इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 10वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक यानी “लोकतांत्रिक राजनीति-2” के अध्याय- 3 “जाति, धर्म और लैंगिक मसले” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय- 3 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 10 Political Science Chapter-3 Notes In Hindi
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अध्याय-3 “जाति, धर्म और लैंगिक मसले“
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | दसवीं (10वीं) |
विषय | सामाजिक विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | लोकतांत्रिक राजनीति-2 (राजनीति विज्ञान) |
अध्याय नंबर | तीन (3) |
अध्याय का नाम | “जाति, धर्म और लैंगिक मसले” |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 10वीं
विषय- सामाजिक विज्ञान
पुस्तक- लोकतांत्रिक राजनीति-2 (राजनीति विज्ञान)
अध्याय- 3 “जाति, धर्म और लैंगिक मसले”
राजनीति में लैंगिक मसले
- जन्म से ही लड़के और लड़कियों के मन में बैठ देना कि महिलाओं का मुख्य कार्य गृहस्ती संभलना और बच्चों का पालन-पोषण करना है, लैंगिक असमानता का आधार है।
- पारिवारिक लैंगिक मसले श्रम के लैंगिक विभाजन को दर्शाती है।
- अधिकतर पुरुष दर्जी और होटल के रसोइए होते हैं लेकिन घर में सभी महिलाएँ ऐसे सारे काम बिना पारिश्रमिक के करती हैं।
- श्रम के इस तरह के विभाजन ने महिलाओं को चारदीवारी तक सीमित कर दिया और पुरुषों को बाहर का संपूर्ण जीवन सौंप दिया।
- आबादी में महिलाओं का आधा हिस्सा होने के बाद भी सार्वजनिक क्षेत्रों और राजनीति में उनकी भागीदारी न के बराबर थी।
- पहले सार्वजनिक क्षेत्रों में कार्य करने, वोट देने और चुनाव लड़ने का अधिकार सिर्फ पुरुषों को था।
- बाद में हर क्षेत्र में अपने अधिकार के लिए महिलाओं ने आंदोलन करना शुरू कर दिया। इन आंदोलनों को ‘नारीवादी आंदोलन’ कहा गया।
- अब विज्ञान, शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि क्षेत्रों में बड़े-बड़े पदों पर महिलाएँ देखने को मिलती हैं।
- स्वीडन, नार्वे, फिनलैंड जैसे देशों में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का स्तर काफी अधिक है।
वर्तमान में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव
- आजादी के बाद महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार अवश्य हुए लेकिन आज भी वे पुरुषों से काफी पीछे हैं।
- समाज आज भी पितृ-प्रधान है।
- वर्तमान में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव निम्नलिखित हैं-
- महिला साक्षरता दर 54% है जबकि पुरुष साक्षरता दर 76% है। बहुत कम लड़कियाँ उच्च शिक्षा तक पहुँच बना पाती हैं, जिसका कारण आर्थिक एवं घरेलू समस्याएँ होती हैं।
- ऊँची तनख्वाह वाले एवं ऊँचे पदों पर पहुँचने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम है।
- खेल-कूद से लेकर कार्य के हर क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी दी जाती है, भले ही दोनों ने समान कार्य किया हो।
- भारत में औसतन एक स्त्री एक पुरुष की तुलना में प्रत्येक दिन एक घंटा अधिक कार्य करती है।
- महिलाओं के अधिकतर कार्यों के लिए कोई मूल्य निर्धारित नहीं है।
- बहुत से परिवारों को लड़कों की चाहत होती है, जिसके कारण भ्रूण हत्या भारत में बढ़ गयी है। उसके बाद देश का लिंग अनुपात गिरने लगा।
- महिलाएँ शहरों के अलावा घरों में भी असुरक्षित हैं क्योंकि वहाँ उन्हें घरेलू हिंसा का शिकार बनना पड़ता है।
