौने बेचा करता था।
वह बच्चों के लिए मिट्टी के खिलौने बनाया करता था। उसे खिलौने बनाने में बहुत आनंद आता था। वह अपने जीवन से भी बहुत खुश था। लेकिन दिनेश की पत्नी अपने जीवन से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थी। वह हर दिन दिनेश से यह शिकायत किया करती थी कि वह खिलौने बेचकर उतना पर्याप्त धन नहीं कमा सकता है जितना कि उसे चाहिए।
वह अपनी पत्नी को हर दिन यही समझाया करता था कि जीवन में संतोष रखना बहुत ज़रूरी है। लेकिन उसकी पत्नी उसकी बात ही नहीं समझती थी। वह हर दिन दिनेश को नीचा दिखाने की कोशिश करती। वह अपने पति को हर दिन एक ही धमकी दिया करती थी कि अगर उसने शहर जाकर कोई नौकरी नहीं ढूंढी तो फिर वह बच्चों को लेकर अपने मायके चली जाएगी।
दिनेश अपनी पत्नी की इन धमकियों से परेशान आ गया था। वह हर दिन यही सोचा करता था कि वह मेहनत की रोटी खा रहा है तो भी उसकी पत्नी को उससे संतुष्टि ही नहीं है। दिनेश को मिट्टी के खिलौने बनाने में ही आनंद आता था। अपनी पत्नी के कहने पर ही उसने शहर जाकर काम ढूंढने का फैसला किया।
दिनेश जैसे तैसे करके शहर पहुंच ही गया। उसकी आंखों और दिमाग में भले ही शहर की नौकरी घूम रही हो। लेकिन उसका मन तो अभी भी मिट्टी के खिलौनों में ही डूबा हुआ था। शहर जाकर वह कई दिन तक नौकरी की तलाश में इधर उधर भटका। आखिरकार कई जगह पर चक्कर निकालने के बाद में उसे एक ऐसा सेठ मिला जो अपने घर के हिसाब से एक नौकर की तलाश में था।
जब वह सेठ दिनेश से मिला तो उसने देखा कि दिनेश बहुत ही मेहनती इंसान है। उसने दिनेश को अपने यहां नौकरी पर रख लिया। दिनेश सेठ के यहां पर चाय, नाश्ता और भोजन आदि सब कुछ बनाता। वह घर की साफ सफाई भी करता था। दिनेश को यह सब काम करने के लिए अच्छी खासी रकम मिलती थी। वह आधी से ज्यादा रकम अपनी पत्नी को भेज देता था। उसकी पत्नी इतने सारे रूपए पाकर बहुत खुश रहती थी। लेकिन एक दिनेश था जिसके पास इतने रूपए होते हुए भी उसे संतुष्टि नहीं थी।
एक दिन सेठ ने अपने सभी नौकरों से कहा कि कल उसकी बेटी का जन्मदिन है। इसलिए कल सब नई पोशाक पहनकर आएंगे। सभी नौकर इसी चीज के बारे में सोचने लगे कि आखिर वह सेठ की बेटी को उपहार में क्या देंगे। एक तरफ दिनेश भी था जिसने ज्यादा ना सोचते हुए यह तय किया कि वह सेठ की बेटी को अपने हाथ की बनी एक गुड़िया देगा। यह गुड़िया दिनेश शहर आते वक्त अपने साथ लाया था।
दिनेश ने सोचा कि इस गुड़िया से कोई और बेहतर तोहफा नहीं हो सकता सेठ की बेटी के लिए। आखिरकार इस गुड़िया में उसकी मेहनत जो छुपी थी। दिनेश अपनी असलियत से दूर नहीं होना चाहता था। वह शहर में नौकरी करते हुए भी दिन रात मिट्टी के खिलौनों के बारे में सोचता रहता।
