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Class 11 Political Science Book-2 Ch-10 “संविधान का राजनीतिक दर्शन” Notes In Hindi

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Navya Aggarwal
Last Updated on

इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 11वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-2 यानी “भारत का संविधान-सिद्धांत और व्यवहार” के अध्याय-10 “संविधान का राजनीतिक दर्शन” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 10 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।

Class 11 Political Science Book-2 Chapter-10 Notes In Hindi

आप ऑनलाइन और ऑफलाइन दो ही तरह से ये नोट्स फ्री में पढ़ सकते हैं। ऑनलाइन पढ़ने के लिए इस पेज पर बने रहें और ऑफलाइन पढ़ने के लिए पीडीएफ डाउनलोड करें। एक लिंक पर क्लिक कर आसानी से नोट्स की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं। परीक्षा की तैयारी के लिए ये नोट्स बेहद लाभकारी हैं। छात्र अब कम समय में अधिक तैयारी कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही आप नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करेंगे, यह अध्याय पीडीएफ के तौर पर भी डाउनलोड हो जाएगा।

अध्याय- 10 “संविधान का राजनीतिक दर्शन”

बोर्डसीबीएसई (CBSE)
पुस्तक स्रोतएनसीईआरटी (NCERT)
कक्षाग्यारहवीं (11वीं)
विषयराजनीति विज्ञान
पाठ्यपुस्तकभारत का संविधान- सिद्धांत और व्यवहार
अध्याय नंबरदस (10)
अध्याय का नामसंविधान का राजनीतिक दर्शन
केटेगरीनोट्स
भाषाहिंदी
माध्यम व प्रारूपऑनलाइन (लेख)
ऑफलाइन (पीडीएफ)
कक्षा- 11वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- भारत का संविधान- सिद्धांत और व्यवहार
अध्याय-10 “संविधान का राजनीतिक दर्शन”

संविधान के दर्शन का अर्थ

  • संविधान का संबंध केवल कानून से ही होना चाहिए। इसका नैतिक मूल्यों और भावनाओं से संबंध बेहद सीमित क्षेत्रों में ही हो सकता है, जैसे कानून नागरिकों के मध्य भाषा और धर्म को लेकर भेदभाव नहीं कर सकता।
  • इससे पता चलता है कि कानून और नैतिक मूल्यों में भी संबंध हो सकता है।
  • संविधान एक ऐसा दस्तावेज है, जिसकी पृष्ठभूमि में एक नैतिक दृष्टि काम कर रही है, राजनीतिक दृष्टि के माध्यम से इसे समझा जा सकता है, इसके लिए ये बिन्दु महत्त्वपूर्ण हैं-
    1. संविधान में निहित कुछ अवधारणाओं जैसे- ‘अधिकार’, ‘नागरिकता’, ‘लोकतंत्र’ आदि के बारे में प्रश्न किया जाना आवश्यक है।
    2. जिन आदर्शों और बुनियादों पर संविधान का निर्माण किया गया है, उसकी छवि हमारे सामने साफ होनी चाहिए।
    3. संविधान सभा की बहसों को समझने का प्रयास भारतीय संविधान के सैद्धांतिक रूप की समझ को विकसित करता है, और उसे आवश्यकतानुसार परिवर्तनीय बना देता है। मूल्यों को किसी दस्तावेज का हिस्सा बनाने पर यह स्पष्ट करना भी आवश्यक हो जाता है कि ये मूल्य किस तरह से सही और सुसंगत हैं।
मूल्यों की स्पष्टता
  • संविधान निर्माताओं ने भारतीय राज व्यवस्था को अन्य मूल्यों के स्थान पर किसी खास मूल्य से इसलिए भी परिवर्तित किया, क्योंकि उनके पास इसे जायज ठहराने के उचित तर्क मौजूद थे।
  • संविधान निर्माताओं द्वारा दिए गए ये आदर्श चुनौतियाँ मिलने के बाद भी राजनीतिक जीवन के अभिन्न अंग हैं।
  • इन सभी आदर्शों पर, विधायिका, न्यायपालिका, विश्वविद्यालय आदि में विचार किया जाता है, और इनकी व्याख्या अलग-अलग तरीकों से की जाती है।
  • ये संस्थाएं भिन्न व्याख्याएं भी प्रस्तुत करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप विवाद भी उत्पन्न हो सकते हैं। सही व्याख्याओं की जांच के लिए भी संविधान की ही कसौटियों का इस्तेमाल किया जाता है, एक तरह से संविधान पंच की भूमिका में रहता है।

