Class 12 Geography Book-2 Ch-6 “भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास” Notes In Hindi

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Mamta Kumari
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इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की भूगोल की पुस्तक-2 यानी भारत लोग और अर्थव्यवस्था के अध्याय- 6 “भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय- 6 भूगोल के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।

Class 12 Geography Book-2 Chapter-6 Notes In Hindi

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अध्याय- 6 “भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास“

बोर्डसीबीएसई (CBSE)
पुस्तक स्रोतएनसीईआरटी (NCERT)
कक्षाबारहवीं (12वीं)
विषयभूगोल
पाठ्यपुस्तकभारत लोग और अर्थव्यवस्था
अध्याय नंबरछः (6)
अध्याय का नाम“भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास”
केटेगरीनोट्स
भाषाहिंदी
माध्यम व प्रारूपऑनलाइन (लेख)
ऑफलाइन (पीडीएफ)
कक्षा- 12वीं
विषय- भूगोल
पुस्तक- भारत लोग और अर्थव्यवस्था
अध्याय- 6 “भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास”

नियोजन का अर्थ और उसके प्रकार

  • सोच-विचार की प्रक्रिया, कार्यक्रम की रूपरेखा और उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु गतिविधियों के क्रियान्वयन को नियोजन में शामिल किया जाता है।
  • नियोजन शब्द अपने आप में व्यापक है लेकिन यहाँ इसका प्रयोग भारत के आर्थिक विकास के संदर्भ में किया गया है।
  • भारत ने पहले केंद्रीकृत योजनाओं को अपनाया उसके बाद केंद्रीकृत बहुस्तरीय योजनाओं की तरफ कदम बढ़ाया।
  • नियोजन को दो भागों में बाँटा गया है-
    • खंडित नियोजन: अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों जैसे- कृषि, सिंचाई, विनिर्माण, निर्माण, ऊर्जा, परिवहन, संचार, सामाजिक अवसंरचना और सेवाओं के विकास के लिए कार्यक्रम बनाना एवं उनको लागू करना खंडित नियोजन कहलाता है।
    • प्रादेशिक नियोजन: आर्थिक विकास के संदर्भ में प्रादेशिक असंतुलन को कम करने के लिए बनाए गए नियोजन को प्रादेशिक नियोजन कहते हैं। इस नियोजन के अंतर्गत असमान विकास के अंतर को कम करने के लिए स्थानिक स्तर पर योजनाएँ बनाई जाती हैं।

लक्ष्य क्षेत्र नियोजन

  • नियोजन की आवश्यकता आर्थिक रूप से पिछड़े देशों को अधिक होती है।
  • किसी भी राष्ट्र या क्षेत्र में आर्थिक विकास के लिए संसाधनों के साथ-साथ तकनीक तथा निवेश की आवश्यकता होती है।
  • आठवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत पर्वतीय क्षेत्रों और उत्तर-पूर्वी राज्यों में अवसंरचना को विकसित करने के लिए विशिष्ट क्षेत्र योजना तैयार की गई।
  • क्षेत्रीय तथा सामाजिक असंतुलन को कम करने के लिए योजना आयोग ने दो योजनाओं को प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार है-
    • लक्ष्य क्षेत्र योजना: इसके अंतर्गत नियंत्रीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम, सूखाग्रस्त क्षेत्र विकास कार्यक्रम, एवं पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम सम्मिलित किए गए हैं।
    • लक्ष्य समूह योजना: लक्ष्य समूह में लघु कृषक विकास संस्था (SFDA), सीमांत किसान विकास संस्था (MFDA) को शामिल किया गया है।

भारत में पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम

  • पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम को शुरू किया गया।
  • प्रारंभ में पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम में 15 राज्य शामिल थे।
  • वर्ष 1981 में राष्ट्रीय समिति ने सिफारिश की थी कि उन सभी पर्वतीय क्षेत्रों को पिछड़े पर्वतीय क्षेत्रों में शामिल किया जाए, जिनकी ऊँचाई 600 मीटर से अधिक है।
  • पिछड़े पहाड़ी क्षेत्रों के विकास को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय समिति द्वारा निम्नलिखित सुझाव दिए गए थे-
    • सभी लोग लाभांवित हों, सिर्फ प्रभावशाली व्यक्ति ही नहीं।
    • स्थानीय संसाधनों एवं प्रतिभावों का विकास हो।
    • जीविका निर्वाह अर्थव्यवस्था को निवेश उन्मुखी बनाना।
    • अंतःप्रादेशिक व्यापार में पिछड़े देशों का शोषण न हो।
    • पिछड़े क्षेत्रों की बाजार व्यवस्था में सुधार करके श्रमिकों को लाभ पहुँचाना।
    • परिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखना।

