इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-2 यानी स्वतंत्र भारत में राजनीति के अध्याय-2 एक दल के प्रभुत्व का दौर के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 2 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 12 Political Science Book-2 Chapter-2 Notes In Hindi
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अध्याय- 2 “एक दल के प्रभुत्व का दौर”
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | बारहवीं (12वीं) |
विषय | राजनीति विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | स्वतंत्र भारत में राजनीति |
अध्याय नंबर | दो (2) |
अध्याय का नाम | एक दल के प्रभत्व का दौर |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 12वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- स्वतंत्र भारत में राजनीति
अध्याय-2 (एक दल के प्रभुत्व का दौर)
लोकतंत्र स्थापित करने की चुनौती
- स्वतंत्र भारत के सामने लोकतंत्र की स्थापना करना एवं उसके लिए एक उचित पृष्ठभूमि तैयार करना एक अलग ही चुनौती थी, स्वतंत्रता के बाद से ही राजनीतिक दलों में प्रतिस्पर्धा की शुरुआत हुई।
- स्वतंत्रता के बाद से ही हमारे नेताओं ने लोकतंत्र की स्थापना का मन बना लिया था, हर देश और समाज में शासन के स्वचालन के लिए नियम बनाना अनिवार्य है, जिसके लिए अनेक विकल्प उपलब्ध भी होते हैं।
- समाज में मौजूद समूहों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना भी सरकार की ही जिम्मेदारी होती है। इसके लिए सरकार को ही ऐसा समाधान निकालना था जिससे समस्याओं का निदान हो सके।
- स्वतंत्रता के पश्चात भारत में लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली को अपनाया गया, जिसका उद्देश्य जनहित के लिए शासन और जनता का शासन रहा।
चुनाव आयोग
- 26, नवंबर 1949 को भारत का संविधान बनकर तैयार हुआ, जिसपर 14 जनवरी 1950 को हस्ताक्षर किए गए और 26 जनवरी 1950 को इसे अमल में लाया गया।
- इस समय तक देश का प्रशासन अंतरिम सरकार चल रही थी और संविधान के लागू होने के बाद यह आवश्यक हो गया था कि देश का शासन अब लोकतान्त्रिक सरकार के हाथों में ही सोंप दिया जाना चाहिए।
- भारत में चुनाव आयोग का गठन जनवरी 1950 में हुआ, संविधान में वर्णनानुसार ही सरकार के चयन के लिए इस आयोग का गठन किया गया। सुकुमार सेन को इसका पहला चुनाव आयुक्त घोषित किया गया था।
- चुनाव आयोग का महत्वपूर्ण कार्य देश भर में शांतिपूर्ण और निष्पक्ष चुनाव का आयोजन करना है।
चुनाव आयोग के समक्ष मौजूद कठिनाइयाँ
- यह उम्मीद की जा रही थी चुनाव आयोग के गठन के बाद ही देश का पहला आम चुनाव करा लिया जाएगा, परंतु देश की विविधता और बड़ी आबादी के चलते ऐसा संभव न हो सका।
- चुनाव कराने के लिए पहला कार्य- चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन और मतदाता सूची तैयार करना था। जिसके लिए चुनाव आयोग को खासा परेशानियों का सामना करना पड़ा।
- मतदाता सूची के प्रथम प्रकाशन पर यह पाया गया कि तकरीबन 40 लाख महिलाओं के नाम इस लिस्ट में शामिल ही नहीं थे, जो नाम इसमें शामिल थे उसमें काफी गलतियाँ पाई गईं। चुनाव आयोग ने इस लिस्ट को अस्वीकार कर दिया और इसमें सुधार किया गया।
- उस समय में 17 करोड़ मतदाता थे, जिनमें 15% ही शिक्षिक मतदाता थे। जिसके चलते चुनाव आयोग को करीब 3 लाख से अधिक कर्मचारियों को शिक्षित करना पड़ा।
