इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-1 यानी समकालीन विश्व राजनीति के अध्याय-6 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 6 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 12 Political Science Book-1 Chapter-6 Notes In Hindi
आप ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही तरह से ये नोट्स फ्री में पढ़ सकते हैं। ऑनलाइन पढ़ने के लिए इस पेज पर बने रहें और ऑफलाइन पढ़ने के लिए पीडीएफ डाउनलोड करें। एक लिंक पर क्लिक कर आसानी से नोट्स की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं। परीक्षा की तैयारी के लिए ये नोट्स बेहद लाभकारी हैं। छात्र अब कम समय में अधिक तैयारी कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही आप नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करेंगे, यह अध्याय पीडीएफ के तौर पर भी डाउनलोड हो जाएगा।
अध्याय- 6 “पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन”
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | बारहवीं (12वीं) |
विषय | राजनीति विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | समकालीन विश्व राजनीति |
अध्याय नंबर | छह (6) |
अध्याय का नाम | पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 12वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- समकालीन विश्व राजनीति
अध्याय- 6 (पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन)
वैश्विक धरातल पर पर्यावरण की चर्चा की जाती रही है, इसकी शुरुआत 1960 के दशक में हुई। इस अध्याय में पर्यावरण आंदोलन की तुलनात्मक चर्चा और विश्व की साझी विरासत के बारे में जानेंगे।
वैश्विक राजनीति में पर्यावरण की चिंता क्यों?
- वैश्विक स्तर पर पर्यावरण की समस्या का समाधान निकालने का विषय बेहद गंभीर है, जनसंख्या के बढ़ने के साथ-साथ सीमित संसाधन, भूमि और निर्वनीकरण की वजह से पर्यावरण की समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
- कृषि योग्य भूमि में कमी होना, भूमि का उपजाऊ न होना, मतस्य भंडार कम होना, जलाशयों के पानी में कमी आदि समयस्याओं ने सम्पूर्ण विश्व पर अपना कब्जा कर लिया है।
- यूएन की मानव विकास रिपोर्ट में कहा गया कि विकासशील देशों की 66.3 करोड़ जनता को स्वच्छ जल की उपलब्धि नहीं है और तकरीबन 2 अरब 40 करोड़ जनता को बेहतर साफ सफाई उपलब्ध नहीं है।
- वनों की कटाई के चलते जलवायु के संतुलन में मदद करने वाले वन, जिनसे जल चक्र भी संतुलित बना रहता है और जैवविविधता के भंडारण में भी ये सहायक हैं, इनमें अब समस्याएं आने लगी हैं।
- ओज़ोन की परत की मात्रा का लगातार घटना, इसमें छेद होने के कारण मनुष्य जीवन के लिए ये हानिकारक है।
- समुद्रतटीय क्षेत्रों (सागर का मध्य वर्ती हिस्सा छोड़ दें तो) में प्रदूषण बढ़ रहा है, समुद्रतटीय क्षेत्रों पर मानव की बसावट के चलते यह सब समसयाएं अब बढ़ने लगी हैं।
- इन सभी कारणों से वैश्विक स्तर के पर्यावरण पर खतरा मंडराने लगा है, जिसके लिए विभिन्न देशों की सरकारों को कदम उठाने के लिए एक जुट होना होगा।
पृथ्वी सम्मेलन
- 1962 के बाद से वैश्विक राजनीति में पर्यावरणीय चिंताओं ने अपना स्थान बनाया, इन समस्याओं से निपटने किए सरकारों ने सम्मेलनों का सहारा लिया।
- 1992 में पहला पृथ्वी सम्मेलन ब्राजील के रियो दी जेनेरिओ में हुआ, यह यूएन का पर्यावरण और विकास से संबंधित एक सम्मेलन था, जिसे पृथ्वी सम्मेलन भी कहा गया, जिसमें 173 देश, हजारों संगठन और कई बहुराष्ट्र निगम शामिल थे।