सूखा संभावी क्षेत्र विकास कार्यक्रम

  • चौथी पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत सूखा संभावी क्षेत्र विकास कार्यक्रम शुरू किया गया था।
  • इसका मुख्य उद्देश्य सूखे से ग्रस्त लोगों को रोजगार और उत्पादन उपलब्ध करना था।
  • शुरुआत में इसमें अधिक श्रमिकों की आवश्यकता वाले सिविल कार्यों को महत्व दिया जाता था लेकिन पंचवर्षीय योजना ने इसके कार्य क्षेत्र को और भी अधिक विस्तृत कर दिया।
  • इस कार्यक्रम से कृषि व इससे संबंधित क्षेत्रों में विकास और पर्यावरणीय संतुलन के पुनःस्थापना को विशेष बल मिला।
  • अब जनसंख्या वृद्धि के कारण सीमांत भूमि का भू उपयोग होने लगा।
  • वर्ष 1967 में योजना आयोग ने भारत में 67 जिलों की पहचान सूखा संभावी जिलों के रूप में की थी।
  • वर्ष 1972 में सिंचाई आयोग ने 30% क्षेत्रों का परिसीमन सिंचित क्षेत्र को आधार मानकर किया।
  • राजस्थान, गुजरात, पश्चिम मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे राज्य सूखा संभावी क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं।

भरभौम जनजातीय क्षेत्र में समन्वित विकास कार्यक्रम

  • 21 नवंबर 1975 से अधिसूचित जनजातीय क्षेत्र भरभौम क्षेत्र है।
  • ‘गद्दी’ जनजाति के लोग ऋतु प्रवास करते हैं और गद्दीयाली भाषा बोलते हैं।
  • भरभौम जनजातीय क्षेत्र की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
    • भरभौम जनजातीय क्षेत्र में जलवायु कठोर, आधारभूत संसाधन कम और पर्यावरण भंगुर है।
    • इनका आर्थिक आधार कृषि और इससे संबंधित क्रियाएँ जैसे भेड़, बकरी पालन है।
    • गद्दी लोगों को अनुसूचित जनजातियों में शामिल करने के बाद इस क्षेत्र में विकास प्रक्रिया वर्ष 1970 में शुरू की गई।
    • वर्ष 1974 में पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत ‘जनजातीय उप-योजना’ शुरू हुई थी।
    • जनजातीय समन्वित विकास उप-योजना लागू होने से सामाजिक साक्षरता दर में वृद्धि हुई, लिंग अनुपात में सुधार हुआ और बाल-विवाह में कमी आई।
    • स्त्री साक्षरता दर वर्ष 1971 में 1.88% थी जोकि वर्ष 2011 में बढ़कर 65% हो गई।
    • 20वीं शताब्दी के अंतिम तीन दशकों के दौरान भरभौम क्षेत्र में दालों तथा नगदी फसलों की खेती में बढ़ोत्तरी हुई।

सतत पोषणीय विकास की गति

  • समाज विशेष की स्थिति और उसके द्वारा अनुभव की गई परिवर्तन की प्रक्रिया विकास कहलाती है।
  • मानव और समाज की प्रक्रियाओं का निर्धारण समाज में विकसित प्रौद्योगिकी और संस्थाओं के पोषण से होता है।
  • विकास एक गतिक संकल्पना है जिसका उद्भव 20वीं शताब्दी में हुआ।
  • वर्ष 1960 के दशक के अंत में पश्चिमी दुनिया में पर्यावरण संबंधित मुद्दों पर बढ़ती जागरूकता के कारण सतत पोषणीय धारणा का विकास हुआ।
  • वर्ष 1970 के दशक में ‘पुनर्वितरण के साथ वृद्धि’ एवं ‘वृद्धि और समानता’ को भी विकास में शामिल किया गया।
  • विकास के अंतर्गत कल्याण व रहने के स्तर, जन स्वास्थ्य, शिक्षा, समान अवसर, राजनीति और नागरिक अधिकारों से संबंधीय मुद्दे भी शामिल हैं।
  • 1980 के दशक तक विकास एक बहु-आयामी संकल्पना हो गई थी।
  • ‘विश्व पर्यावरण और विकास आयोग’ (WECD) की स्थापना पर्यावरण के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा की गई।
  • वर्ष 1987 को आयोग ने एक रिपोर्ट ‘अवर कॉमन फ्यूचर’ पेश की, जिसे ब्रंटलैंड रिपोर्ट भी कहते हैं।
  • इस रिपोर्ट के अनुसार सतत पोषणीय विकास का अर्थ “भविष्य में आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकता पूर्ति को प्रभावित किए बिना वर्तमान पीढ़ी द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति करना” है।