- इससे पहले धनी देशों में भी जहां पर पहले से लोकतंत्र था जैसे यूरोप, वहां भी महिलाओं को मताधिकार नहीं था, जो भारत जैसे बड़े राज्य के लिए एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य था।
पहले तीन चुनावों में कांग्रेस का प्रभुत्व
- पहले आम चुनावों के बाद नतीजों से किसी को भी शायद ही अचंभा होता, क्योंकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ही प्रभुत्व उस समय देखा जा रहा था, इस पार्टी को स्वाधीनता संग्राम की विरासत हासिल थी।
- इस पार्टी में स्वयं जवाहरलाल नेहरू थे जो राजनीति के करिश्माई नेता थे। कांग्रेस का उद्गम 1885 में एक नवशिक्षित, कामकाजी वर्ग के रूप में हुआ था।
- एक राजनीतिक पार्टी के रूप में इसका उद्गम 20वीं शताब्दी के बाद हुआ। कांग्रेस का विभिन्न विचारधाराओं के गुटों को मिलाकर बनी एक पार्टी थी, जो कि आगे चलकर एक मध्यवर्गी समूह के रूप में उभरी।
- विपक्षी पार्टियां इस समय कांग्रेस की रणनीतियों एवं फैसलों को आंशिक रूप से ही प्रभावित कर सकीं। कांग्रेस में जो गुट बने हुए थे वे शासन में भीतरी सुधारों पर कार्य कर रहे थे, जिससे राजनीतिक होड़ का बाहर से कोई ताल्लुक था ही नहीं, यह होड़ कांग्रेस के भीतर ही थी, यही कारण था कि इस कालखंड को ‘कांग्रेस प्रणाली’ भी कहा गया था।
कांग्रेसी प्रभुत्व की प्रकृति
- आम चुनावों के नतीजों की घोषणा के बाद कांग्रेस का प्रभुत्व साफ तौर पर दिखाई दिया, देश के पहले आम चुनावों के बाद कांग्रेस ने भारी जीत हासिल की। कांग्रेस ने 489 सीटों में से 364 सीटें हासिल की, इस सूची में कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे दर्जे पर थी।
- 1952 के चुनावों में कांग्रेस को कुल वोटों का 45% मिला, लेकिन 74% सीटें मिली थीं, वहीं कम्युनिस्ट पार्टी को 10% वोट मिले लेकिन ये 3% सीटें भी नहीं जीत पाई।
- केवल भारत में एक पार्टी का प्रभुत्व देखने को नहीं मिला बल्कि चीन, क्यूबा, सीरिया जैसे देशों में भी एक पार्टी का प्रभुत्व रहा। काँग्रेस पार्टी का प्रभुत्व अन्य देशों की एक पार्टी प्रभुत्व से भिन्न रहा, यह लोकतान्त्रिक स्थिति होने के बाद का प्रभुत्व था, जिसे जनता बार-बार चुनकर सत्ता में खड़ा कर रही थी।
- कांग्रेस की इस अपार सफलता की जड़ें स्वाधीनता संग्राम के समय से ही मजबूत होती जा रही थीं, आजादी के समय से ही पार्टी ने अपनी जड़े चारों ओर फैला ली थीं।
- ध्यातव्य यह था कि कांग्रेस आजादी के आंदोलनों की अगुआई कर रही थी और उसकी प्रकृति सबको एकजुट कर मिलाकर चलने की थी।
- कांग्रेस का निर्वाचन प्रणाली से पहले से परिचित होने के कारण इसका संगठन पूरे देश में फैल चुका था। जहां अन्य दल अभी अपने चुनावी रणनीति पर काम कर रहे होते थे, वहीं कांग्रेस अपना चुनाव प्रचार शुरू कर चुकी होती थी।
कांग्रेस: सामाजिक और विचारधारात्मक गठबंधन
- कांग्रेस ने समय के साथ साथ एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप ले लिया था। शुरुआत में इस पार्टी में- अंग्रेजीदां, अगडी जाति, उचले मध्यवर्ग और शहरी अभिजनों का बोलबाला रहा था, इसके बाद आंदोलनों से जुड़ने के बाद इसका सामाजिक आधार बढ़ा जिससे- काँग्रेस में किसान, उद्योगपति, शहरों के निवासी, गावों के निवासी, मध्य, निम्न, उच्च सभी जाति के लोगों को स्थान मिला।
