इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-2 यानी स्वतंत्र भारत में राजनीति के अध्याय-8 भारतीय राजनीति: नए बदलाव के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 8 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 12 Political Science Book-2 Chapter-8 Notes In Hindi
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अध्याय- 8 “भारतीय राजनीति: नए बदलाव”
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | बारहवीं (12वीं) |
विषय | राजनीति विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | स्वतंत्र भारत में राजनीति |
अध्याय नंबर | आठ (8) |
अध्याय का नाम | भारतीय राजनीति: नए बदलाव |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 12वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- स्वतंत्र भारत में राजनीति
अध्याय- 8 (भारतीय राजनीति: नए बदलाव)
1990 का दशक
- 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लोकसभा चुनाव कराए गए, जिसमें काँग्रेस की तरफ से राजीव गांधी को सरकार बनाने का मौका मिला, काँग्रेस की इस विजय के बाद राजनीति में कई बड़े एवं महत्वपूर्ण परिवर्तन आए।
- काँग्रेस प्रणाली का अंत– इस दौर की महत्वपूर्ण घटना है 1989 के चुनावों में काँग्रेस की हार, जहां 1984 में काँग्रेस को 415 सीटें मिली थीं, वहीं आज 1989 में काँग्रेस को मात्र 197 सीटें ही मिलीं। इस हार के बाद काँग्रेस प्रणाली समाप्त होती दिखी।
- 1991 में काँग्रेस दुबारा सत्ता में तो आई, लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञों की भाषा में कहे जाने वाले शब्द काँग्रेस प्रणाली की अब यहाँ से समाप्ति हो गई थी।
- राजनीति में मण्डल मुद्दे का उदय– राष्ट्रीय मोर्चा की नई सरकार ने 1990 में मण्डल आयोग की आरक्षण के संदर्भ में सिफारिशों को लागू किया। इसमें ओबीसी वर्ग के लोगों को आरक्षण दिया गया था।
- इसके बाद देश में आरक्षण के समर्थकों और विरोधियों के बीच प्रदर्शन हुए, जिसे मण्डल मुद्दा कहा जाता है।
- नए आर्थिक सुधार– इस दौर की राजनीतिक पार्टियों ने बुनियादी आर्थिक उपायों को छोड़कर नए आर्थिक सुधार अपनाए। 1991 के बाद ये बदलाव प्रकट होने लगे।
- इन नीतियों का बड़े सामाजिक संगठनों ने विरोध किया, इसके बाद भी इस समय जितनी भी सरकारें बनीं सबने इन नीतियों पर जोर दिया।
- बाबरी मस्जिद मुद्दा– यह घटना 1992 में हुई, जिसमें विवादित अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद को गिर दिया गया, यह देश की राजनीति में बड़े परिवर्तन लेकर आई जिसने देश में राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता की आग को भड़काने का काम किया।
- काँग्रेस के नेतृत्व में बदलाव– मई, 1991 में राजीव गांधी चुनाव अभियान के सिलसिलें में तमिलनाडु दौरे पर गए और लिट्टे से जुड़े श्रीलंकाई तमिलों ने उनकी हत्या कर दी। इसके बाद काँग्रेस के नेतृत्व में बड़ा परिवर्तन देखने को मिला।
गठबंधन का युग
- 1989 में काँग्रेस की हार हुई लेकिन किसी अन्य पार्टी को भी बहुमत नहीं मिला, इस समय भी काँग्रेस ही लोकसभा की बड़ी पार्टी थी। राष्ट्रीय मोर्चा की गठबंधन वाली सरकार बनने पर काँग्रेस ने विपक्ष में बैठना सही समझा।
- काँग्रेस का पतन– 1960 के दशक में काँग्रेस के राज को चुनौती मिली, इंदिरा गांधी ने फिर भी काँग्रेस का प्रभुत्व जारी रखा। नब्बे के दशक में भी यह चुनौती काँग्रेस को मिली लेकिन इसके बाद भी काँग्रेस को टक्कर देने वाली कोई पार्टी अभी राजनीति में नहीं आई थी।
- इससे देश की राजनीति में दलीय शासन का उदय हुआ। लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि 1989 से लेकर 2014 तक किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका।
- इसके कारण ही राजनीति में क्षेत्रीय पार्टियों ने गठबंधन की सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद 2014 में भाजपा को अकेले ही पूर्ण बहुमत मिला।
गठबंधन की राजनीति
- नब्बे के दशक में कई शक्तिशाली दलों ने दलितों और पिछड़े वर्गों को नेतृत्व दिया साथ ही क्षेत्रीय आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आंदोलन चलाया। इन्होंने गठबंधन की राजनीति में एक बड़ी भूमिका निभाई।
