(1) लक्ष्य पर ध्यान लगाओ
यह बात उस समय की है जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका के दौरे पर थे। वह अमेरिका भ्रमण का भरपूर आनंद उठा रहे थे। एक दिन वह ऐसे ही घूमने को निकले हुए थे। घूमते घूमते वह एक पुल के पास पहुंचे और वहां पर लगी बेंच पर बैठ गए। वह अपने आस-पास का नजारा देखने लगे।
वह जिस पुल पर बैठे थे वहां पर लोगों का आना जाना लगा रहता था। नीचे एक विशाल नदी बह रही थी। अचानक स्वामी विवेकानंद की नज़रे तीन मित्रों पर पड़ी। वह युवा काफी ऊर्जावान दिख रहे थे। वह तीनों एक ही काम में उलझे हुए थे। स्वामी जी ने देखा कि वह तीनों नदी में बह रहे अंडों से खेलने में व्यस्त थे। स्वामी जी को समझ में नहीं आया कि आखिर वह किस तरह का खेल खेल रहे थे।
स्वामी जी उनके नजदीक गए तो पाया कि वह तीनों अपनी बंदूक से अंडों पर निशाना लगाने की पूरी मशक्कत कर रहे थे। जब भी वह तीनों बंदूक से निशाना लगाने की कोशिश करते, उनको विफलता ही हाथ लगती। उन दोस्तों को इसी बात पर बहुत ज्यादा खीझ उठ रही थी। उन्होंने सोचा की क्योंकि वह बार-बार विफल हो रहे हैं इसलिए उन्हें निशाना लगाना छोड़ देना चाहिए। वह निराश होकर लौटने ही वाले थे।
लेकिन स्वामी जी ने उनको रोक लिया। उन्होंने उन तीनों दोस्तों से कहा कि वह भी बंदूक से निशाना लगाकर देखना चाहते हैं। उन दोस्तों ने स्वामी जी को बंदूक हाथ में थमा दी। अब स्वामी विवेकानंद ने अंडों पर निशाना साधा। उनका निशाना एकदम सटीक बैठ गया।
स्वामी विवेकानंद का सटीक निशाना देखकर उन तीनों दोस्तों को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने स्वामी विवेकानंद से पूछा कि यही निशाना जब वह लगाने की कोशिश कर रहे थे तो उनसे निशाना बार बार चूक रहा था। और यही निशाना अब आपने लगाया तो आपसे लग भी गया। इसका कारण क्या है स्वामी जी? स्वामी विवेकानंद ने कहा कि जीवन में सदैव एक चीज याद रखो कि आप जो कोई भी काम करो उसे पूरा मन लगाकर करो।
जब हम जीवन में ऐसा करना सीख जाते हैं तो हमारा जीवन महान बन जाता है। ऐसे में हम मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों से भी बाहर निकल जाते हैं। फिर स्वामी विवेकानंद जी ने उन अमरीकी बच्चों को बताया कि भारत देश में सभी को बचपन से ही सिखाया जाता है कि कैसे हम अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा कहते ही उन तीनों दोस्तों ने स्वामी विवेकानंद को प्रणाम किया।
(2) सच बोलने की हिम्मत
स्वामी विवेकानंद का जीवन एक आम इंसान से बहुत ही अलग रहा है। वह बचपन से ही एक मेधावी और होनहार छात्र थे। उनको तर्क वितर्क करना बहुत अच्छा लगता था। वह अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल रहते थे। उनका दिमाग बहुत तेज दौड़ता था। होनहार होने के साथ-साथ वह ईमानदार और न्यायप्रिय भी थे। उनकी इसी ईमानदारी से जुड़ी एक सच्ची कहानी भी है।
यह बात उन दिनों की है जब स्वामी जी स्कूल में एक विद्यार्थी थे। वह कक्षा में शैतानी भी किया करते थे। पर पढ़ाई पर अधिक जोर दिया करते थे। कक्षा में सभी विद्यार्थी उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित थे। वह सब उनकी बात को ध्यानपूर्वक सुना करते थे। एक दिन खाली पीरियड में वह आध्यात्मिकता के विषय पर बच्चों से चर्चा कर रहे थे। स्वामी विवेकानंद और उनके सहपाठी बातचीत में इतने ज्यादा मग्न थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि वह खाली पीरियड खत्म हो चला था और दूसरा पीरियड शुरू हो चुका था।