- इससे यह एक सुसंगठित पार्टी के रूप में सामने आई, इससे कांग्रेस को काफी लाभ भी मिला। भारतीय विविधता इस एक पार्टी के अंदर दिखाई देने लगी थी।
- कांग्रेस ने विभिन्न विचारों को एक मंच प्रदान किया, इसमें रेडिकल, क्रांतिकारी, नरमदल, गरमदल, दक्षिण और वामपंथी सभी तरह के विचार समाहित थे, जिन्होंने इसे पूर्ण रूप से समर्थन दिया। आजादी के पहले से ही इन अनेकों संगठनों को पार्टी में रहने की इजाजत थी।
- उस समय में कांग्रेस के बाहर के गुटों में भी प्रतिस्पर्धा बनी होने से कई मुख्य नेता कांग्रेस में शामिल हो चुके थे, इस प्रणाली से कांग्रेस के अंदर संतुलन कायम रहता था, इसका ही सीधा लाभ कांग्रेस को चुनावों में मिलता।
गुटों में तालमेल और सहनशीलता
- गठबंधन का ही स्वभाव कांग्रेस को मजबूती प्रदान कर रहा था, सुलह समझोते की राह पर चलना और सार्व समावेशी होना ही गठबंधन की प्रमुख विशेषता होती है।
- गठबंधनी पार्टी का स्वभाव उसे अंदरूनी मतभेदों को सहन करने के काबिल बना देता है। आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस ने इन बातों पर अमल किया। पार्टी में किसी कारण भी मनमुटाव के चलते भी कार्यकर्ता पार्टी को छोड़कर नहीं जाते थे, वे पार्टी में मौजूद रहकर किसी दूसरे समूह से लड़ना बेहतर समझते थे।
- कांग्रेस अपने गुटों के प्रति संवेदनशील थी, इसी स्वभाव से विभिन्न गुटों को बढ़ावा भी मिला, इन गुटों में बने रहने का कारण था- व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस की अंदरूनी गुटबाजी को और ताकत मिलती थी।
- इन हितों और विभिन्न विचारधाराओं को देखते हुए नेता कांग्रेस के अंदर ही बने रहना चाहते थे, बाहर जाकर नई पार्टी बनाने के पक्षे में इनका कोई मत नहीं था।
पहले आम चुनाव
- भारत के लिए पहला मौका था जब स्वतंत्रता के बाद यहाँ पहली बार आम चुनाव होने थे। ये अक्टूबर 1951 से लेकर फरवरी 1952 तक चले, कुछ राज्यों में ये ज्यादातर 1952 में ही हुए थे इसलिए इन्हें 1952 का ही पहला आम चुनाव माना गया।
- देश के प्रथम चुनाव सार्वभोम व्यस्क मताधिकार के सिद्धांत के बूते हुए थे, कुल 17 करोड़ मतदाताओं ने लोकसभा के 489 सांसदों और राज्य विधानसभा के लगभग 3200 उम्मीदवारों को चुना था।
- इस पूरी चुनाव प्रक्रिया में कुल 6 महीनों का समय लगा। चुनावों के नतीजों के बाद स्वयं हारने वाले दल ने भी चुनावों को निष्पक्ष करार दिया था।
- ये चुनाव विश्व इतिहास के सबसे बड़े चुनाव थे, इसके बाद यह तो साफ हो गया था कि लोकतान्त्रिक चुनावों के लिए गरीबी और अशिक्षा राह का पत्थर नहीं बन सकती।
विपक्षी पार्टियों का उद्भव
- स्वतंत्रता के बाद के चुनावों में कांग्रेस को स्वाधीनता आंदोलन में भूमिका निभाने का सकारात्मक परिणाम मिला, लेकिन अपने भीतर गुटों को समाने की क्षमता जैसे-जैसे इस पार्टी में कम होने लगी तभी से विपक्षी पार्टियों ने अपने पंख फैलाना शुरू कर दिया।
- इनमें से बहुत सी पार्टियां 1952 के चुनावों से कई पहले बन चुकी थीं, कुछ पार्टियां 60 और 70 के दशक में सामने आईं। हालांकि इन दलों को चुनावों में बेहद कम प्रतिनिधित्व मिला, लेकिन इन्होंने लोकतान्त्रिक चरित्र को बनाए रखने में अपनी अहम भूमिका निभाई।