- काँग्रेस की 1989 की हार के बाद कुछ अन्य दलों के साथ मिलकर जनता दल ने राष्ट्रीय मोर्चा नाम से गठबंधन बनाया। भाजपा और वाम मोर्चा ने इन दलों का बाहरी समर्थन किया।
- भाजपा ने 1996 में खुद को एक मजबूत पार्टी के तौर पर निखारा, इस दल को सरकार बनाने के मोके तो मिले लेकिन दलों के समर्थन के अभाव में ऐसा हो न सका।
- 1998 में भाजपा गठबंधन में सत्ता में आई इनकी सरकार मई, 1998 से 1999, जून तक रही। 1999 में एनडीए ने चुनावों में बहुमत हासिल कर अपना कार्यकाल पूरा किया।
- इस दौर में 11 सरकार गठबंधन के आधार पर बनी। राष्ट्रीय मोर्चा सरकार- 1989, संयुक्त मोर्चा सरकार 1996/1997, एनडीए सरकार 1998/1999, संप्रग सरकार 2004 व 2009 में। 2014 में ये सिलसिला खत्म हुआ।
अन्य पिछड़े वर्ग का राजनीतिक उदय
- अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति से अलग वर्ग अन्य पिछड़ा वर्ग का उदय गठबंधन के दौर में हुआ। काँग्रेस के इन जातियों से दूर हो जाने के बाद गैर-काँग्रेसी पार्टियों ने इनका समर्थन किया।
- इस वर्ग पर जनता पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टियों का प्रभाव था। जनता पार्टी 1977 काँग्रेस की इस वर्ग से दूरी का लाभ उठाकर ही सत्ता में आई। इन दलों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के अन्य पिछड़ा वर्गों ने समर्थन किया।
मण्डल आयोग
- उत्तर भारत के अलावा दक्षिण भारत में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 1960 के दशक से ही आरंक्षण का नियम लागू था। 1977-79 के बीच जनता पार्टी की सरकार में इस वर्ग के आरक्षण की मांग बढ़ने लगी।
- 1978 में सरकार ने इन मांगों के चलते एक आयोग का गठन किया। इस आयोग का नाम था, दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग क्योंकि इससे पहले भी इससे ही एक आयोग का गठन किया जा चुका था।
- आयोग के अध्यक्ष बिनदेश्वरी प्रसाद मण्डल थे, इनके नाम पर ही इस आयोग का नाम ‘मण्डल आयोग’ रखा गया। 2018 में इसमें 102वां संविधान संशोधन कर इसे संवैधानिक दर्जा दिया गया।
- देश में विभिन्न वर्गों के मध्य शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन की जानकारी एकत्रित करने के लिए और इन पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए इस आयोग का गठन किया गया।
- आयोग की सिफारिशें– देश की जाति व्यवस्था में अन्यपिछड़ा वर्ग को अनुसूचित जाति की तरह ही नीच समझा जाता है, इसलिए पिछड़ा वर्ग का अर्थ पिछड़ी जाति के संदर्भ में लिया जाना चाहिए।
- इस जाति के लोगों का प्रतिनिधित्व कम होने के कारण शिक्षा संस्थानों और सरकारी नौकरियों में इस वर्ग के लोगों को 27% आरक्षण दिया जाना चाहिए।
- 1990 में सरकार ने मण्डल आयोग की इन सिफारिशों में से केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण देने के प्रावधान को सम्पूर्ण देश में लागू कर दिया।
राजनीतिक परिणाम
- मण्डल आयोग की इन सिफारिशों को लागू करने के बाद उत्तर भारत में हिंसक प्रदर्शन हुए, सर्वोच्च न्यायालय में भी इस फैसले को चुनौती दी गई। इस केस को इंदिरा सहानी केस के नाम से जाना गया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के इस फैसले को उचित बताया। राजनीतिक दलों ने इस वर्ग की शासन व्यवस्था में भी प्रतिनिधित्व की मांग की, जिससे उनके राजनीतिक हित पूरे हो सके।
- इसके बाद पिछड़े वर्गों के लोग अपनी पहचान के लिए जागरूक हुए, कई पार्टियों ने इस वर्ग के लोगों को अवसर दिए।
सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र
- 1980 और 90 के दशक में देश ने सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर विवाद और कई मुद्दों को जन्म लेते देखा।
- इस दौरान अपनी धार्मिक पहचान के लिए लोगों में विरोधी भावनाएं उठने लगीं, इसके कारण राजनीति में भी इस तरह से मुद्दों पर बहसों का दौर जारी हो गया। इस धर्म पर आधारित राजनीति के कारण लोकतंत्र में तीखे वाद-विवाद और टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई।
- 1980 में भाजपा सरकार ने देश में गाँधीवादी विचारधारा को अपनाया, जिसका कोई सकारात्मक परिणाम देश में देखने को नहीं मिला।