वह सब बातों में ही लीन थे कि अचानक उनके अंग्रेजी के शिक्षक ने क्लास में प्रवेश किया। पर बच्चों को बातचीत के चलते पता ही नहीं चला कि उनके मास्टरजी आ चुके थे। जब किसी ने भी टीचर की बात नहीं सुनी तो टीचर को गुस्सा आ गया। मास्टरजी जब बहुत तेज आवाज में बोले तो कहीं जाकर बच्चों को पता चला। सभी ने मास्टरजी की बात नहीं सुनने के लिए माफ़ी मांगी। पर मास्टरजी का गुस्सा कहां इतना जल्दी शांत होने वाला था।
मास्टरजी ने बच्चों से कहा कि अगर वह उनके द्वारा पूछे गए सवाल का जवाब दे देंगे तब तो वह उनको माफ़ कर देंगे। नहीं तो फिर सभी विद्यार्थियों को सजा मिलेगी। मास्टरजी ने सभी से अंग्रेजी विषय के सवाल पूछने शुरू कर दिए। सिवाय स्वामी विवेकानंद के कोई भी बच्चा टीचर के सवालों का जवाब नहीं दे पाया।
मास्टरजी विवेकानंद के जवाब से बहुत खुश हुए और उन्होंने विवेकानंद को माफ़ कर दिया। बाकी के सभी बच्चों पर मास्टरजी आग बबूला हो रखे थे। उन्होंने तुरंत ही सभी बच्चों को सजा के तौर पर कक्षा से बाहर निकलने का फरमान सुना दिया। जब सब बच्चे कक्षा से बाहर निकलने लगे तो पीछे-पीछे स्वामी विवेकानंद भी जाने लगे। यह देखकर मास्टरजी ने विवेकानंद को रोकते हुए कहा कि, “नरेंद्र, मैंने तुम्हें जाने के लिए नहीं बोला।
मैंने तो इन बच्चों को कक्षा से बाहर जाने को बोला है।” इसपर विवेकानंद झट से बोल पड़े, “लेकिन मास्टरजी, मेरी सजा यह सभी क्यों भुगते। दरअसल मैं ही इनको बात करवा रहा था तो सजा तो मुझे मिलनी चाहिए।” विवेकानंद की बात सुनते ही मास्टरजी खुशी के मारे गदगद हो उठे। वह विवेकानंद की ईमानदारी से बहुत प्रभावित हो गए और फिर सभी को माफ़ कर दिया।
(3) नारी का सम्मान
विवेकानंद का प्रभाव दूर दूर तक फैलता जा रहा था। चाहे वह देशी हो या फिर विदेशी सभी कोई विवेकानंद जी से बहुत ज्यादा प्रेरित थे। हर कोई उनसे मिलकर अच्छी शिक्षा लेना चाहता था। कोई उन्हें अपने भाई के रूप में देखता था तो कोई उन्हें अपने बेटे के रूप में देखता था।
लेकिन एक वृत्तांत ऐसा भी है जिसमें एक जने ने स्वामी विवेकानंद को अपना पति मानना चाहा। उन दिनों स्वामी जी अमेरिका के दौरे पर थे। एक दिन की बात है जब एक विदेशी महिला उनसे मिलने आई। वह स्वामी विवेकानंद से अत्यंत प्रभावित थी। यहां तक कि उसने उन्हें अपना पति मान लिया था। वह विवेकानंद के पास आकर बोली, “मैंने आपके बारे में जब से सुना है तब से मैं आपकी मुरीद हो गई हूँ।
मैं आपको अपना पति मान बैठी हूँ। मैं चाहती हूं कि आप हमेशा के लिए मेरे हो जाए। और अब जब आपको साक्षात देख लिया है तो यह इच्छा प्रबल हो गई है। मैं यह भी चाहती हूं कि हमारे विवाह से एक पुत्र की प्राप्ति हो। और वह पुत्र आपकी तरह ही पूरी दुनिया में ज्ञान की रोशनी फैलाए।” स्वामी विवेकानंद को यह बात सुनकर बहुत अजीब लगा। उन्होंने सोचा कि जब उस महिला को पता था कि वह ब्रह्मचारी हैं तो फिर उसने विवेकानंद से ऐसा सवाल क्यों किया।
लेकिन थोड़े ही पल बाद विवेकानंद ने इस बात को अपने दिमाग से निकाल दिया। इसके बाद विवेकानंद ने बड़ी ही विनम्रता के साथ कहा, “माना कि आप मुझसे अत्यंत प्रभावित हैं। लेकिन मैं आपको एक बात कहना चाहता हूँ। यह तो बात आपको भी पता है बहन कि मैं एक ब्रह्मचारी हूं। ब्रह्मचारी कभी भी शादी नहीं करते हैं। लेकिन मैं आपको यहां से निराश होकर लौटने को नहीं कहूंगा।
मैं आपकी इच्छा पूरी करना चाहता हूं। बस शर्त एक है कि आप मुझे अपना बेटा बना लीजिए। इस बात से आपका मान भी रह जाएगा और मेरा ब्रह्मचर्य भी नहीं टूटेगा।” यह बात सुनते ही वह महिला विवेकानंद के पैरों में गिर गई। और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी।
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