इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की इतिहास की पुस्तक- 2 यानी भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग- 2 के अध्याय- 6 भक्ति-सूफी परंपराएँ (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ) के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय- 6 इतिहास के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 12 History Book-2 Chapter-6 Notes In Hindi
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अध्याय- 6 “भक्ति-सूफी परंपराएँ” (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ)
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | बारहवीं (12वीं) |
विषय | इतिहास |
पाठ्यपुस्तक | भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग-2 |
अध्याय नंबर | छः (6) |
अध्याय का नाम | “भक्ति-सूफी परंपराएँ” (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ) |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 12वीं
विषय- इतिहास
पुस्तक- भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग-2
अध्याय- 6 “भक्ति-सूफी परंपराएँ” (धार्मिक विश्वासों में बदलाव और श्रद्धा ग्रंथ)
धर्म के विकास की शुरुआती भक्ति परंपरा
- इतिहासकारों ने धार्मिक विकास को समझने के लिए दो प्रकार की प्रक्रियाओं (विचारधराओं) के बारे में बताया। पहली प्रक्रिया ब्राह्मणों की विधारधार से जुड़ी थी। जिसका प्रचार-प्रसार पौराणिक सरल संस्कृत ग्रंथों, शास्त्रों, संकलन और संरक्षण पर निर्भर था।
- दूसरी प्रक्रिया के अंतर्गत स्त्रियों, शूद्रों और अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं और विश्वासों को ब्राह्मणों ने स्वीकारते हुए एक नया स्वरूप प्रदान किया।
- जिन कर्मकांडों और पद्धतियों का अनुकरण किसानों द्वारा किया जाता था, जिनका समाज के शक्तिशाली वर्ग जैसे पुरोहित एवं राजा द्वारा पालन किया जाता था। उन कर्मकांडों को रेडफील्ड द्वारा महान परंपरा कहा गया। कुछ कृषक समुदाय अन्य लोकाचारों का भी पालन करते थे जोकि महान परंपरा से बिल्कुल अलग थे, इसे रेडफील्ड द्वारा लघु परंपरा नाम दिया गया।
- आठवीं शताब्दी में ब्रह्मण धर्म को उदार बनाने के नाम पर तांत्रिक-आराधना को बढ़ावा दिया जा रहा था। तांत्रिक-आराधना के विकास में शैव और वैष्णव धर्मों का विशेष महत्व था। इस संप्रदाय के लोग क्रमशः शिव और विष्णु को अपने सबसे बड़े देवता के रूप में स्वीकार करते थे।
- पूजा-पाठ के तरीकों में क्रमिक विकास के समय भक्ति परंपरा को दो भागों सगुण और निर्गुण में बाँटा गया।
- सगुण परंपरा में ईश्व की पूजा मूर्ति के रूप में की जाति थी; जैसे कि शिव, विष्णु, देवियों और उनके अवतारों को मूर्ति के रूप में पूजना। वहीं निर्गुण परंपरा में अमूर्त, निराकार अर्थात जिसका कोई आकार न हो ऐसे ईश्वर की उपासना की जाती थी।
तमिलनाडु के अलवर एवं नयनार
- लहभग छठी शताब्दी में विष्णु के भक्त अलवार और शिव के भक्त नयनार के नेतृत्व में भक्ति आंदोलन का आरंभ हुआ।
