इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-2 यानी स्वतंत्र भारत में राजनीति के अध्याय- 4 भारत के विदेश संबंध के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 4 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 12 Political Science Book-2 Chapter-4 Notes In Hindi
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अध्याय- 4 “भारत के विदेश संबंध”
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | बारहवीं (12वीं) |
विषय | राजनीति विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | स्वतंत्र भारत में राजनीति |
अध्याय नंबर | चार (4) |
अध्याय का नाम | भारत के विदेश संबंध |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 12वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- स्वतंत्र भारत में राजनीति
अध्याय-4 (भारत के विदेश संबंध)
अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ
- भारत के सामने स्वतंत्र होने के बाद कई बड़ी चुनौतीपूर्ण समस्याएं थीं, देश के पुनर्निर्माण का सवाल था। स्वतंत्रता के बाद भारत को कई युद्धों का भी सामना करना पड़ा, जिसने भारत की विदेश नीति को गढ़ने में सहायता प्रदान की।
- भारत का स्वतंत्र राज्य के रूप में जन्म विश्वयुद्ध के समय में हुआ। इस तरह से भारत ने अपनी विदेश नीति में अन्य राज्यों के सम्मान, संप्रभुता और अंतर्राष्ट्रीय शांति को ही महत्वता दी।
- किसी भी देश की विदेशी नीति पर घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय माहोल का असर पड़ता है, विकासशील देशों के पास खुद को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित करने के लिए भी कुछ संसाधनों की कमी रहती है, ऐसे में ये देश अपनी विदेशी नीति में भी बेहद सामान्य लक्ष्यों को जोड़ते है, जो कि ज्यादातर विकसित देशों से ही प्रभावित होते हैं।
- विकासशील देश अपनी आर्थिक और सुरक्षा जरूरतों के चलते विकसित देशों पर आश्रित होने लगती हैं, यह निर्भरता भी उनकी विदेश नीति को प्रभावित करती है।
- दूसरे विश्व युद्ध के बाद आजाद हुए देशों ने आर्थिक सहायता के लिए अपनी विदेश नीति को इन विकसित देशों के अनुसार ही बनाया, इन्हीं दो देशों- संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और सोवियत संघ से प्रभावित होकर ही विश्व का विभाजन दो टुकड़ों में हुआ।
गुटनिरपेक्षता की नीति
- भारत की स्वतंत्रता के समय दुनियाभर में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्ध चल रहे थे, भारत भी इसी संघर्ष का हिस्सा था। ऐसे आंदोलनों का असर अफ्रीका और एशिया के मुक्ति आन्दोलनों पर भी हुआ।
- भारत की आजादी से पहले भी हमारे कई राष्ट्रवादी नेता, अन्य राज्यों में मुक्ति आंदोलन चलाने वाले नेताओं के संपर्क में थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नेताजी सुभाष चंद्र बोस ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ का गठन कर रहे थे। इससे यह साफ था कि भारत के संबंध विदेश के भारतीयों से बनने लगे हैं।
- भारत का संबंध जिन उदात्त विचारों से था, इसका असर भारत की विदेशी नीति पर भी देखने को मिला। जिस समय भारत आजाद हुआ उस समय विश्व शीतयुद्ध की मार झेल रहा था और दो खेमों में बंटा हुआ था।
- एक खेमा संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और दूसरा सोवियत संघ की तरफ बना हुआ था, इनके मध्य सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक टकराव थे। यही वह समय था जब अनौपनिवेशीकरण की प्रक्रिया अपने चरम पर थी। इसी संदर्भ में भारत को अपने राष्ट्रीय हितों को साधना था।
नेहरू की भूमिका
- जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री के साथ-साथ, विदेश मंत्री भी थे, देश का एजेन्डा तय करने में नेहरू ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनकी विदेश नीति के ये तीन बड़े उद्देश्य थे- संप्रभुता को बचाना, अखंडता को बनाए रखना और देश का तीव्र आर्थिक विकास।
- भारत अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति गुटनिरपेक्षता में शामिल होकर करना चाहता था, कई बड़ी पार्टियों के नेता समूह चाहते थे कि भारत अमेरिका के खेमे में शामिल हो जाए, यह विचार डॉ. भीमराव अंबेडकर का भी था। कई साम्यवाद की विरोधी पार्टियां भी यही चाहती थीं कि भारत अपनी विदेश नीति अमेरिका के साथ बनाए।
दो खेमों से दूरी
- भारत ने आजादी के बाद से ही विश्व शांति को अपना सपना माना है, भारत ने अपनी विदेशी नीति में गुटनिरपेक्षता को शामिल किया अर्थात किसी भी गुट में शामिल न होने की नीति। भारत ने शीतयुद्ध में हुए तनावों को कम करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के शांति अभ्यासों में अपनी सेना को भी भेजा।
- अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र की अगुआई वाले सैन्य संगठनों से भारत खुद को दूर रखना चाहता था। शीतयुद्ध में अमेरिका ने उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NAT0) और सोवियत संघ ने वारसा पैक्ट नाम का एक संधि संगठन बनाया।
- भारत अपनी गुटनिरपेक्षता की नीति के चलते दोनों के गुटों में शामिल नहीं हुआ, स्वेज नहर के मामले में वर्ष 1956 में ब्रिटेन ने मिस्र पर आक्रमण किया, तो भारत ने इसका विश्वव्यापी विरोध किया। लेकिन जब सोवियत संघ ने हंगरी पर हमला किया तो भारत ने इसका सार्वजनिक रूप से विरोध नहीं किया।
- भारत अंतर्राष्ट्रीय मामले में स्वतंत्र मत बनाए हुए था, दोनों खेमों के देशों ने भारत को अनुदान और सहायता भी दी।
- 1950 में पाकिस्तान का अमेरिकी खेमे में शामिल होना भारत को बिल्कुल पसंद नहीं आया, इससे अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते खराब होने लगे, भारत की सोवियत संघ के साथ बढ़ती नजदीकियाँ अमेरिका को पसंद नहीं आईं।
- भारत द्वारा अपनाई गई नियोजित विकास की नीति में आयात को कम करने पर बल दिया गया, संसाधन आधार को कम करने पर बल था, जिसके बाद निर्यात के मामले में प्रगति सीमित हो गई, जिससे भारत का विश्व के साथ लेनदेन अब बहुत कम हो गयाा था।
एफ्रो-एशिया एकता
- भारत के आकार और शक्ति संभावना की ओर देखकर नेहरू ने एशिया और अफ्रीका के नए स्वतंत्र राष्ट्रों के साथ संपर्क बनाए। 1940 से 50 के दशक में नेहरू एशियाई एकता का समर्थन करते रहे, इसके चलते 1947 में नेहरू ने मार्च में एशियन रिलेशन कॉन्फ्रेंस भी की।
- भारत इंडोनेशिया को डच औपनिवेशिक शासन से आजाद कराना चाहता था, भारत ने 1949 में इंडोनेशिया के स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन करते हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी किया। भारत ने औपनिवेशीकरण का हमेशा ही विरोध किया है।
- इंडोनेशिया के बांड़ुंग में 1955 में एक एफ्रो-एशिया सम्मेलन भी हुआ, जिसे बांड़ुंग सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। इस सम्मेलन ने एशिया और अफ्रीका के नए स्वतंत्र देशों के बीच संबंधों को और गहरा बना दिया।
- बांड़ुंग सम्मेलन से गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव पड़ी, बेलग्रेड में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पहला सम्मेलन 1961 में हुआ, इसमें नेहरू की भूमिका बेहद अहम रही है।
भारत की विदेश नीति के मूल सिद्धांत
- राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने, अखंडता को बनाए रखने और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने जैसी विदेश नीति के अंतर्गत भारत के कुछ मूलभूत सिद्धांत भी हैं जिसमें- उपनिवेशवाद, प्रजातीय भेदभाव और साम्राज्यवाद का विरोध, वैश्विक शांति, संयुक्त राष्ट्र को लाभकारी संस्था के रूप में बढ़ावा देना, नीति निर्माण में स्वतंत्रता को बनाए रखना।
- पंचशील समझोता– भारत की विदेश नीति को गढ़ने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्व और पड़ोस के सभी देशों के साथ संबंधों को मैत्रीपूर्ण रखना चाहते थे। इसके लिए 1954 में भारत द्वारा चीन के प्रधानमंत्री के साथ एक समझोते पंचशील समझोते पर हस्ताक्षर किए, इसके अंतर्गत 5 सिद्धांत पर बात की गई- देश एक दूसरे देश की संप्रभुता का सम्मान करेंगे, एक दूसरे पर आक्रमण न करें, शांतिपूर्ण अस्तित्व का निर्माण, एक दूसरे के निजी मामलों में हस्तक्षेप न हो, एक दूसरे के हितों को बढ़ावा देने का प्रयास।
चीन के साथ शांति और संघर्ष
- भारत ने पाकिस्तान के बजाय स्वतंत्रता के बाद चीन के साथ अपने रिश्तों की शुरुआत की, 1949 में हुई चीन की क्रांति के बाद केवल भारत ने ही चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता दी। पश्चिमी देशों से स्वतंत्रता के बाद भारत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस सरकार को सहायता दी।
- सरदार वल्लभभाई पटेल को आशंका थी कि चीन भारत पर हमला कर सकता है, लेकिन नेहरू ने इस आशंका से इंकार कर दिया, इसके बाद 1954 में नेहरू ने चीन के प्रमुख के साथ पंचशील समझोते पर हस्ताक्षर भी किए।
- चीन का आक्रमण- 1962 भारत और चीन की सीमा पर बस्तियां बनाए जाने और 1950 में तिब्बत पर कब्जा करने के कारण भारत के कई मुद्दों पर चीन के साथ विवाद बने हुए थे। भारत ने शुरुआत में तिब्बत को लेकर विरोध नहीं किया, लेकिन चीन अब यहाँ की संस्कृति को हानि पहुंचा रहा था। इसके बाद तिब्बत के धर्म गुरु दलाई लामा ने जब भारत से शरण मांगी तो 1959 में भारत ने शरण दी।
- चीन भारत पर आरोप लगाता कि भारत उसके विरुद्ध कुछ गतिविधियां कर रहा है, चीन ने अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख वाले भाग से आक्साइ चीन पर अपना आधिकार कर लिया। उस समय अरुणाचल प्रदेश नेफ़ा के नाम से जाना जाता था, चीन ने 1957-59 के समय आक्साइ चीन पर कब्जा कर यहाँ अवैध सड़क का निर्माण करने लगा।
- हलमे के वक्त भारत की स्थिति– 1962 में चीन ने भारत के साथ के दोनों विवादित क्षेत्रों पर तेजी से हमला किया, पहले हमले के एक हफ्ते के अंदर ही चीन ने अरुणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों पर कब्जा कर लिया। अगला हमला नवंबर महीने में शुरू हुआ, इसमें चीन ने असम के मैदानी हिस्सों तक प्रवेश पा लिया और एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा की।
- इससे भारत की छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी खराब हुई, भारत को अमेरिका और ब्रिटेन दोनों से सैन्य मदद की गुहार लगानी पड़ी, कुछ सैन्य प्रमुख या तो अवकाश पर चले गए या उन्होंने अपना पद त्याग दिया। उस समय के रक्षा मंत्री वी.के. कृष्णमेनन को भी अपना त्याग पत्र देना पड़ा।
- पहली बार काँग्रेस के खिलाफ अविश्वास पत्र दाखिल हुआ, इसके बाद कई उपचुनावों में इसे असफलता ही मिली। नेहरू की छवि भी धूमिल हुई।
चीन के आक्रमण का प्रभाव
- इस युद्ध से चीन और सोवियत संघ के बीच मतभेद बढ़ने लगे, भारतीय राजनीति में भारी उठा-पठक का माहोल शुरू हो गया, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हो गया।