इंदिरा गाँधी नहर और उसका महत्व

  • इंदिरा गाँधी नहर को पहले राजस्थान नहर के नाम से जाना जाता था।
  • यह नहर भारत के सबसे बड़े नहर तंत्रों में से एक है।
  • वर्ष 1948 में कँवर सेन द्वारा संकल्पित यह नहर परियोजना 31 मार्च 1958 को प्रारंभ हुई।
  • इंदिरा गाँधी नहर तंत्र की कुल नियोजित लंबाई 9060 कि. मी. है।
    • नहर का निर्माण कार्य निम्न दो चरणों में पूरा किया जाता है-
      • चरण- I का कमान क्षेत्र गंगापुर, हनुमानगढ़ और बीकानेर जिले के ऊबड़-खाबड़ भूतक क्षेत्र में पड़ता है। इसका कृषि योग्य कमान क्षेत्र 5.53 लाख हेक्टेयर है।
      • चरण- II का कमान क्षेत्र बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, नागौर एवं चुरू जिलों में लगभग 14.10 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि पर फैला हुआ है।
      • चरण- I के कमान क्षेत्र में सिंचाई की शुरुआत 1960 के दशक में और चरण- II के कमान क्षेत्र में सिंचाई की शुरुआत 1980 के दशक के मध्य में हुई थी।
      • प्रदेश में नहरी सिंचाई की सुविधा से कृषि अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष रूप से रूपांतरित हो गई।
      • सघन सिंचाई के शुरू होने से कृषि और पशुधन उत्पादकता में अत्यधिक वृद्धि हुई।

सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले उपाए

  • बहुत से विद्वानों द्वारा इंदिरा गाँधी नहर परियोजना की पारिस्थितिकीय पोषणता पर कई प्रश्न उठाए गए हैं।
  • पिछले चार दशक में भौतिक पर्यावरण का निम्नीकरण हुआ है।
  • कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मुख्य रूप से पारिस्थितिकीय सतत पोषणता पर बल देना होगा।
  • निम्नलिखित सात उपायों में से पाँच उपाए पारिस्थितिकीय संतुलन को पुनःस्थापित करने पर बल देते हैं-
    • पहली महत्वपूर्ण आवश्यकता है जल प्रबंधन नीति को कठोरता से क्रियान्वयन करना। इसके अंतर्गत चरण- I में कमान क्षेत्र में फसल रक्षण सिंचाई और चरण- II में फसल उगाने तथा चरागाह विकास के लिए विस्तारित सिंचाई का प्रावधान है।
    • जल सघन फसलों से अधिक बागवानी कृषि के अंगतर्गत खट्टे फलों को उगाने हेतु प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
    • बहते जल की क्षति को रोने के लिए नालों को पक्का करना, भूमि विकास, समतलन और वारबंदी को प्रभावी ढंग से क्रियान्वयन करना चाहिए।
    • जलक्रांत और लवण से प्रभावित भूमि का पुनरुद्धार किया जाना चाहिए।
    • वनीकरण, वृक्षों की रक्षण मेखला के निर्माण और चरागाह विकास को महत्व देना।
    • निर्धन आर्थिक स्थिति वाले भूआवंटियों को पर्याप्त मात्रा में वित्तीय और संस्थागत सहायता उपलब्ध कराकर प्रदेश में सामाजिक सतत पोषणीयता के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।
    • सिर्फ कृषि और पशुपालन के विकास से आर्थिक सतत पोषणीयता के विकास के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है, इसके लिए अन्य क्षेत्रों के विकास पर भी ध्यान देना होगा। ऐसा करने से अर्थव्यवस्था का विविधीकरण होगा साथ ही गाँवों, कृषि सेवा केंद्रों और विपणन केंद्रों के बीच प्रकार्यात्मक संबंध स्थापित होगा।
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