- दोनों संप्रदाय के लोग जगह-जगह पर घूमते हुए भजन-कीर्तन करते हुए अपने-अपने संप्रदाय का प्रचार-प्रसार करते थे। इस तरह इन्होंने कुछ पवित्र जगहों और हर-भरे स्थानों को अपने देवता का निवास स्थान घोषत कर दिया। बाद में उन्हीं स्थानों पर मंदिर का निर्माण करवाकर उन्हें धार्मिक व तीर्थस्थल बना दिया। जहाँ संत कवियों ने भजन के साथ-साथ पूजा करनी भी शुरू कर दी।
जाति संबंधी दृष्टिकोण
- अलवार (विष्णु के भक्त) और नयनार (शिव के भक्त) संप्रदाय के लोगों ने ब्राह्मणों और जाति प्रथा के वर्चस्व का विरोध किया क्योंकि ये लोग अनेक समुदायों से आते थे जैसे- ब्राह्मण, किसान, शिल्पकार और कुछ अस्पृश्य जिन्हें अछूत कहा जाता था ऐसी जातियों से भी आते थे।
- अलवार संतों की रचना नलयिरादिव्यप्रबंधम् को तमिल वेद के रूप में स्वीकार किया गया है। जिसका महत्व चारों वेदों के बराबर था। इसमें ब्रह्मणीय रीतियों का विरोध किया गया है।
स्त्री संबंधी दृष्टिकोण
- स्त्रियों की उपस्थिति को विशेष स्थान दिया गया। भक्ति परंपरा में महिलाओं और पुरुषों को एक समान रूप में स्वीकार किया गया है।
- अलवार संप्रदाय में अंडाल नाम की स्त्री का विशेष प्रसिद्धि उसके द्वारा लिखे गए भक्ति गीतों के कारण था जिन्हें आज भी गाया जाता है। इसने खुद को विष्णु की प्रियसी माना और उन्हीं पर आधारित छंदों की रचना की।
- वहीं नयनार संप्रदाय की एक स्त्री करइक्काल अम्मइयार खुद को शिव का भक्त मानती थी। इसने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या का मार्ग अपनाया और शिव से जुड़ी अनेक रचनाओं का सृजन किया। करइक्काल अम्मइयार की रचनाओं ने पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती भी दी।
राज्य के साथ संबंध
- तमिल में प्रथम सहस्त्राब्दी के शुरुआत में अनेक सरदारियाँ उपस्थित थी। छठी और नवीं शताब्दी में पल्लव और पाण्ड्य शामिल थे।
- नौवीं से तेरहवीं शताब्दी में शक्तिशाली चोल शासकों ने ब्रह्मणीय एवं भक्ति परंपरा का न सिर्फ समर्थन किया बल्कि मंदिर बनवाने के लिए भूमि भी दान में दिया।
- चोल शासकों ने चिदंबरम, तंजावुर तथा गैंगैकोंडचोलपुरम के विशाल मंदिरों का निर्माण करवाया था। इन्होंने अपनी प्रभुता को बनाए रखने के लिए और संत कवियों का समर्थन पाने के लिए उनकी रचनाओं तथा विचारों को मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयास किया।
- चोल शासकों ने तमीन गीतों का एक संकलन तवरम तैयार किया जिन्हें मंदिरों में गाया जाता था।
कर्नाटक में विरशैव और लिंगायत
लगभग 12वीं शताब्दी में एक नए भक्ति संप्रदाय का उदय हुआ। जिसका नेतृत्व बासवन्ना ने किया। इनके अनुयायी वीरशैव (शिव के वीर) और लिंगायत (शिवलिंग को धारण करने वाले) कहलाए। आधुनिक युग में भी लिंगायत समुदाय का महत्वपूर्ण स्थान है।
लिंगायत संप्रदाय की मान्यताएँ-
- मृत्यु के बाद उपासक शिव में विलीन हो जाएंगे और जन्म-प्राण के बंधन से मुक्त हो जाएंगे।
- जाति-पाति से जुड़ी अवधारणाएं गलत हैं।
- ये लोग श्राद्ध संस्कार को नकारते थे और अपने मृतकों को विधिविधान के साथ मिट्टी में दफनाते थे।