- इन दलों ने राजनीति में विकल्प की संभावना को बनाया, शुरुआती सालों में विपक्ष और काँग्रेस के नेताओं के बीच सम्मान देखा जा सकता था, सोशलिस्ट पार्टी के नेता को जवाहरलाल नेहरू सम्मान की दृष्टि से देखते थे। यह सम्मान का भाव आगे चलकर राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के कारण कहीं पीछे छूटता चल गया।
- पहले दौर के रूप में भारत की लोकतांत्रिक राजनीति अनूठी रही, समावेशी राष्ट्रीय आंदोलन, जिसकी अगुआई कांग्रेस ने की। कांग्रेस के इसी स्वभाव के रहते, कई वर्गों, जातियों के लोग कांग्रेस की ओर आकर्षित थे।
- जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा कांग्रेस की अपने भीतर समाहित करने की प्रवृति में कमी आने लगी, जिसके परिणाम-स्वरूप दूसरे दलों का वर्चस्व भी दिखने लगा और एक नए विपक्ष का जन्म हुआ।
प्रमुख विपक्षी दल
- कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया- बोलशेविक क्रांति से उभरे कई साम्यवादी गुट 1920 के दशक में भारत में उभरे, इनका मुख्य उद्देश्य समस्याओं का निदान और साम्यवाद की नीति को अपनाना था। इन दलों ने 1935 तक कांग्रेस के अंदर रहकर ही कार्य किया। दिसम्बर 1941 में काँग्रेस से अलग हुए, दूसरे विश्वयुद्ध में इन्होंने जर्मनी के खिलाफ जाकर ब्रिटेन का समर्थन किया। इनका यह भी विचार था कि 1947 में हुए सत्ता परिवर्तन को वे स्वतंत्रता का रूप नहीं दे सकते।
- कांग्रेस के अन्य विपक्षियों से तुलना करें तो कम्युनिस्टों को पहले आम चुनावों में सबसे अधिक सीटें (16सीटें) मिलीं, इसको बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में अधिक समर्थन मिला।
- भारतीय जनसंघ– इस पार्टी का गठन 1951 में हुआ, जिसके संस्थापक रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी। इसका मुख्य बल एक राष्ट्र, एक देश, एक संस्कृति था। इसके सदस्यों का यह विचार था कि देश की संस्कृति, परंपरा के माध्यम से आधुनिक और प्रगतिशील बन सकती है। भारतीय जनसंघ ने भारत-पाकिस्तान के मध्य सीमाओं को खत्म करने की बात की और हिन्दी को राजभाषा बनाने पर भी बल दिया।
- 1964 में चीन के बाद भारत को भी परमाणु परीक्षण करने की बात को लेकर बल दिया गया। धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली रियायतों का भी जनसंघ ने कड़ा विरोध किया।
- इस विपक्षी पार्टी को पहले आम चुनाव में 3 और दूसरे् आम चुनाव में 4 सीटें मिली थी, इसे केवल हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही समर्थन प्राप्त हुआ है।
- सोशलिस्ट पार्टी– 1934 में इस पार्टी का उद्भव कांग्रेस के अंदर ही एक युवा नेता के समूह ने किया था, जिसका उद्देश्य कांग्रेस को परिवर्तनशील बनाने का था।
- यह पार्टी 1948 में कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी के नाम से जानी गई। साम्यवादी और कांग्रेसी पार्टी से अलग यह समाजवादी विचारधारा की पार्टी है।
- इसका विभाजन 1955 में कई गुटों में हो गया- प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी आदि। जयप्रकाश नारायण, एसएम जोशी, राम मनोहर लोहिया इसके प्रमुख नेता रहे हैं।
वर्ष | घटना |
26 नवंबर, 1949 | भारतीय संविधान सभा का अंगीकरण |
26 जनवरी, 1950 | भारतीय संविधान को अपना लिया गया |
जनवरी, 1950 | चुनाव आयोग का गठन |
1952 | भारत में पहले आम चुनाव |
1990 | चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का पहली बार प्रयोग |
2004 | पूरे देश में EVM का प्रयोग |
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