इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 10वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक यानी “लोकतांत्रिक राजनीति-2” के अध्याय- 2 “संघवाद” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय- 2 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 10 Political Science Chapter-2 Notes In Hindi
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अध्याय-2 “संघवाद“
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | दसवीं (10वीं) |
विषय | सामाजिक विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | लोकतांत्रिक राजनीति-2 (राजनीति विज्ञान) |
अध्याय नंबर | दो (2) |
अध्याय का नाम | “संघवाद” |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 10वीं
विषय- सामाजिक विज्ञान
पुस्तक- लोकतांत्रिक राजनीति-2 (राजनीति विज्ञान)
अध्याय- 2 “संघवाद”
संघवाद का मतलब
- संघवाद एक ऐसी प्रणाली है जिसके अंतर्गत सत्ता केंद्र और विभिन्न राज्यों के बीच बँटी होती है।
- पहले बेल्जियम में एकात्मक शासन प्रणाली थी लेकिन वर्ष 1993 में कुछ ऐसे बदलाव हुए जिसके बाद राज्य सरकारों को भी कुछ संवैधानिक अधिकर दिए गए।
- प्रांतीय सरकारें मिले हुए अधिकारों के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर नहीं रहती है।
- बाद में बेल्जियम में एकात्मक शासन की जगह संघीय शासन व्यवस्था अपना ली गई।
- श्रीलंका में आज भी एकात्मक शासन व्यवस्था है, जिसमें संपूर्ण संघीय शक्तियाँ केंद्र सरकार के हाथ में होती है।
- संघीय व्यवस्था में दो स्तर की सरकारें होती हैं।
- इसमें एक सरकार पूरे देश के लिए होती है, उसके बाद राज्य स्तरों की सरकारें होती हैं।
- एकात्मक शासन व्यवस्था में शासन का एक स्तर होता है और बाकी क्षेत्र उसके अधीन होकर कार्य करते हैं।
- संघीय शासन व्यवस्था के अंतर्गत केंद्र सरकार राज्य सरकार पर अपने आदेश को नहीं थोप सकती है।
- राज्य सरकारें अपनी शक्तियों के उपयोग के लिए केंद्र सरकार को जवाबदेह नहीं होती हैं।
- संघीय शासन व्यवस्था के अंतर्गत दोनों सरकारें अपने-अपने स्तर पर जनता को जवाबदेह होती हैं।
संघीय व्यवस्था की विशेषताएँ
- यह सरकार दो या दो से अधिक स्तरों वाली हो सकती है।
- ये सरकारें एक ही नागरिक समूह पर शासन करती है लेकिन कानून बनाने और उसे संचालित करने पर उनका अपना अधिकार-क्षेत्र होता है।
- सरकारों के अधिकार-क्षेत्र संविधान में वर्णित होते हैं और संविधान उनके अस्तित्व एवं प्राधिकार को सुरक्षा प्रदान करता है।
- संविधान के मौलिक कानूनों में बदलाव दोनों स्तर की सरकारों की सहमति पर ही संभव है।
- न्यायालयों को विभिन्न स्तर की सरकारों के अधिकारों के विवाद संबंधित मामलों में निर्णायक भूमिका निभाने का अधिकार है।
- प्रत्येक स्तर की सरकारों के लिए राजस्व के अलग-अलग स्त्रोत निश्चित किए गए हैं।
- संघीय शासन व्यवस्था के मुख्य दो उद्देश्य हैं, जोकि निम्न प्रकार हैं-
- देश की एकता की सुरक्षा को बढ़ावा देना।
- क्षेत्रीय विविधताओं का सम्मान करना।
- इस शासन व्यवस्था में सरकारों का एक-दूसरे पर भरोसा बनाए रखना सबसे अधिक जरूरी होता है।
- सरकारों के बीच सत्ता का बँटवारा हर संघित सरकार में अलग तरह का होता है।
- संघीय शासन व्यवस्था दो प्रकार से गठित की जाती है-
- पहला- इसमें दो या दो से अधिक स्वतंत्र राष्ट्रओं को मिलाकर एक बड़ी इकाई गठित की जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विट्जरलैंड और ऑस्ट्रेलिया में ऐसी ही सरकार है।
- दूसरा- इसमें देश द्वारा अपनी आंतरिक विविधताओं के आधार पर प्रांतों का गठन किया जाता है, उसके बाद प्रांत तथा राष्ट्र के बीच सत्ता का बँटवारा किया जाता है। भारत, बेल्जियम और स्पेन में ऐसी ही शासन व्यवस्था कायम है।
भारत में संघीय शासन व्यवस्था
- भारत देश का गठन संघीय शासन व्यवस्था के सिद्धांत पर हुआ था।
- संविधान द्वारा संघ और राज्य दो स्तरीय शासन व्यवस्था का प्रावधान किया था।
- बाद में संघीय शासन का तीसरा स्तर पंचायतों और नगरपालिकाओं को चुना गया।
- संविधान में विधायी अधिकारों को तीन सूचियों में बाँटा गया है।
केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी अधिकारों का वर्णन
केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी अधिकारों के तीन वर्गों (सूचियों) का वर्णन निम्न प्रकार से है-
1. संघ सूची
- इस सूची में सुरक्षा, विदेशी मामले, बैंकिंग, संचार एवं मुद्रा जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों को शामिल किया गया है।
- इन विषयों के मामले में पूरे देश में एक समान नियम लागू किए जाते हैं।