- सभी ब्रह्मणीय अवधारणाओं का खंडन किया और वयस्क विवाह, विधवा पुनर्विवाह आदि को मान्यता प्रदान की।
भारत और इस्लामी धर्म
- भारत में प्रथम बार अरब व्यापारी पहली शताब्दी में समुद्र मार्ग से पश्चिम भारत के बंदरगाहों पर आए।
- सबसे पहले 711 ई. में ‘मोहम्मद-बिन-कासिम’ ने सिंध राज्य पर विजय प्राप्त किया और वहाँ इस्लाम की स्थापना की।
- उलमा इस्लाम धर्म के ज्ञानियों को कहा जाता था, जो मुसलमान शासकों के मार्गदर्शक के रूप में कार्य करते थे। ये मुस्लिम धर्म के कानून शरीय के ज्ञाता थे जिसका आधार कुरान शरीफ और हदीस है।
- उमहाद्वीप में इस्लाम धर्म को मानने वालों की कमी थी जिसके कारण जिम्मी यानी संरक्षित श्रेणी का उदय हुआ। ये लोग उद्घटित धर्मग्रंथ को मानते थे जैसे- यहूदी तथा ईसाई।
- उस समय के शासक अपने अपनी प्रजा को भूमि दान में देते थे और गैर-मुस्लमान तथा धार्मिक नेताओं का सम्मान भी करते थे।
इस्लाम धर्म के सिद्धांत (शिक्षाएँ)
इस्लाम धर्म को कबूल करने के लिए व्यक्ति को निम्नलिखित मुख्य पाँच सिद्धांतों का पालन करना पड़ता था-
- अल्लाह इस्लाम धर्म के लिए एकमात्र ईश्वर हैं एवं पैगंबर मुहम्मद उनके दूत।
- एक दिन में पाँच बार नमाज पढ़ना जरूरी है।
- खैरात (दान) देना चाहिए।
- रमजान के महीने में रोजा रखना चाहिए।
- हज या मक्का की धार्मिक यात्रा करनी चाहिए।
इस्लाम समुदायों के नाम
- जब इतिहासकारों ने 8वीं से 14वीं शताब्दी तक के ग्रंथों और अभिलेखों का विस्तृत अध्ययन किया, तो पाया कि कहीं भी मुसलमान शब्द का इस्तेमान नहीं किया गया है।
- उस समय इस्लामी समुदाय का वर्गीकरण उनके जन्म के आधार पर किया जाता था।
- जन्म के आधार पर तुर्की मुसलमानों को तुरुष्क वहीं ताजिकिस्तान के मुसलमानों को ताजिक और पारसिक कहा गया। इसी तरह तुर्क तथा अफगानों को क्रमशः शक और यवन कहा गया।
- ब्राह्मणवादी एक निश्चित समुदाय के लिए ‘मलेच्छ’ शब्द का प्रयोग करते थे तथा इस शब्द के द्वारा वे अपनी संकुचित भावना को व्यक्त करते थे लेकिन इस्लाम में ऐसा शायद ही कहीं पाया गया हो क्योंकि इनके द्वारा समुदायों को संबोधित करने के लिए सामान्य शब्दों का प्रयोग किया जाता था।
भारत में सूफी मत का विकास
- सूफी परंपरा भारत में इस्लाम धर्म के आने के कई वर्षों बाद आई। इसने उस दौरान इस्लाम धर्म और राजनीति में बढ़ती त्रुटियों के खिलाफ अध्यात्म को अपनाकर समाज तथा धर्म को एक नई पहचान दी।
- सूफी लोगों ने रूढ़िवादिता, कुरान और सुन्ना की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की।
- सुपहिवाद सूफ शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘ऊन’ जो सूफियों द्वारा पहने जाने वाले ऊनी वस्त्र की ओर संकेत करता है। वहीं कुछ विद्वानों का मानना है कि इसकी उत्पत्ति ‘सफा’ शब्द से हुई है जिसे पैगंबर के मस्जिद के बाहर के एक चबूतरे से जोड़ा जाता है।
- 11वीं शताब्दी के आते-आते सूफियों का कुरान और सूफी से जुड़ा अपना साहित्य हो गया। इस समुदाय के लोग संगठित रूप से एक जगह रहते थे जिसे खानकाह कहा जाता था। खानकाह पीर और मुर्शिद फारसी द्वारा संचालित किया जाता था। ये खुद ही मुरीदों/अनुयायियों को चुनते थे और उनकी भर्ती करते थे।