- महिलाओं के शोषण, उत्पीड़न तथा उन पर होने वाली हिंसा की खबरें वर्तमान समय में आम हो चुकी हैं।
भारत की विधायिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व
- नारीवादी समूहों का मानना है कि जब तक महिलाओं का सत्ता पर नियंत्रण नहीं होगा तब तक महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को समाप्त नहीं किया जा सकता।
- भारत की विधायिका में महिला उम्मीदवारों का अनुपात बहुत कम है।
- वर्ष 2019 में महिला सांसदों की संख्या 14.36% थी।
- राज्य की विधानसभाओं में इनकी भागीदारी 5% से भी कम थी।
- महिलाओं ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँच तो बनाई लेकिन मंत्रिमंडल में पुरुषों का ही वर्चस्व रहा।
- बाद में महिलाओं के लिए पंचायतों एवं नगरपालिकाओं में एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दी गईं।
- वर्तमान में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में निर्वाचित महिलाओं की संख्या 10 लाख से अधिक है।
- महिला संगठनों ने लोक सभा और राज्य सभाओं में महिलाओं के एक तिहाई सीटों की माँग थी।
- संसद में इस माँग के लिए एक विधेयक पेश किया गया था लेकिन राजनीतिक पार्टियों के एकमत न होने के कारण इसको खारिज कर दिए गया।
धार्मिक अंतरों पर आधारित विभाजन
- धार्मिक अंतरों पर आधारित विभाजन लैंगिक विभाजन की तरह हर क्षेत्र में व्याप्त नहीं है।
- धार्मिक विभाजन ज़्यादातर राजनीति के क्षेत्र में नजर आता है।
- गाँधी जी के अनुसार धर्म (नैतिक मूल्यों) को कभी भी राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता है।
- सांप्रदायिक दंगों में मरने वाले ज्यादातर लोग अल्पसंख्यक समुदायों के होते हैं।
- महिला आंदोलनकारियों का मानना है कि धर्म के नाम पर बनाए गए पारिवारिक कानून महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को बढ़ाते हैं।
- सभी धर्मों के विचार, आदर्श एवं मूल्य राजनीति में अपनी भूमिका निभाते हैं।
- शासक सभी धर्मों के कामकाज पर नियंत्रण रखता है और उनके साथ समान बरताव करता है।
राजनीति और सांप्रदायिकता
- राजनीति में समस्या तभी उत्पन्न होती है जब धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है।
- यह समस्या और भी विकराल रूप तब धारण करती है जब एक धार्मिक समूह अपनी माँगों को दूसरे समूह के विरोध में खड़ा करने लगता है।
- सांप्रदायिक राजनीति के अंतर्गत धर्म ही सामाजिक समुदाय का निर्माण करता है।
- ऐसे समुदाय में एक खास धर्म में आस्था रखने वाले लोगों का समूह होता है।
- इस तरह की मानसिकता वाले लोग किसी दूसरे समुदाय का हिस्सा नहीं बनते हैं।
- जब सांप्रदायिक सोच विकराल रूप लेती है तब यह विचार उत्पन्न होने लगता है कि दूसरे धर्मों के अनुयायी एक ही देश में समान नागरिक की तरह नहीं रह सकते।
राजनीति में सांप्रदायिकता के अनेक रूप
सांप्रदायिकता राजनीति में निम्नलिखित रूप धारण कर सकती है-
- धार्मिक पूर्वाग्रह और एक धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ मानने की मान्यताएँ बढ़ने लगती हैं।
- धर्मिक समुदाय राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश करने लगती है।
- चुनावी राजनीति में सांप्रदायिक हस्तक्षेप बढ़ने लगता है।
- सांप्रदायिकता संप्रदाय के आधार पर निर्ममता से हिंसा, दंगा और नरसंहार कराती है।
भारत में धर्मनिरपेक्ष शासन
- सांप्रदायिकता लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है इसलिए भारत में धर्मनिरपेक्ष शासन का मॉडल चुना गया।