- यह पार्टी 1964 में टूट गई। इस पार्टी में जो नेता चीन के पक्ष में थे उन्होंने मार्क्सवादी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनाई, इसी क्रम में जो नेता चीन के पक्ष में थे उनकी गिरफ्तारियाँ भी हुईं।
- इसी क्रम में अब भारत के पूर्वोत्तर के क्षेत्रों की स्थिति भी डगमगाने लगी, ये इलाके बेहद पिछड़े हुए थे जिसमें अखंडता को बनाए रखना एक चुनौती थी। नागालैंड को अब प्रांत का दर्जा मिला, मणिपुर और मिजोरम को केंद्र-शासित प्रदेश बनाया गया साथ ही इसे विधानसभा के निर्वाचन का अधिकार भी दिया गया।
भारत-चीन के बीच संबंध
- दोनों राष्ट्रों के औपनिवेशवाद से स्वतंत्र होने के बाद विश्व के अन्य देशों ने विचार व्यक्त किया कि भारत-चीन मिलकर एशियाई देशों और विकासशील देशों के विकास में सहयोग करेंगे, जिसके लिए हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा भी काफी लोकप्रिय रहा है।
- 1962 के युद्ध के बाद इन दोनों देशों के संबंधों पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिसके चलते 1976 तक दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध लगभग समाप्त हो गए। इसके बाद चीन ने भारत के साथ संबंधों को सही करने के लिए 1981 से विवादास्पद मुद्दों को त्याग कर शांति वार्ता शुरू भी की।
- शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अब चीन ने भारत के साथ आर्थिक संबंधों की भी शुरुआत की। अब दोनों ही देश एशिया की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहते हैं।
- दोनों देशों के संबंधों को मजबूती 1988 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के चीन दौरे से मिली। इसके बाद से इन देशों के सीमा विवादों में शांति स्थापित करने के प्रयास लगातार किए जा रहे हैं।
- सुधार– 1999 से दोनों देशों के बीच व्यापार लगभग 30% की दर से बढ़ा है, इन सुधारों से दोनों के रिश्तों को नई दिशा मिली है। 1992 में जो व्यापारिक लाभ 33 करोड़ 80 लाख था 2017 तक आकर वह बढ़कर 84 अरब डॉलर हो गया।
- वर्तमान में भारत-चीन संबंधों में भारत के संयुक्त राष्ट्र में आतंकवादी विरोधी प्रस्ताव के कारण अब कमी आई है, क्योंकि भारत का मानना है कि चीन पाकिस्तान को समर्थन प्रदान करता है और पुराने सीमा-विवाद भी अब नए होते दिखाई दे रहे हैं।
पाकिस्तान के साथ युद्ध और शांति
- भारत-पाकिस्तान के बीच 1947 में ही स्वतंत्रता के ठीक बाद से ही कश्मीर को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ था, जो आज तक जारी है। अब ये मसला संयुक्त राष्ट्र संघ के पास सुरक्षित है। दोनों देशों ने इतने संघर्षों के बाद भी सहयोग-संबंध कायम रखे हुए हैं।
- विश्वबैंक की मध्यस्थता के बाद 1960 में सिंधु-नदी जल संधि पर हस्ताक्षर हुए। 1965 से इन देशों में तेज सैन्य संघर्ष की शुरुआत हुई। पाकिस्तान ने गुजरात के कच्छ में सैन्य हमला किया, जिसका जवाब देते हुए भारतीय सेना लाहोर तक पहुंच गई। इस युद्ध में संयुक्त राष्ट्र को हस्तक्षेप करना पड़ा। 1966 में दोनों देशों के बीच ताशकंद समझौता हुआ।
- बांग्लादेश युद्ध-1971– पाकिस्तान दो भागों में विभाजित था पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान, पूर्वी-पाकिस्तान (बांग्लादेश) में 1970 पहले आम चुनावों के बाद पश्चिमी पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो वहीं पूर्वी पाकिस्तान में आवमी लीग के नेता मुजीबुर्रहमान विजयी हुए, पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली लोगों पर जुर्म होने लगे।
- 1971 में भारत में लगभग 80 लाख शरणार्थी बांग्लादेश से भारत भाग आए। भारत ने बांग्लादेश के ‘मुक्ति संग्राम’ को नैतिक और भोतिक सहायता प्रदान की।