- इससे पर्यावरण को एक मजबूत आधार मिला, वहीं पर्यावरण को लेकर विकसित और विकासशील देशों की सोच भी पता चली। विश्व के विकसित देश ओज़ोन परत और ग्लोबल वार्मिंग को लेकर चिंतित थे, वहीं विकासशील देशों के लिए आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबंधन की चिंता अधिक महत्वपूर्ण थी।
- इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन, जैवविविधता, वानिकी से संबंधित नियम बनाए गए। एजेन्डा-21 के रूप में विकास के ये नए तौर तरीके सुझाए गए।
- समस्या केवल यही रही की ‘टिकाऊ विकास’ पर कैसे अमल किया जाए, जिससे आर्थिक और पर्यावरणीय चिंताओं को सुलझाया जा सके, इसे ही सतत विकास कहा गया ।
साझी संपदा एवं इसकी सुरक्षा
- जिन संपदाओं पर किसी का अधिकार नहीं होता अर्थात ये सभी के लिए उपयोगी होते हैं, इन संपादाओं को साझी संपदा कहा जाता है, जैसे बाहरी-अंतरिक्ष, वायुमण्डल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह आदि।
- विश्व में कुछ हिस्से किसी विशेष देश के हाथ में नहीं होते हैं, इसलिए इनका प्रबंधन किसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन को ही करना होता है, इसे ही विश्व की साझी विरासत या साझी संपदा कहा जाता है।
- इन संपदाओं के लिए 1959 में अंटार्कटिका संधि, (1987) मोंट्रियल प्रोटोकॉल, (1991) अंटार्कटिका पर्यावरणीय न्यायाचर संधि हो चुकी है। इन सभी संधियों ने पारिस्थितिकी की समस्या का हाल तो किया लेकिन, वैज्ञानिकों के मध्य समय सीमा को लेकर मतभेद रहा।
- 1980 में ओज़ोन लेयर में छेद होने की पुष्टि हुई, जिसका कारण बाह्य अंतरिक्ष प्रबंधन पर विकसित देशों का प्रभाव रहा था।
- पृथ्वी के वायुमण्डल और समुद्री सतह की तरह ही यहाँ पर भी जरूरी मसला प्रोद्योगिकी विकास का ही है। बाहरी अंतरिक्ष मे हो रहे दोहन का लाभ न तो बराबर रूप से इस पीढी को मिलेगा, न ही आने वाली पीढ़ी को।
सांझी किन्तु भिन्न जिम्मेदारियां
- उत्तर और दक्षिण के देशों में पर्यावरण की जिम्मेदारियों को लेकर विचारों में अंतर साफ दिखाई पड़ता है, एक और जहां विकसित राष्ट्र पर्यावरण की वर्तमान स्थिति से ही इसमें सुधार करना चाहते हैं, उनके अनुसार सभी देशों को इसमें बराबर का भागीदार होना होगा, वहीं विकासशील देशों का मानना है कि, विकसित देशों ने पर्यावरण का अधिक दोहन किया है, जिसके कारण अब उन देशों को इसके लिए अधिक जिम्मेदारी उठानी होगी ।
- प्रोद्योगिकी में नए होने के कारण ये देश इस समय किसी भी प्रतिबंध को स्वीकार नहीं करना चाहते, उनके अनुसार इस तरह के प्रतिबंध विकसित देशों पर लगाए जाना अनिवार्य है। इसी मांग को पृथ्वी सम्मेलन में मानते हुए सांझी किन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धांत को स्वीकार्य किया गया।
क्योटो प्रोटोकॉल
- वैश्विक ताप में वृद्धि होने का एक मुख्य कारण है, ग्रीन हाउस गैस में वृद्धि होना, जो कि पृथ्वी के लिए बेहद घातक है, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अधिक हिस्सा विकसित राष्ट्रों का है।
- वैश्विक तापवृद्धि के प्रभाव को कम करने के लिए 1997 में जापान के क्योटो में एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके अंतर्गत यह लक्ष्य निर्धारित किया गया की औद्योगिक देश ग्रीन हाउस गैसों का कम इस्तेमाल करेंगे।