- भारतीय संविधान में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म का दर्जा नहीं दिया गया है।
- संविधान सभी नागरिकों और समुदायों को प्रचार-प्रसार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
- देश में धर्म के नाम पर किए जाने वाले हर तरह के भेदभाव को असंवैधानिक घोषित किया गया है।
- धर्मनिरपेक्ष शासन के अंगर्गत छुआछूत जैसी विचारधारा को बढ़ावा देना अपराध माना जाता है।
- धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा भारतीय संविधान की बुनियाद है।
राजनीति में जातिगत असमानताएँ
- जाति पर आधारित विभाजन सिर्फ भारतीय समाज में देखने को मिलता है।
- जाति व्यवस्था सामाजिक असमानता का आदिवादी और स्थायी रूप है।
- वर्ण-व्यवस्था अन्य जातियों से अलग मानने की धारणा पर आधारित है।
- ज्योतिबा फुले, महात्मा गाँधी, डॉ. अंबेडकर और पेरियार रामास्वामी नायकर जैसे नेताओं ने समाज को जातिगत भेदभाव से मुक्त कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- भारत में इन महान नेताओं के कारण जाति व्यवस्था में काफी सकारात्मक बदलाव आया।
- आज आर्थिक विकास, साक्षरता, शहरीकरण, पेशा चुनने की आजादी इत्यादि के कारण वर्ण व्यवस्था पर टिकी मानसिकता में बदलाव आया है।
- जाति व्यवस्था आज पूर्ण तरह से समाप्त नहीं हुई है। कुछ जगहों पर ये पुराने रूप में ही चल रही है।
- जिन जातियों मे पहले से ही शिक्षा प्राप्त करने की स्वतंत्रता थी, आज की शिक्षा व्यवस्था में उन्हीं का वर्चस्व नजर आता है।
राजनीति में जातिवाद
- जातिवाद इस बात पर आधारित है कि जाति ही सामाजिक समुदाय के गठन का एकमात्र आधार है।
- जातिवाद के अंतर्गत एक जाति के लोग एक सामाजिक समुदाय का निर्माण करते हैं।
- रजिनीति में जाति निम्नलिखित रूपों में नजर आती है-
- राजनीतिक दल इस बात का ध्यान रखते हैं कि विभिन्न जातियों और कबीलों के लोगों को उचित जगह दी जाए।
- उम्मीदवारों का समर्थन पाने के लिए जातिगत भावनाओं को उकसाने की कोशिश की जाती है।
- वयस्क मताधिकार तथा एक व्यक्ति-एक वोट की वजह से उन जातियों के लोगों में नई चेतना उत्पन्न हुई, जिन्हें अभी तक छोटी जाति का माना जाता था।
- चुनाव में जीतने के लिए एक से अधिक जाति व समुदायों का भरोसा प्राप्त करना पड़ता है।
- कोई भी पार्टी किसी भी एक जाति के सभी लोगों का वोट प्राप्त नहीं कर सकती है।
- अगर किसी चुनाव क्षेत्र में किसी जाति का प्रभुत्व अधिक है, तो वहाँ उस जाति का उम्मीदवार खड़ा किया जा सकता है।
- अगर जातियों और समुदायों की राजनीतिक पसंद एक होती, तो ज्यादातर संसदों तथा विधायकों को हार का समाना नहीं करना पड़ता।
- चुनाव के दौरान जाति की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
जाति के अंदर राजनीति का स्वरूप
- हर जाति खुद को बड़ा बनाने के लिए अपने से छोटी जातियों को अपने साथ शामिल करने का प्रयास करती है।
- एक जाति सत्ता पर अपना अधिकार करने और राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए दूसरी जातियों के साथ तालमेल बैठाती है।
- राजनीति में अगड़ा और पिछड़ा जैसे दो नए किस्म के जातिगत भाग बनाए गए हैं।
- जातिगत राजनीति ने दलित और पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए सत्ता तक पहुँच बनाने के कई प्रयास किए हैं।
- धर्म की तरह ही सिर्फ जाति पर जोर देना समाज के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है।
- जातिवाद बहुत बार तनाव, हिंसा और आपसी टकराव को भी बढ़ावा देता है।
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