इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की भूगोल की पुस्तक-2 यानी भारत लोग और अर्थव्यवस्था के अध्याय- 4 “जल-संसाधन” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय- 4 भूगोल के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 12 Geography Book-2 Chapter-4 Notes In Hindi
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अध्याय- 4 “जल-संसाधन“
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | बारहवीं (12वीं) |
विषय | भूगोल |
पाठ्यपुस्तक | भारत लोग और अर्थव्यवस्था |
अध्याय नंबर | चार (4) |
अध्याय का नाम | “जल-संसाधन” |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 12वीं
विषय- भूगोल
पुस्तक- भारत लोग और अर्थव्यवस्था
अध्याय- 4 “जल-संसाधन”
भारतीय जल संसाधन
- पृथ्वी का लगभग 71% भाग धरातल जल से घिरा हुआ है लेकिन अलवणीय जल सिर्फ 3% ही है।
- भारत में विश्व के धरातलीय क्षेत्र का लगभग 2.45% व जल संसाधन का 4% और जनसंख्या का लगभग 16% भाग पाया जाता है।
- भारत में प्रत्येक वर्ष वर्षण से लगभग 4000 गहन कि.मी. जल प्राप्त होता है।
- धरातलीय जल और पुनः पूर्तियोग भौम जल से 1869 घन कि.मी. जल प्राप्त होता है। इनमें से सिर्फ 60% जल का ही उपयोग किया जाता है।
- भारत में जल संसाधन निम्न अवस्था में उपलब्ध है-
- धरातलीय जल संसाधन
- नदियाँ, झीलें, तलैया तथा तालाब धरातलीय जल के मुख्य चार स्त्रोत हैं।
- 1.6 कि.मी. से लंबी भारतीय नदियों की संख्या 10360 है।
- भारत में वर्षा में स्थानिक भिन्नता पाई जाती है और वर्षा मुख्य रूप से मानसून मौसम पर निर्भर होती है।
- गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र बहुत बड़े हैं इसलिए इन क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती है।
- भौम जल संसाधन
- भारत में कुल पुनः पूर्तियोग्य भौम जल संसाधन लगभग 432 घन कि.मी. है।
- उत्तर पश्चिम प्रदेश और दक्षिण भारत के कुछ भागों के नदी बेसिनों में भौम जल का उपयोग अधिक किया जाता है।
- भौम जल का उपयोग पंजाब, हरियाणा, राजस्थान एवं तमिलनाडु में अधिक किया जाता है जबकि इसका उपयोग छत्तीसगढ़, ओडिशा और केरल जैसे राज्यों में कम है।
- भौम जल का अत्यधिक उपयोग विकास और सामाजिक शांति के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।
- लैगून और पश्चय जल
- भारत में विशाल समुद्र तटों और राज्यों में दंतुरित समुद्र तट के कारण बहुत सी लैगून और झीलें बन गई हैं।
- केरल, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में लैगूनों और झीलों में ही धरातलीय जल संसाधन उपलब्ध हैं।
- इन राज्यों में इस जल का उपयोग मछलीपालन, चावल और नारियल की कुछ निश्चित किस्मों की सिंचाई के लिए किया जाता है।
- धरातलीय जल संसाधन
जल की माँग एवं उसका उपयोग
- भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण यहाँ की एक-तिहाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर है इसलिए पंचवर्षीय योजना के तहत कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए सिंचाई के विकास पर बल दिया गया है।
- उत्पादन के बढ़ाने के लिए भाखड़ा-नाँगल, हिराकुंडा, दामोदर घाटी, नागार्जुन सागर और इंदिरा गाँधी नहर प्रोयोजना की भी शुरुआत ही गई।
- धरातलीय जल का 89% भाग और भौम जल का 92% भाग कृषि में उपयोग किया जाता है।
- कुछ ही प्रतिशत जल का उपयोग औद्योगिक और घरेलू क्षेत्रों में किया जाता है।
सिंचाई के लिए जल की माँग