- इसके कारण भारत, चीन जैसे विकासशील देशों को इन बाध्यताओं से दूर रखा गया, यह एक अंतर्राष्ट्रीय समझोता है। यह साझी किन्तु भिन्न जिम्मेदारी के सिद्धांत के अंतर्गत रखा गया। भारत ने इसपर 2002 में हस्ताक्षर किए।
पर्यावरणीय मसले पर भारत का मत
- भारत और अन्य विकासशील देशों को क्योटो प्रोटोकॉल के बंधनों से दूर रखा गया है, क्योंकि इन विकासशील देशों का औद्योगिक क्षेत्रों में अभी पूर्ण विकास नहीं हुआ है, जिसके चलते इन्हें इसकी बाध्यता नहीं झेलनी होगी।
- साझी लेकिन अलग जिम्मेदारी के सिद्धांत के अनुरूप, उत्सर्जन में कमी करने की अधिक जिम्मेदारी विकसित राष्ट्रों की ही है, क्योंकि इन्होंने ही अधिक समय तक उत्सर्जन किया है।
- इस तरह विकासशील देशों पर इस तरह ही बाध्यता लगाना उचित नहीं है। भारत ने 2030 तक कार्बन का उत्सर्जन बढ़ाने की अनुमती के बाद भी 2000 तक केवल 0.9 टन प्रतिव्यक्ति कार्बन का उत्सर्जन किया है, जो कि अनुमान लगाने पर 2030 तक केवल 1.6 ही होगा।
- भारत सरकार ने विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए पर्यावरण को बचाने की इस मुहीम में हिस्सा लिया, भारत ने ऑटो फ्यूल पॉलिसी, 2001 मे ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2003 में बिजली अधिनियम के द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा दिया।
- भारत ने हाल फिलहाल में प्राकृतिक गैस और स्वच्छ कोयले के प्रयोग पर बल दिया है, जो पर्यावरण के लिए उठाने वाले भारत के कदमों को दर्शाता है।
- भारत ने 2016 में पेरिस के जलवायु समझोते को अनुमोदित किया, 1997 मे भारत ने पृथ्वी सम्मेलन का पुनरावलोकन किया।
- भारत इस बात को भी जानता है कि विकसित देश यदि विकासशील देशों को वित्तीय सुविधा मुहैया कराने में मदद करें, तो विकासशील देश ‘फ्रेमवर्क कन्वेन्शन ऑन क्लाइमेट चेंज’ की बाध्यताओं को पूरा कर सकते हैं। दक्षेस के सभी देश इन मुद्दों पर यदि एक राय बनाएं तो, इनकी बात में वजन बढ़ सकता है।
पर्यावरणीय आंदोलन
- विश्व के सभी भागों मे सक्रीय आंदोलनकारियों ने वैश्विक चुनौतियों को मद्देनजर रखते हुए महत्वपूर्ण पेशकदमी की है, जो स्थानीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मौजूद है।
- पर्यावरण आंदोलनों को विश्व में जीवंत, विविधता पूर्ण तथा सामाजिक आंदोलन माना जाता है, इन आंदोलनों से नए विचार जन्म लेते हैं, इन्होंने ही हमे वैयक्तिक और सामूहिक जीवन में आगे बढ़ने की जानकारियाँ दी हैं।
वन आंदोलन
- दक्षिण देशों- भारत, चिले, मैक्सिको, इंडोनेशिया, मलेशिया और अफ्रीका आदि में वन आंदोलनों पर बेहद दबाव हैं।
- पर्यावरण को लेकर 30 सालों से सक्रियता का दौर जारी है, फिर भी इन देशों में वनों की कटाई बहुत तेजी से हो रही है।
खनिज और खनन आंदोलन
- खनिज उद्योगों को धरती का सबसे शक्तिशाली उद्योग माना जाता है, अर्थव्यवस्था में उदारीकरण के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दक्षिण के देशों की अर्थव्यवस्था खुल चुकी है।
- यह उद्योग धरती के भीतर मौजूद खनन को बाहर निकालता है, जिसके कारण भूमि और जल का प्रदूषण बढ़ता है, इसकी वजह से विस्थापन की समस्या भी बढ़ जाती है, इन्हीं कारणों से खनिज-उद्योगों की आलोचना और विरोध विश्व के कुछ भागों में हुए हैं।
- फिलीपींस में एक ऑस्ट्रेलियाई बहुराष्ट्र कंपनी वेस्टर्न माइनिंग कॉर्पोरेशन के खिलाफ आंदोलन चलाया गया, ऑस्ट्रेलिया में भी इस कंपनी का विरोध आदिवासियों के मूलभूत अधिकारों की पूर्ति न कर पाने के लिए किया जा रहा था।