सूफी सिलसिला
- सिलसिला शब्द का अर्थ है जंजीर। यही जंजीर शेखों और मुरीदों के बीच के संबंध को बांध कर रखती थी। जिसकी सबसे पहली कड़ी मोहम्मद पैगंबर से जुड़ी है। इस कड़ी के माध्यम से ही आध्यात्मिक शक्ति तथा आशीर्वाद अनुयायियों तक पहुँचते हैं।
- पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह उसके मुरीदों के लिए भक्ति स्थल बन जाता था। इस तरह दरगाह पर जियारत विशेष रूप से बरसी पर जाने की एक परंपरा बन गई जिसे उर्स कहा जाता था और इसे आत्मा का परमात्मा से मिलन का पर्याय माना जाता था।
- कुछ सूफी ऐसे भी थे जो खानकाह का त्याग करके फकीरी में विश्वास करने लगे थे। ये लोग शरिया को नहीं मानते थे इसली इन्हें बे-शरिया कहा जाता था।
चिश्ती सिलसिला
- 12वीं सदी के अंत में आने वाले सूफियों को चिश्ती कहा जाता था। खानकाह चिश्ती सूफियों के जीवन का केंद्र बिंदु था।
- उस समय (14वीं सदी) दिल्ली में शेख निजामुद्दीन औलिया की खानकाह का बड़ा नाम था।
- शेख से मिलने के लिए आमिर खुसरो जैसे कवि, हसन सिजजी और जियाउद्दीन जैसे दरबारी इतिहासकार आते थे।
सूफी मत और उपासना (भक्ति)
- ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह पर आने वाला पहला शासक मुहम्मद-बिन-तुगलक को माना जाता है। वहीं इस इमानर का निर्माण करवाने वाला पहला सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी था।
- अकबर 16वीं शताब्दी में दरगाह की प्रसिद्धि और जियारत संबंधी भजनों के कारण ही यहाँ आने लिए प्रेरित हुआ। सूफी संत लोग दरगाह में अपने आराध्य की आराधना संगीत के द्वारा करते थे और नृत्य एवं संगीत जियारत का ही एक हिस्सा था।
- ‘बाबा फरीद’ ने क्षेत्रीय भाषा में अपनी काव्य रचना को पूरा किया जिसे गुरु ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में भी संकलित किया गया।
- 17वीं से 18वीं शताब्दी में चिश्ती संतों द्वारा सक्खनी भाषा में छोटी कविताएँ लिखी जाने लगीं। इसके बारे में कहा जाता है ये कविताएँ शायद महिलाओं द्वारा घरेलू काम करते समय गायी जाती होंगी।
- कुछ सूफी रचनाएँ लोरीनामा और शादीनाम के रूप में भी लिखी गईं।
सूफी तथा राज्य सरोकार
- सूफी संप्रदाय के लोह सादगी और संयमपूर्ण जीवन जीते थे लेकिन अगर शासक वर्ग बिना माँगे अनुदान या भेंट में कुछ दते थे वे लोग उसे स्वीकार कर लेते थे। ये लोग दान को जमा करने में विश्वास नहीं रखते थे।
- कई सुल्तानों ने खानकाहों को कर मुक्त भी किया और उन्हें दान में भूमि भी दी साथ ही दान से जुड़े कई न्यासों की स्थापना भी की थी।
- सूफी संत लोग ईमानदार होते थे। उन्हें जो भी धन या समान मिलता था उसका उपयोग अनुष्ठानिक कार्यों में करते थे। इसी वजह से जनता में उनकी प्रसिद्धि बढ़ी और शासक उनका समर्थन पाना चाहते थे।
- जब दिल्ली सल्तनत की स्थापना तुर्कों ने की तब उलमा द्वारा शरिया की माँग को सुल्तानों ने ठुकरा दिया था।