- भारत में वर्षा के स्थानिक और सामयिक परिवर्तिता के कारण सिंचाई की जरूत पड़ती है। देश में कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ वर्षा जल की उपलब्धता न के बराबर है। शीत तथा ग्रीष्म ऋतु में वर्षा का कम होना भी सिंचाई के लिए जल की माँग को बढ़ाता है।
- मानसून के मौसम में वर्षा न होने के कारण सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जोकि कृषि के लिए हानिकारक होती है। चावल, गन्ना और जूट आदि फसलों के लिए जल की आवश्यकता अधिक होती है। इतनी मात्रा में जल की भरपाई सिर्फ सिंचाई द्वारा ही संभव है।
- बहुफसलीकरण और उत्पादकता को बढ़ाने के लिए सिंचाई सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मानी जाती है। पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिम उत्तर प्रदेश में बोए गए क्षेत्र का 85% भाग सिंचाई के अंतर्गत आता है।
जल संबंधी संभावित समस्याएँ
- जनसंख्या बढ़ने के कारण जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता दिन पर दिन कम होती जा रही है।
- देश में शुद्ध व पीने योग्य जल की मात्रा में लगातार कमी आ रही है।
- उपलब्ध जल संसाधन प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीय क्रियाओं के प्रभाव और इनके अपशिष्टों से प्रदूषित हो रहे हैं।
- घरेलू अपशिष्टों से भी उपलब्ध जल संसाधन प्रदूषित हो रहे हैं।
- अब उपयोग के लिए जल संसाधनों की उपलब्धता सीमित होती जा रही है।
जल संरक्षण एवं प्रबंधन
- जिस तरह से जल का ह्रास हुआ है अगर समय रहते जल का संरक्षण नहीं किया गया, तो जल की कमी और भी अधिक बढ़ जाएगी।
- वर्तमान में सतत पोषणीय विकास के लिए जल संसाधन के संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता सबसे अधिक है।
- जल संरक्षण एवं प्रबंधन के आधार पर ही अलवणीय जल की कमी और इसकी बढ़ती माँग को पूरा किया जा सकता है।
- शुद्ध जल की मात्रा को बढ़ाने के लिए जल संसाधनों को प्रदूषण से बचाने का प्रयास करना चाहिए। इसमें देश के लोगों की भूमिका का होना सबसे जरूरी है।
- जल संभर विकास, वर्षा जल संग्रहण और जल के पुनः चक्रण तथा पुनः उपयोग से जल की उपलब्धता को लंबे समय तक बनाए रखा जा सकता है। इनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है-
- जल प्रदूष और उसका निवारण
- तीव्र गति से जल का ह्रास हो रहा है लेकिन अब भी पहाड़ी क्षेत्र के ऊपरी भागों और कम जनसंख्या वाले क्षेत्र की नदियों की गुणवत्ता बेहतर है।
- मैदानी भागों में नदियों के जल का उपयोग कृषि, पीने, घरेलू और औद्योगिक जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाता है।
- गर्मी के मौसम में नदी प्रवाह कम होने के कारण विभिन्न क्षेत्रों द्वारा फैलाए गए प्रदूषकों का जमाव नदी में बढ़ जाता है।
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड मिलकर 507 स्टेशनों की राष्ट्रीय जल संसाधन की गुणवत्ता को बनाए रखने की कोशिश करते हैं।
- दिल्ली एवं इटावा के बीच यमुना नदी सबसे अधिक प्रदूषित नदी है।
- अहमदाबाद में साबरमती, लखनऊ में गोमती, हैदराबाद में मूसी और कानपुर व वाराणसी में गंगा नदी प्रदूषण का शिकार बन चुकी है।
- सरकारी नीतियों, जन-जागरूकता और जनता की भागीदारी से कृषि, धरेलू और उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्टों के कारण बढ़ते प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
- जल का पुनः चक्रण एवं पुनः उपयोग
- इसके माध्यम से अलवणीय जल की उपलब्धता में सुधार किया जा सकता है।
- कम गुणवत्ता वाले जल का उपयोग करना उद्योगों के लिए लाभकारी होता है क्योंकि ऐसे जल के उपयोग से लागत कम आती है।