बांधों के खिलाफ आंदोलन
- बांधों के विरोध में आंदोलन को अब नदियों को बचाने के रूप में देखा जाने लगा है, 1980 के दशक के मध्य में दक्षिण के देशों में पहला बांध विरोधी आंदोलन देखने को मिला, फ्रेंकलिन नदी तथा इसके परिवर्ती वनों को बचाने के लिए ऑस्ट्रेलिया में ये आंदोलन हुआ।
- अब दक्षिण के देशों में थाईलैंड, इंडोनेशिया से लेकर चीन तक बांधों को बनाने को लेकर होड लगी हुई है, भारत में भी नर्मदा आंदोलन सबसे प्रसिद्ध है। भारत में बांध विरोधी के साथ-साथ अन्य आंदोलन भी एक ही समान होते हैं, क्योंकि ये अहिंसा पर आधारित होता है।
संसाधनों की भू-राजनीति
- संसाधनों को लेकर राष्ट्रों के बीच तनातनी बनी रहती है, पश्चिमी ताकतों ने संसाधनों की भू-राजनीति को व्यापारिक संबंध, युद्ध तथा ताकत के संबंध में देखा। इसके केंद्र में विदेशों में संसाधनों की मौजूदगी रही।
- पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के समय में सामरिक संसाधनों जैसे तेल की सरल आपूर्ति का महत्व भी उजागर हो गया। इसके लिए इन देशों ने अपनी सैन्य शक्ति और समुद्री सीमा का विस्तार किया। इसके साथ-साथ बहुराष्ट्रीय निगमों की सहायता कर अन्य संधियां भी की।
- वैश्विक अर्थव्यवस्था 20वीं सदी में तेल पर निर्भर रही, इसके साथ विपुल संपदा के जुड़े होने के कारण इस पर कब्जे के लिए राजनीतिक संघर्ष छिड़ा रहा।
- पेट्रोलियम का इतिहास संघर्ष भरा रहा है, ये बात पश्चिमी एशिया और मध्य एशिया में साफ तौर पर नजर आती है। इन क्षेत्रों में विश्व के तेल भंडारण का 64% हिस्सा है, वहीं साउदी अरब के पास पूरे विश्व का 1/4 हिस्सा है। तेल के भंडार में इराक सऊदी अरब के बाद दूसरे स्थान पर है।
विश्व राजनीति में पानी
- विश्व में साफ पानी की बढ़ती किल्लत के कारण आज पानी भी विश्व की राजनीति का एक अहम हिस्सा है, कई देशों के बीच तो साफ पानी के लिए हिंसक झड़प भी देखने को मिली है।
- इज़राइल, सीरिया और जोर्डन के बीच 1950 से 1960 के बीच पानी को लेकर संघर्ष हुआ, जो जोर्डन और यारमुक नदी के पानी के बहाव को मोड़ने के कारण हुआ। इसी तरह बहुत से देशों के बीच नदियां साझा होने के कारण संघर्ष चलते रहते हैं।
मूलवासी और उनके अधिकार
- संयुक्त राष्ट्र ने मूलवासियों की परिभाषा बताते हुए कहा है कि, ये वे लोग हैं जो किसी देश में बहुत दिनों से रहते चले आ रहें, लोगों के वंशज हैं जिनपर किसी दूसरे देश के लोगों ने आकार प्रभाव डालने का प्रयास किया, किन्तु इसके बाद भी मूलवासियों ने अपनी संस्कृति, रीति रिवाज और मान्याताओं के आधार पर ही जीवन जीना जारी रखा।
- विश्व के सभी भागों में लगभग 30 करोड़ मूलवासी रहते हैं, इसमें चिले में 10 लाख मूलवासी, फिलीपींस के कोरडिलेरा में तकरीबन 20 लाख मूलवासी रहते हैं, उत्तरी अमेरिकी मूलवासियों की संख्या 3 लाख 50 हजार के करीब है, बांग्लादेश के चटगांव पर्वतीय क्षेत्र में 6 लाख आदिवासी बसे हैं।
- भारत में रहने वाले मूलवासियों के लिए अनुसूचित जाति या आदिवासी शब्द का प्रयोग किया जाता है, ये भारत की जनसंख्या का कुल 8% है।
- अन्य आंदोलनों की तरह ही मूलवासी भी अपने संघर्षों और बराबरी के अधिकारों को पाने के लिए आवाज उठाते हैं, मूलवासियों को राजनीतिक मंच प्रदान करने के लिए 1975 में वर्ल्ड कॉउन्सिल ऑफ इन्डिजनस पीपल का गठन हुआ।
PDF Download Link |
कक्षा 12 राजनीति विज्ञान के अन्य अध्याय के नोट्स | यहाँ से प्राप्त करें |