सूफी परंपरा के इतिहास के पुनर्निर्माण के स्त्रोत
सूफी परंपरा के इतिहास के पुनर्निर्माण के स्त्रोतों के नाम निम्नलिखित हैं-
- कश्फ-उल-महजूब (सूफी विचारों पर आधारित एक महत्वपूर्ण पुस्तक)
- मुलफुजात (सूफी संतों की बातचीत)
- मुक्तुबात (लिखे हुए पत्रों का संकलन)
- तजाकिरा (सूफी संतों की जीवनियों का स्मरण)
नवीन भक्तिमार्ग के संत
कबीर
- 14वीं से 16वीं शताब्दी के बीच नवीन भक्ति पंथ का उदय हुआ जिसमें कबीर का नाम सबसे पहले आता है जिन्हें मुख्य रूप से कबीरदास कहा जाता था। उनका जन्म किस धर्म में हुआ? यह विषय आज भी विवादित बना हुआ है।
- कबीर का पालन-पोषण एक जुलाहा परिवार द्वारा किया गया था और उनके गुरु का नाम रामानंद था जिन्होंने कबीर को भक्ति का मार्ग दिखाया था।
- कबीर की बानी तीन विशेष परिपाटियों में संकलित की गई है- कबीज बीजक, कबीर ग्रंथावली और ग्रंथ साहिब।
- कबीर की बानी की विशेताएँ निम्नलिखित हैं-
- उन्होंने सत्य को खुदा, अल्लाह, पीर और हजरत कहा।
- वेदांत दर्शन से प्रभावित होकर उन्होंने सत्य को आत्मन, ब्राह्मण, निराकार तथा अलख (अदृश्य) कहा।
- शब्द और शून्य की परंपरा को योगी परंपरा से ग्रहण किया।
- पदों के माध्यम से एकेश्वरवाद को बढ़ावा दिया और मूर्ति एवं बहुदेववाद पूजा खंडन किया।
- ‘नाम सिमरन’ हिंदू परंपरा से तथा ‘जिक्र और इश्क’ के सूफी सिद्धांतों का उपयोग किया।
- कबीरदास की भाषा उलटबाँसी बताई गई है। वह आज ही उन लोगों के लिए लिए प्रेरणा का स्त्रोत बने हुए हैं जो रूढ़िवादी विचारों और व्यवहारों को आलोचना की दृष्टि से देखते हैं।
गुरुनानक
- गुरुनानक का जन्म पंजाब के ननकाना गाँव में रावी नदी के पास हुआ था। वे फारसी भाषा से भलीभाँति परिचित थे इसलिए सूफी संतों के बीच रहकर उनके साथ वाद-विवाद किया करते थे।
- उन्होंने ही सिख संप्रदाय की स्थापना की थी और अंत में अपना उत्तराधिकारी अपने शिष्य ‘अंगद’ को बनाया दिया था। गुरुनानक की शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं-
- मानवतावाद का स्थान सबसे ऊँचा है।
- नानक द्वारा धार्मिक कर्मकांडों का विरोध किया गया। उनके विचारों को ‘शबद’ में संगृहीत किया गया है जिन्हें वो अलग-अलग रागों में गाकर प्रस्तुत करते थे।
- उनका मानना था की ईश्वर का कोई लिंग या आकार नहीं होता।
- उन्होंने ईश्वर को याद करने के लिए लगातार नाम जप का मार्ग बताया।
- गुरुनानक ने समुदायिक सतसंग के आचारों का निर्माण किया जहाँ उनके अनुयायी समुदाय के रूप में संगठित होते थे।
मीराबाई
- 15वीं-16वीं सदी में मीरा बाई भक्ति परंपरा की सबसे प्रसिद्ध कवयित्री मानी जाती हैं जोकि उस समय की संत स्त्रियों में अग्रणी स्थान रखती थीं।
- मीराबाई की शादी उनकी इच्छा के विरुद्ध मेवाड़ के सीसोदिया कुल में कर दिया गया था जहाँ उन्हें कई रूढ़िवादी सोच और संकटों का सामना करना पड़ा। कहा जाता है एक बार उन्हें उनके ससुराल वालों ने जहर देने की कोशिश की थी।
