सुभाष चंद्र बोस अपने समय के महान नेता रह चुके हैं। उनके जैसा वीर क्रांतिकारी हम में से किसी ने भी नहीं देखा है। वह बहुत महान थे। उनके देशभक्ति के किस्से तो हमने बहुत सुने हैं। लेकिन क्या उनके निजी जीवन से जुड़ा कोई किस्सा सुना है?
(1) दो समय की रोटी
यह बात उस समय की है जब सुभाष चंद्र बोस छोटे थे। सुभाष चंद्र बोस का दिल बहुत विशाल था। वह हर किसी के बारे में सोचा करते थे। एक दिन हर दिन की ही तरह जब वह स्कूल से आए तो उनकी नजर एक बुजुर्ग महिला पर पड़ी। वह महिला बेहद बुढ़ी और नाजुक थी। उसके चेहरे से साफ – साफ दर्द झलक रहा था।
वह गरीबी के चलते बेहद टूट चुकी थी। काफी समय तक वह उस महिला को ऐसे ही भीख मांगते हुए देखते रहे। एक दिन उनके धैर्य की सीमा टूट गई। सुभाष चंद्र बोस अपने आप को धिक्कारते हुए बोले कि, “समाज का यह कैसा न्याय है कि एक तरफ यह बुढ़ी भिखारी है जो दिन रात एक करके अपना पेट पालती है। और कहां हमारे जैसे लोग भी है जो आराम से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। यह तो सरासर सामाजिक अन्याय है।
अगर ऐसा ही चलता रहा तो गरीब और अमीर के बीच बड़ी खाई आ जाएगी। पर मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।” फिर सुभाष चंद्र बोस ने एक अच्छी तरकीब सोची। क्योंकि उनकी कॉलेज उनके घर से थोड़ी दूर थी, इसलिए उनको अपने पिता से कॉलेज तक पहुंचने के बस के पैसे मिलते थे। अब उन्होंने यह तरकीब सोची कि वह अब से हमेशा ही कॉलेज पैदल जाएंगे। और जो बस के रूपए पीछे बचेंगे उन्हें वह उस वृद्ध भिखारिन को दे देंगे। सुभाष चंद्र बोस ने किसी को भी कानों कान खबर तक पड़ने नहीं दी कि वह कॉलेज पैदल जा रहे थे और बस के पैसे बचाकर उस वृद्ध महिला को दे रहे थे।
(2) सच्ची सेवा भावना
सुभाष चंद्र बोस के जीवन से जुड़ा एक ऐसा किस्सा भी है जब कलकत्ता में भारी बाढ़ ने तबाही मचा रखी थी। बाढ़ के चलते जीवन अस्त व्यस्त हो चला था। लोगों के हाल बुरे हो गए थे। सभी को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। बाढ़ से हुए नुकसान से राहत पहुंचाने के लिए बहुत से स्वयंसेवकों ने मोर्चा संभाल रखा था। सभी स्वयंसेवक दिन रात एक करके लोगों की सेवा में ही लगे रहते थे। इन्हीं स्वयंसेवकों में सुभाष चंद्र बोस भी शामिल थे। वह भी इस नेक कार्य में अपना पूरा योगदान दे रहे थे। बहुत बार तो ऐसा भी होता था कि उन सेवकों को आराम करने तक का भी मौका नहीं मिल पाता था।
सुभाष चंद्र बोस के माता-पिता को इस बात की बहुत चिंता रहती थी कि उनका बेटा खुद के लिए बिल्कुल भी समय नहीं निकालता। एक दिन जब बोस घर लौटे तो उनके पिताजी ने कहा, “बेटा, तुम बिना थके और बिना रुके दिन रात काम में लगे रहते हो। कभी तो फुर्सत से बैठकर खुद के लिए समय निकाला करो।
हम सभी का भी बहुत मन होता है तुम्हारे साथ बातचीत करने का। पर तुम्हें तो फुर्सत ही नहीं मिल पाती है। मैं यह नहीं कह रहा कि जो तुम कर रहे हो वह गलत है। पर इस चीज के चलते हम अपने आप को तो नहीं भूल सकते हैं ना।” पिताजी की इस बात पर सुभाष चंद्र बोस ने कहा, “पिताजी, क्या आपको याद है कि आपने ही हम सभी को बचपन में सिखाया था कि सेवा से बढ़कर कोई दूसरा धन नहीं होता। तो मैं बस आपकी ही बात का अनुसरण कर रहा हूं।
” पिताजी ने कहा, “हाँ, यह सच है कि सेवा से बढ़कर कोई दूसरा धन नहीं होता। पर अपने लिए भी जीवन जीना जरूरी है। अच्छा अब एक बात बताता हूं कि गाँव वालों ने परसों माँ दुर्गा का जागरण रखा है तो उसमें तुम्हें भी शामिल होना है।” बोस ने कहा, “यह अच्छी बात है कि गाँव वालों ने माता का जागरण रखा है। पर पिताजी, मैं उसमें शामिल नहीं हो सकता हूं।
मुझे जागरण के सामने लोगों के दुख नजर आ रहे हैं। आप मुझे क्षमा करें। मैं जागरण का हिस्सा नहीं बन पाउंगा।” ऐसा कहते ही बोस के आंखों से आंसू छलक पड़े। बोस के पिता को अपने बेटे की दृढ़निश्चयी और सेवाभावी सोच पर गर्व हो रहा था।
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