- स्नान, बर्तन और वाहनों को धोने में प्रयोग किए गए जल का उपयोग अगर बागवानी में करेंगे, तो इससे पीने योग्य जल का संरक्षण होगा।
- जल संभर प्रबंधन और उसके कार्यक्रम
- मुख्य रूप से धरातलीय और भौम जल संसाधनों के प्रबंधन को जल संभर प्रबंधन कहते हैं।
- इसके अंतर्गत बहते हुए जल को स्रवण तालाब, पुनर्भरण, कुओं द्वारा एकत्रित किया जाता है।
- इसका उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों एवं समाज के मध्य संतुलन स्थापित करना है।
- जल संभर प्रबंधन की सफलता पूरी तरह से लोगों के सहयोग पर निर्भर करती है।
- केंद्र और राज्य सरकारों के साथ गैर-सरकारी संगठनों द्वारा चलाए गए कुछ महत्वपूर्ण जल संभार विकास और प्रबंधन कार्यक्रम निम्नलिखित हैं-
- हरियाली: यह केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तित जल संभर विकास परियोजना है। इसका उद्देश्य ग्रामीण लोगों को पीने, सिंचाई, मत्स्यपालन और वन रोपण के लिए जल की सुविधा उपलब्ध कराना है। इस परियोजना को गाँव के लोगों की सहायता से पंचायतों द्वारा चलाया जाता है।
- नीरू-मीरू: इस कार्यक्रम को आंध्र प्रदेश में चलाया जाता है जिसके अंतर्गत जल संरक्षण के लिए लोगों के सहयोग से तालाब, ताल (जोहड़) की खुदाई की गई है और रोक बाँध बनाए गए है। नीरू-मीरू को ‘जल और आप’ भी कहते हैं।
- अरवारी पानी संसद: इस कार्यक्रम को राजस्थान के अलवर जिले में चलाया जा रहा है। इसके अंतर्गत तमिलनाडु के हर घर में जल संग्रहण संरचना को बनाए रखना आवश्यक कर दिया गया है। कुछ क्षेत्रों में जल संभार विकास परियोजनाएँ पर्यावरण तथा अर्थव्यवस्था के लिए काफी लाभकारी साबित हुई हैं।
- जल प्रदूष और उसका निवारण
वर्षा जल संग्रहण
- वर्षा जल को रोकने और उसे एकत्रित करने की विधि को वर्षा जल संग्रहण कहते हैं।
- यह कम मूल्य और परिस्थितिकी अनुकूल विधि है।
- इस विधि के अंतर्गत पानी की प्रत्येक बूँद को संरक्षित करने के लिए नलकूपों, गड्ढों और कुओं में एकत्रित किया जाता है।
- वर्षा जल संग्रहण पानी की उपलब्धता को बढ़ाता है और भूमि के जल स्तर को कम होने से रोकता है।
- यह जल की गुणवत्ता को बढ़ता है साथ ही मृदा अपरदन तथा बाढ़ की संभावना को कम करता है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत रूप से वर्षा जल संग्रहण झीलों, तालाबों, सिंचाई तलाबों आदि में किया जाता है।
- राजस्थान में वर्षा के जल को कुंडों में एकत्रित किया जाता है।
- घर की छतों और खुले स्थानों में भी वर्षा जल संग्रहण द्वारा पानी को संरक्षित किया जा सकता है।
- यह विधि जल निर्भरता को कम करती है।
- वर्षा जल संग्रहण से नगरीय क्षेत्रों को अधिक लाभ होगा क्योंकि इन क्षेत्रों में जल की माँग पहले से काफी बढ़ चुकी है।
भारतीय राष्ट्रीय जल नीति की प्रमुख विशेषताएँ
भारतीय राष्ट्रीय जल नीति 2002 की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- सिंचाई और बहुउद्देशीय परियोजनाओं में पीने का जल घटक में शामिल होना चाहिए।
- सभी जाति और प्राणियों के लिए पीने योग्य जल की उपलब्धता कराना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
- भौम जल के शोषण को सीमित और नियमित करने के लिए उपाए करने चाहिए।
- सतह और भौम जल की गुणवत्ता के लिए नियमित रूप से जाँच होनी चाहिए।
- जल के विविध प्रयोग में कार्यक्षमता सुधरनी चाहिए।
- दुर्लभ संसाधन के रूप में जल जागरूकता को बढ़ावा देना चाहिए।
- शिक्षा और प्रेरकों के माध्यम से लोगों में संरक्षण चेतना उत्पन्न करनी चाहिए।
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