इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 10वीं कक्षा की भूगोल की पुस्तक यानी “समकालीन भारत-2” के अध्याय- 2 “वन एवं वन्य जीव संसाधन” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय- 2 भूगोल के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 10 Geography Chapter-2 Notes In Hindi
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अध्याय-2 “वन एवं वन्य जीव संसाधन“
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | दसवीं (10वीं) |
विषय | सामाजिक विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | समकालीन भारत-2 (भूगोल) |
अध्याय नंबर | दो (2) |
अध्याय का नाम | “वन एवं वन्य जीव संसाधन” |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 10वीं
विषय- सामाजिक विज्ञान
पुस्तक- समकालीन भारत-2 (भूगोल)
अध्याय- 2 “वन एवं वन्य जीव संसाधन”
वन्य जीव
- पृथ्वी पर मनुष्य सूक्ष्म जीवों से लेकर विशाल जीव-जंतु के साथ रहते हैं।
- मानव एवं दूसरे जीव मिलकर एक जटिल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं।
- वन प्राथमिक उत्पादक होते हैं इसलिए ये पारिस्थितिकी तंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- सभी प्राणी वन पर निर्भर हैं।
भारत में वनस्पतिजात एवं प्राणिजात
- जैव विविधता की दृष्टि में भारत विश्व के संपन्न देशों में से एक है।
- भारत में विश्व की 8% जैव उपजातियाँ पाई जाती हैं।
- दैनिक जीवन में जैविक संसाधनों का महत्त्व इतना है कि मनुष्य उससे पूरी तरह से जुड़ा हुआ है।
- मनुष्य ने जैविक संसाधनों को महत्त्व देना छोड़ दिया है जिसके कारण संसाधनों का ह्रास बढ़ गया है।
- भारत में लगभग 10% वनस्पतियों एवं 20% प्राणियों के लुप्त होने का खतरा अधिक है।
- भारत में बहुत सी उपजातियाँ पूरी तरह से लुप्त हो चुकी हैं।
पौधों और प्राणियों की विभिन्न जातियाँ
पौधों और प्राणियों की विभिन्न जातियों का वर्णन निम्न प्रकार है-
सामान्य जातियाँ
- इस श्रेणी में वे जातियाँ आती हैं जिनकी संख्या जीवित रहने के लिए सामान्य मानी जाती है।
- पशु, साल, चीड़ आदि सामान्य जातियों के अंतर्गत आते हैं।
संकटग्रस्त जातियाँ
- इस श्रेणी में वे जातियाँ आती हैं जिनकी संख्या कम होने से पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ता है।
- अगर ये जातियाँ लगातार लुप्त होती रहीं, तो इसका सबसे बुरा प्रभाव पर्यावरण पर पड़ेगा।
- काला हिरण, मगरमच्छ, जंगली गधा, शेर पूँछ वाला बंदर, मणिपुरी हिरण आदि जीव संकटग्रस्त जातियों के अंतर्गत आते हैं।
सुभेद्य जातियाँ
- इसमें वे जातियाँ आती हैं जिनकी संख्या लगातार घट रही है। यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा, तो ये जातियाँ जल्द ही संकटग्रस्त जातियों का हिस्सा बन जाएंगी।
- नीली भेड़, एशियाई हाथी और गंगा नदी की डॉल्फिन इस जातियों के मुख्य उदाहरण हैं।
दुर्लभ जातियाँ
- इनकी संख्या बहुत कम है।
- ये जातियाँ भी सुभेद्य जातियों की तरह संकटग्रस्त जातियों का हिस्सा बन सकती है।
स्थानिक जातियाँ
- ये जातियाँ प्राकृतिक एवं भौगोलिक सीमाओं से इतर विशेष सीमाओं में पाई जाती है।
- निकोबारी कबूतर, अंडमानी जंगली सुअर आदि स्थानिक जातियों के उदाहरण है।
लुप्त जातियाँ
- ये जातियाँ संसार से लुप्त हो चुकी हैं।
- एशियाई चीता और गुलाबी सिर वाली बत्तख लुप्त जातियों के मुख्य उदाहरण हैं।
वनस्पतिजात एवं प्राणिजात का ह्रास
- मानव ने प्राकृत पदार्थों को संसाधनों में परिवर्तित कर उसका दोहन किया है।
- भारत में उपनिवेशकाल में वनों को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया गया था।
- वनों को साफ करके स्वतंत्र भारत में कृषि का विस्तार किया गया था।
- वर्ष 1951 से 1980 के बीच लगभग 26200 वर्ग किमी. वनों को कृषि भूमि के रूप में परिवर्तित किया गया था।
- झूम खेती एवं जंगलों को साफ करके खेती करने से भी वनों का निम्नीकरण हुआ है।
- बड़ी-बड़ी विकास परियोजनाओं के कारण भी वनों बहुत नुकसान पहुँचा है।
- मध्य प्रदेश में 400000 हेक्टेयर से भी ज्यादा वन क्षेत्र नर्मदा सागर परियोजना के पूर्ण होने के बाद जल से भर जाएगा।