फिर अगले दिन सेठ की लड़की का जन्मदिन था। सभी लोग सेठ की हवेली पर पहुंच गए। हवेली में बहुत ज्यादा रौनक थी। सभी आए हुए मेहमान सेठ की बेटी को जन्मदिन की बधाई दे रहे थे। थोड़ी ही देर बाद केक काटा गया। फिर मेहमानों ने सेठ की बेटी को उपहार दिए। दिनेश ने भी उसे उपहार में अपनी हाथ की बनी वह गुड़िया दी। क्योंकि वह गुड़िया गिफ्ट रैपर में पैक नहीं थी इसलिए वह सभी की नजरों में आ गई।
सेठ की बेटी तो मानो जैसे उछल पड़ी उस गुड़िया को देखकर। सेठ ने जब देखा कि उसकी बेटी ने इतने महंगे उपहारों को छोड़कर एक मिट्टी की गुड़िया को पसंद किया तो उसे भी बहुत खुशी महसूस हुई। उस गुड़िया को देखने के बाद हवेली में खड़े सभी बच्चे वैसी ही गुड़िया खरीदने की जिद करने लगे। आखिरकार सेठ ने दिनेश से उस गुड़िया के बारे में पूछना मुनासिब समझा।
सेठ ने दिनेश से पूछा, “अरे, दिनेश। तुम जरा यह तो बताओ कि तुम यह गुड़िया आखिर कहां से खरीद कर लाए? तुम्हारी गुड़िया देखने के बाद सभी बच्चे इसे खरीदने की मांग कर रहे हैं। कहां से लाए तुम यह गुड़िया?” दिनेश बोला, “जी, सेठजी, मैंने यह गुड़िया कहीं से खरीदी नहीं है बल्कि मैंने इसे अपने हाथों से बनाया है।” सेठ बोला, “तब तो मैं तुम्हारी कला का आज से मुरीद हो गया। बहुत सुंदर गुड़िया बनाई है तुमने।
एक अनुरोध है तुमसे कि तुम इन बच्चों के लिए भी एक एक गुड़िया बना दो।” दिनेश बोला, “सेठजी, आप मुझसे अनुरोध मत कीजिए। मैं इन सभी बच्चों के लिए एक एक गुड़िया तैयार कर दूंगा।” फिर थोड़े ही दिनों में दिनेश ने खूब सारी मिट्टी की गुड़िया तैयार कर दी। सभी बच्चे गुड़िया पाते ही बहुत ज्यादा खुश हो गए।
फिर कुछ दिन बाद सेठजी ने दिनेश से कहा, “दिनेश, मैं तुम्हारे हाथ की बनी गुड़िया से इतना प्रभावित हुआ कि मैंने सोचा कि क्यों ना इस चीज को एक बड़े व्यवसाय में बदल दिया जाए। मैं चाहता हूं कि तुम्हारी गुड़ियाएं विदेशों तक भी बिके। तो क्या तुम गुड़िया बनाने के इस व्यवसाय में मेरे साथ जुड़ना चाहोगे?” दिनेश के तो मानो जैसे कोई खुशी के आंसू छलक पड़े। आखिरकार उसके हुनर को किसी ने पहचान लिया था।
वह जोर जोर से रोने लगा। उसने सेठ से कहा, “मालिक, मैं तो कितने समय से गुड़िया बनाने को तरस गया था। दरअसल मैं आपके यहां पर नौकर के तौर पर काम तो करता था। पर मेरा मन मेरी गुड़िया मैं ही अटका रहता था। अब आज आपने मेरे असली हुनर को पहचानकर मेरे सपनों को एक नई दिशा दे दी है।” अब दिनेश सेठ के लिए खूब सारी गुड़िया बनाता और सेठ गुड़ियाएं देश विदेश सब जगह बेचता। अब सेठ और दिनेश को खूब मुनाफा होने लगा।
इस कहानी से मिलने वाली सीख- इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने अंदर का हुनर जगाए रखना चाहिए। हाथों का हुनर कभी भी बेकार नहीं जाता है।
अन्य नैतिक कहानियां (बच्चों के लिए) | यहाँ से पढ़ें |