- इस सूची में सम्मिलित विषयों से संबंधित कानून बनाने का आधिकार सिर्फ केंद्र सरकार के पास है।
2. राज्य सूची
- इसमें पुलिस, व्यापार, वाणिज्य, कृषि एवं सिंचाई जैसे राज्य तथा स्थानीय स्तर के विषयों को शामिल किया गया है।
- इस सूची में सम्मिलित विषयों के बारे में सिर्फ राज्य सरकार ही कानून बना सकती है।
3. समवर्ती सूची
- समवर्ती सूची में शिक्षा, वन, मजदूर-संघ, विवाह, गोद लेना तथा उत्तराधिकार जैसे विषयों को शामिल किया गया है।
- इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को है।
- कानून बनाते समय यदि कोई टकराव उत्पन्न होता है, तो ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार का फैसला मान्य होता है।
- भारत में कुछ ऐसे छोटे इलाके भी हैं, जो अपने आकार की वजह से स्वतंत्र प्रांत नहीं बन पाए।
- चंडीगढ़ और दिल्ली केंद्र प्रशासित प्रदेश हैं। इन इलाकों में राज्यों वाले अधिकार नहीं है।
- संवैधानिक प्रावधानों एवं कानून प्रक्रिया की देश-रेख में न्यायपालिका महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
भारतीय संघीय व्यवस्था की प्रक्रिया
- संघीय व्यवस्था भाषायी राज्यों, भाषा-नीति, केंद्र व राज्यों के संबंधों पर आधारित होती है।
- संघीय व्यवस्था के कारगर कार्य प्रक्रिया के लिए संवैधानिक प्रावधान का होना जरूरी है।
- भारत में संघीय व्यवस्था की सफलता का श्रेय लोकतांत्रिक राजनीति को दिया जाता है।
- भारत ने वर्ष 1947 में लोकतंत्र की यात्रा शुरू की थी।
- वर्ष 2019 में भारत में भाषा के आधार पर बहुत से नए प्रांत बनाए गए।
- कुछ राज्यों का गठन संस्कृति, भूगोल और जातीय भिन्नता को रेखांकित करने तथा उन्हें आदर देने के उद्देश्य से किया गया। नागालैंड, उत्तराखंड, झारखंड ऐसे ही राज्यों के उदाहरण हैं।
- भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया है।
- हिंदी को राजभाषा माना गया है लेकिन यह लगभग 40% ही भारतीयों की मातृभाषा है।
- हिंदी के साथ-साथ 21 भाषाओं को भी अनुसूचित भाषा का दर्जा दिया गया है।
- वर्ष 1965 में कामकाज की भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग समाप्त होने वाला था लेकिन गैर-हिंदी भाषी प्रदेशों के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाया।
- केंद्र और राज्यों के बीच अच्छा संबंध संघवाद को मजबूती प्रदान करता है।
- वर्ष 1990 के बाद अनेक दलों का उदय हुआ, जिसके परिणामस्वरूप केंद्र में ‘गठबंधन सरकार’ बनने लगी।
भारत में सत्ता का विकेंद्रीकरण
- भारत के अनेक राज्य आंतरिक तौर पर विविधताओं से भरे हैं।
- जनसंख्या की दृष्टि से उत्तर प्रदेश रूस से भी बड़ा राज्य है।
- जब केंद्र और राज्य सरकार से शक्तियाँ लेकर स्थानीय सरकारों को दी जाती हैं, तो उसे सत्ता का विकेंद्रीकरण कहते हैं।
- विकेंद्रीकरण के अंतर्गत कई मुद्दों और समस्याओं का निपटारा स्थानीय स्तर पर किया जा सकता है।
- स्थानीय स्तर पर विभिन्न फैसलों में जनता से सीधे जुड़ना संभव हो जाता है।
- सत्ता का विकेंद्रीकरण लोकतांत्रिक सिद्धांत को वास्तविक बनाने का सबसे अच्छा तरीका माना जाता है।
- भारतीय संविधान में विकेंद्रीकरण की जरूरत को स्वीकृति दी गई है।
- वर्ष 1992 में विकेंद्रीकरण की दिशा में निम्नलिखित प्रयास किए गए थे-
- स्थानीय चुनाव नितमीय रूप से कराना संवैधानिक बाध्यता है।
- निर्वाचित स्वशासी निकायों के सदस्य और पदाधिकारियों के पदों में सीटें आरक्षित हैं।
- एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं।
- राज्य में पंचायत और नगरपालिका का चुनाव कराने के लिए राज्य चुनाव आयोग का गठन किया गया।
- सत्ता में भागीदारी की प्रकृति प्रत्येक राज्य में अलग-अलग है।
ग्रामीण स्तर पर स्थानीय शासन व्यवस्था
- प्रत्येक गाँव में एक ग्राम पंचायत होती है।
- पंचायत में एक अध्यक्ष होता है। इसके सदस्य वार्डों से चुने जाते हैं, जिन्हें पंच कहा जाता है।
- पंचायत के अध्यक्ष को सरपंच कहा जाता है।
- इनका चुनाव गाँव और वार्ड में रहने वाले बुजुर्ग लोगों के बहुमत से होता है।
- ग्राम पंचायत का बजट पास करने के लिये वर्ष में दो या तीन बार बैठक करनी पड़ती है।
- स्थानीय शासन जिला स्तर तक सीमित होता है।
- स्थानीय शासन व्यवस्था शहरों में भी कार्य करती है लेकिन शहरों में यह नगर पालिका के रूप में कार्य करती है।
- नगरपालिकाओं और ग्राम पंचायतों के लिए लगभग 36 लाख लोगों का चुनाव होता है।
- भारत में स्थानीय सरकारों को संवैधानिक दर्जा देने से ही लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हो पाई हैं।
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