- खनन की वजह से भी वनों का निम्नीकरण हुआ है।
- वन संसाधनों की बर्बादी के मुख्य कारण पशुचारण और ईंधन/जलावन के लिए लकड़ियों की कटाई है।
- वन पारिस्थितिकी तंत्र कीमती वन खनिज, पदार्थों तथा संसाधनों का संचय कोष है।
भारत में जैव-विविधता को कम करने वाले कारक
भारत में जैव-विविधता को कम करने वाले निम्न कारक शामिल हैं-
- वन्य जीवों के आवास का विनाश।
- जंगली जानवरों को मारना एवं उनका शिकार करना।
- पर्यावरण प्रदूषण।
- संसाधनों का विभिन्न समूहों के बीच असमान बँटवारा।
- लगातार तेजी से बढ़ती जनसंख्या।
- पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी से पीछे हटना।
- संसाधनों का नुकसान सांस्कृतिक विनाश का कारण भी है।
वन तथा वन्य जीव का संरक्षण
- संरक्षण से संसार में जैविक विविधता बनी रहेगी।
- जीवन के लिए जरूरी मूल संसाधन जल, वायु और मृदा उपलब्धता बनी रहेगी।
- संरक्षण से प्रजनन के लिए विभिन्न जीवों व वनस्पतियों में जींस को सुरक्षित रखा जा सकता है।
- जलीय जैव विविधता की वजह से मछलियों का पालन संभव है।
- 1960 एवं 1970 के दशक में पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों द्वारा ‘राष्ट्रीय वन्यजीव सुरक्षा कार्यक्रम’ शुरू करने की माँग की गई थी।
- वर्ष 1972 में भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम को लागू किया गया, जिसमें जानवरों के आवास को सुरक्षित रखने का भी प्रावधान किया गया था।
- इस अधिनियम के तहत संकट ग्रस्त जातियों के बचाव, शिकार पर प्रतिबंध, जंगली जीवों के व्यापार इत्यादि पर जोर दिया गया।
- केंद्रीय सरकार द्वारा कुछ विशेष जीवों को सुरक्षित रखने के लिए कई परियोजनाएँ भी चलाई गई थीं।
- अब संरक्षण परियोजनाएँ जैव घटकों के स्थान पर जैव विविधताओं पर केंद्रित हैं।
- कीटों को भी संरक्षण के माध्यम से महत्त्व दिया जा रहा है। लगभग सैंकड़ों तितलियों, पतंगों, भौरों आदि जातियों को भी संरक्षण प्रदान किया गया है।
- वर्ष 1991 में प्रथम बार पौधों की 6 जातियों को संरक्षण सूची में रखा गया था।
वन तथा वन्य जीव संसाधनों के विभिन्न वर्ग
वन विभाग को सरकार द्वारा तीन वर्गों में बाँटा गया गया है, जिनका वर्णन निम्न प्रकार है-
1. आरक्षित वन
- भारत में 50% से ज़्यादा वन क्षेत्र आरक्षित किए गए है।
- आरक्षित वनों को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है।
2. रक्षित वन
- देश में कुल वन क्षेत्र का एक-तिहाई भाग रक्षित है।
- इन वनों की सुरक्षा और ज़्यादा नष्ट न होने की वजह से की जाती है।
3. अवर्गीकृत वन
- वे सभी वन व बंजरभूमि जो सरकार, लोगों या समुदायों के अधिकार क्षेत्र में होते हैं, उन्हें अवर्गीकृत वन कहते हैं।
- गुजरात में अधिकांश वन क्षेत्र स्थानीय समुदायों के स्वामित्व में हैं।
समुदाय एवं वन संरक्षण की नीतियाँ
- वन भारत में कुछ मानव प्रजातियों/जनजातियों के आवास स्थल होते हैं, जिसे नकारा नहीं जा सकता है।
- अधिकतर समुदाय सरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर अपने आवासों को बचाने की कोशिश में लगे हुए हैं।
- बहुत से क्षेत्रों में कुछ समुदाय सरकार की मदद लिए बिना स्वयं ही अपने आवासों की रक्षा कर रहे हैं।
- राजस्थान के अलवर जिले में पाँच गाँव के लोगों ने मिलकर एक निश्चित वन भूमि को ‘सोंचुरी’ घोषित कर दिया है। यहाँ बाहरी लोग नहीं आ सकते हैं।
- वर्ष 1973 में चिपको आंदोलन की शुरुआत उत्तराखंड के चमोली जिले में हुई थी। यह आंदोलन वनों की कटाई पर रोक लगाने के लिए किया गया था।
- टिहरी के किसानों ने बीज बचाओ आंदोलन एवं नवदानय के माध्यम से बताया था कि बिना रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के भी आर्थिक लाभ कमाने के लिए कृषि उत्पादन किया जा सकता है।
- संयुक्त वन प्रबंधन क्षरित वनों को बचाने के लिए कार्य करता है। इस कार्य में ग्रामीण स्तर की संस्थाएँ भी सहयोग प्रदान करती हैं।
- सरकार द्वारा स्थानीय समुदायों को प्राकृत संसाधनों के प्रबंधन में सम्मिलित करना चाहिए। ऐसा करके पर्यावरण के विनाश को रोकने में बहुत हद तक सहायता मिल सकती है।
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