- दो बार चुनाव हार जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए देश के हिन्दुओं को एकजुट करना आरंभ कर दिया।
- हिन्दुओं को एकत्रित करने के लिए एक शब्द दिया गया, ‘हिन्दुत्व’। देश के हिन्दुओं को ही इस देश की नींव कहा गया। भाजपा ने हिंदुवादी पार्टी की सिद्धि के लिए अयोध्या विवाद और शाहबानो विवाद को मूल बनाया।
शाहबानो विवाद
- यह एक 62 वर्षीय मुस्लिम तलाकशुदा महिला से संबंधित मामला है, जिसने अपने पहले पति से गुजर भत्ता लेने के लिए अदालत में अर्जी दायर की।
- अदालत ने शहबानों के पक्ष में फैसला दिया, जो मुसलमानों को अपने पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप लगा। इसके बाद केंद्र सरकार ने इन मुस्लिम नेताओं की मांग को मानकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त कर दिया।
- सरकार के इस कदम का महिला संगठनों और अन्य बुद्धिजीवियों ने विरोध किया। काँग्रेस के इस फैसले का बीजेपी ने विरोध किया और इसे अल्पसंख्यकों को अनावश्यक सुविधा देने का मुद्दा बताया।
अयोध्या विवाद
- फरवरी, 1986 में फैजाबाद जिला न्यायालय के फैसले के बाद विवादों में घिरी बाबरी मस्जिद को हिन्दुओं की पूजा के लिए खोल दिया गया। ताला खुलते ही दोनों जातियों के समर्थकों ने अपने संगठनों को एकजुट कर लिया।
- मुस्लिमों के लिए यह स्थान पवित्र है, लेकिन हिन्दुओं का मानना है कि यह भगवान राम की जन्मभूमि है और यहाँ मस्जिद से पहले मंदिर हुआ करता था। 1940 में इस मस्जिद पर ताला लगा दिया गया था।
- इसका ताला खुलते ही इसे राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया। राष्ट्रीय स्वयं सेवी संघ और विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से यूपी के अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली।
- हिन्दू समर्थकों ने यहाँ राम मंदिर के निर्माण के लिए 1992 में एक कारसेवा का आयोजन किया, जिसमें रामभक्तों को श्रमदान करने के लिए कहा गया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने विवादित स्थल की सुरक्षा बढ़ाने के लिए राज्य सरकार को कहा, इसके बाद भी 6, दिसंबर, 1992 में लोगों ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया। इसके कारण देश भर में हिन्दू-मुस्लिम हिंसा भड़क गई।
- केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री को न्यायालय के अपमान करने के लिए प्रतीकात्मक रूप से दंडित किया गया।
एक नई सहमति का उदय
- 1989 का काल भाजपा का उदय काल था, जिसमें काँग्रेस का पतन हो रहा था। 1984-2004 के चुनावों में दोनों पार्टियों बड़ी प्रतियोगिता में थीं, दोनों के वोट 1989 के बाद से 50 फीसदी से भी अधिक थे।
- इसके बाद से इन दोनों दलों ने गठबंधन की राजनीति को भी बढ़ावा दिया। राजनीति में विभिन्न दलों के बीच काफी मुद्दों पर सहमति भी बनती दिखाई देने लगी।
- देश की आर्थिक नीति में सुधार के लिए दलों में सहमति हुई। इनके अनुसार विश्व में भारत को आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने के लिए यह आवश्यक है।
- पिछड़ी जातियों को लेकर सभी दल एक खेमे में खड़े दिखाई देने लगे, इनका उद्देश्य था कि पिछड़े वर्गों को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण प्राप्त हो सके।
- देश के शासन में प्रांतीय दलों की भूमिका में भी अधिकतर दल सहमत होते नजर आए। अब राष्ट्रीय और प्रांतीय दलों का अंतर कम होने लगा था।
- विचारधारा के स्थान पर कार्यसिद्धि पर जोर दिया जाने लगा। इस समय में कई दलों ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई जो 5 साल तक चली भी।
- इस प्रकार से नए बदलावों को विभिन्न दलों ने स्वीकार किया, वहीं कुछ दल इसके विपरीत खड़े भी दिखाई दिए। जनांदोलनों ने इन सहमतियों को प्रभावित किया।
समय-सूची
वर्ष | घटना |
1978 | मण्डल आयोग का गठन |
1989 | काँग्रेस प्रणाली की समाप्ति की शुरुआत |
1990 | मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू किया गया |
मई, 1991 | राजीव गांधी की हत्या |
दिसंबर, 1992 | बाबरी मस्जिद विवाद |
2018 | मण्डल आयोग का 102वां संविधान संशोधन |
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