- उन्होंने कृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर भक्ति मार्ग को इस कदर अपनाया की खुद को पूरी तरह से कृष्ण की भक्ति में लीन कर लिया। उस दौरान उन्होंने कृष्ण भक्ति से जुड़ी अनेक गीतों की रचना की। इस तरह वह राजमहल से निकलकर जगह-जगह कृष्ण के गीतों को गाने वाली गायिका बन गई।
- विद्वानों का मानना है मीरा बाई के गुरु रेदास (रविदास) थे। जिससे स्पष्ट होता है कि वह समाज में फैली हुई रूढ़ियों को नहीं मानती थीं।
- उन्होंने भले ही किसी मत का गठन नहीं किया और न ही उनके आस-पास कोई अनुयायियों की भीड़ होती थी फिर भी उनके द्वारा रचित पद आज भी गुजरात और राजस्थान के स्त्री-पुरुषों और विशेष रूप से गरीबों द्वारा गाए जाते हैं।
शंकरदेव
- शंकेदेव का नाम 15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वैष्णव धर्म के प्रचारक के लिए रूप में लिया जाता है। वो भी मुख्य रूप सी असम राज्य में।
- उनकी शिक्षाएँ ‘भगवद्गीता’ और ‘भागवत पुराण’ पर आधारित थीं इसलिए उनके उपदेशों को ‘भगवती धर्म’ कहकर संबोधित किया जाता है।
- उन्होंने भी भक्ति मार्ग को अपनाने के लिए गुरुनानक की तरह ही लगातार नाम जप करने पर बल दिया।
- शंकरदेव की प्रमुखी काव्य रचनाओं में कीर्तनघोष का स्थान सबसे ऊपर है।
- उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए मठ और नामघर जैसे प्रार्थनाघरों के निर्माण को बढ़ावा दिया।
समयावधि अनुसार मुख्य धार्मिक शिक्षक
भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख धार्मिक शिक्षक
क्रम संख्या | काल | धार्मिक शिक्षकों के नाम |
1. | लगभग 500-800 ई.पू. | तमिलनाडु में अप्यार, संबंदर, सुंदरमूर्ति |
2. | लगभग 800-900 ईसवी | तमिलनाडु में नम्मलवर, मणिक्वचक्कार, अंडाल, तांदराडिप्पोडी |
3. | लगभग 1000-1100 ईसवी | पंजाब में अल हुजविरी, दाता गंज बक्श; तमिलनाडु में रामानुजाचार्य |
4. | लगभग 1100-1200 ईसवी | कर्नाटक में बसवन्ना |
5. | लगभग 1200-1300 ईसवी | महाराष्ट्र में ज्ञानदेव मुक्ताबाई; राजस्थान में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती; पंजाब में बहादुद्दीन जकारिया और फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर; दिल्ली में कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी |
6. | लगभग 1300-1400 ईसवी | कश्मीर में लाल देव; सिंध में लाल शाहबाज कलंदर; दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया; उत्तर प्रदेश में रामानंद; महाराष्ट्र में चोखमेला; बिहार में शराफुद्दीन याह्या मनेरी |
7. | लगभग 1400-1500 ईसवी | उत्तर प्रदेश में कबीर, रैदास, सूरदास; पंजाब में बाबा गुरु नानक; गुजरात में बल्लभाचार्य; ग्वालियर में अबदुल्ला सत्तारी; गुजरात में मुहम्मद शाह आलम; गुलबर्गा में मीर सैयद मौहम्मद गेसू दराज़; असम में शंकरदेव; महाराष्ट्र में तुकाराम |
8. | लगभग 1500-1600 ईसवी | बंगाल में श्री चैतन्य; राजस्थान में मीराबाई; उत्तर प्रदेश में शेख अब्दुल कुद्दस गंगोही, मलिक मौहम्मद जायसी, तुलसीदास |
9. | लगभग 1600-1700 ईसवी | हरियाणा में शेख अहमद सरहिंदी; पंजाब में मियाँ मीर |
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