- लंबे समय तक सैन्य तनातनी के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच दिसंबर में युद्ध छिड़ गया। मात्र दस दिनों के अंदर ही भारत ने ढाका को तीन स्थानों से घेर लिया, इसके बाद पाकिस्तान को आत्मसमर्पण करना पड़ा और बांग्लादेश नाम के नए राष्ट्र का निर्माण हुआ।
- कारगिल युद्ध– 1999 में खुद को मुजाहिद्दीन कहने वाले लोगों ने भारत की नियंत्रण सीमा- द्रास, माशकोह, काकसर और बतालिक पर कब्जा कर लिया। इस कब्जे में पाकिस्तान शामिल था, इसी को लेकर दोनों देशों में संघर्ष छिड़ा। यह लड़ाई मई-जून में हुई, 26 जुलाई तक भारत ने वापस अपने अधिकतर ठिकानों पर अधिकार कर लिया था।
- दोनों ही देश अपने परमाणु शक्ति का प्रदर्शन कर चुके थे इसलिए सम्पूर्ण विश्व का ध्यान इस युद्ध ने खींचा। पाकिस्तान में इस युद्ध से काफी विवाद हुआ, कहा गया कि प्रधानमंत्री को इस मामले में कोई जानकारी नहीं दी गई थी।
- इस युद्ध के तुरंत बाद ही पाकिस्तान की हुकूमत में जनरल परवेज मुशर्रफ ने तख्तापलट कर दिया।
भारत की परमाणु नीति
- मई 1974 में भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया। नेहरू ने देश के विकास के लिए आधुनिकता और प्रद्योगिकी पर बल दिया, जिसके कारण उनके औद्योगीकरण की नीति का मुख्य घटक परमाणु परीक्षण ही था।
- 1940 के दशक के अंतिम वर्षों में इसकी शुरुआत होमी जहांगीर भाभा के निर्देशन में हो चुकी थी। भारत अणुशक्ति का प्रयोग केवल शांति उद्देश्यों के लिए करना चाहता है। भारत ने निशस्त्रीकरण के लिए महाशक्तियों पर जोर भी दिया। अणुशक्ति सम्पन्न बिरादरी ने अन्य देशों के सामने 1968 में परमाणु अप्रसार संधि को रख दिया, जिसका भारत खुले रूप में विरोध करता है एवं भेदभावपूर्ण बताता है।
- जब भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो उसे शांतिपूर्ण बताया गया और यह दावा किया गया की केवल शांति बहाली के लिए ही अणुशक्ति का प्रयोग होगा।
- जिस समय भारत ने परमाणु परिक्षण किया तब देश की आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी, वैश्विक स्तर पर तेल की कमी और तेल के दामों में वृद्धि थी, इसके पीछे का कारण अरब-इजराइल युद्ध रहा।
भारत का परमाणु कार्यक्रम
- भारत ने परमाणु अप्रसार के लक्ष्यों से जुड़ी संधियों का विरोध किया, भारत के अनुसार ये संधिया उन देशों के लिए हैं जो परमाणु शक्तिहीन राष्ट्र हैं। इस तरह परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों को इसपर एकाधिकार दिया जा रहा था, जिसके चलते भारत ने परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि पर भी हस्ताक्षर नहीं किए।
- भारत ने 1998 में परमाणु परीक्षण किया और यह संदेश दिया कि भारत भी एक परमाणु सम्पन्न राष्ट्र है, भारत के बाद पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण किया। अपनी परमाणु नीति में भारत ने पहले ही यह बात साफ कर दी थी कि भारत परमाणु हथियार रखेगा लेकिन कभी भी इसका प्रयोग पहले नहीं करेगा।
- भारत की परमाणु हथियार का ‘पहले प्रयोग नही’ करने की नीति ये साफ दर्शाती है कि भारत हमेशा से एक शांतिप्रिय देश रहा है। भारत वैश्विक स्तर के भेदभावहीन निशस्त्रीकरण के पक्ष में है, ताकि परमाणु हथियारों मुक्त विश्व को गढ़ा जा सके।
वर्ष | घटना |
1948, 1965, 1971, 1999 | भारत-पाकिस्तान युद्ध |
1962 | भारत-चीन युद्ध |
1954 | पंचशील समझौता |
1955 | बांडुंग सम्मेलन |
1961 | पहला गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सम्मेलन |
1974 | भारत का पहला परमाणु परीक्षण |
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