लोकतान्त्रिक बदलाव का साधान : संविधान

  • संविधान को अंगीकार करने का एक बड़ा कारण है, सत्ता को निरंकुश होने से रोकना। राज्यों को अधिक शक्तियां प्रदान की गई हैं, जिससे यदि इन राज्यों पर गलत हाथों का कब्जा हो जाएगा, तो नागरिकों की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है।
  • संविधान द्वारा ऐसे नियम प्रदान किए जाते हैं, जिससे राज्य को निरंकुश होने से रोका जाता है।
  • यह गहरे सामाजिक बदलावों के लिए शांतिपूर्ण लोकतान्त्रिक साधन प्रदान करता है। इसके साथ ही जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, संविधान ने औपनिवेशवाद में रह रहे लोगों को राजनीतिक धरातल पर पहला और वास्तविक निर्णय लेने का भी मौका प्रदान किया।
  • उनके अनुसार संविधान सभा केवल वकीलों और जनप्रतिनिधियों का झुंड भर नहीं है, यह अपने राष्ट्र के लिए नए आवरण को बनाने की तैयारी कर रहा है।
  • इस सविधान का निर्माण उंच-नीच को खत्म कर नए समाज के निर्माण के लिए हुआ है।
  • यह नजरिया न केवल सत्ता को अंकुश में लाता है, बल्कि नागरिकों का सशक्तिकरण भी करता है।

संविधान सभा की ओर गति

  • भारतीय संविधान निर्माताओं के समक्ष स्थिति और आज के युग की स्थिति लगभग समान ही है। भारतीय संविधान का इतिहास ही हमारे वर्तमान का इतिहास बन गया है।
  • आज के समय में हमारे राजनीतिक व्यवहार के पीछे के असली कारणों को हमने भूल दिया हो, लेकिन जब इस व्यवहार को चुनौतियाँ दी जाती हैं, उस समय इनपर अपनी पकड़ को मजबूत करना आवश्यक हो जाता है।
  • इस परिस्थिति में संविधान सभा की ओर पीछे मुड़कर देखना भी आवश्यक हो जाता है, जिससे संविधान के मूल राजनीतिक दर्शन को याद करना आवश्यक हो जाता है।

संविधान: राजनीतिक दर्शन

  • भारत का संविधान उदारवादी, लोकतान्त्रिक, संघवादी, धर्मनिरपेक्ष और सर्वमान्य पहचान बनाने आदि के लिए उपयोगी संविधान है, इसे दर्शन जैसे एक शब्द के साथ बांधना कठिन है।
  • यह देश में समता, सामाजिक-न्याय और राष्ट्रीय एकता प्रदान करता है, और इसका जोर इस बात पर भी है कि इसके दर्शन पर पूर्ण अमल किया जाए।
व्यक्ति की स्वतंत्रता
  • नागरिकों की स्वतंत्रता बौद्धिक और राजनीतिक गतिविधियों का परिणाम मानी जाती है।
  • राजाराम मोहन राय ने 19वीं सदी में अंग्रेजों से प्रेस की स्वतंत्रता मांग की थी। ब्रिटिश शासन काल में प्रेस की स्वतंत्रता के लिए निरंतर मांग उठती रही।
  • आज के भारतीय संविधान के तहत नागरिकों को अभिव्यक्ति, मनमानी गिरफ़्तारी के विरुद्ध अधिकार और अन्य वैयक्तिक अधिकार प्रदान किए हैं।
  • नागरिकों के वैयक्तिक अधिकारों को ऐसे मूल्यों के रूप में देखा जाता है, जिनसे समझौता नहीं किया जा सकता।
सामाजिक न्याय
  • भारतीय संविधान उदारवादी है, इसका अर्थ यूरोपीय शास्त्रीय परंपरा के उदारवाद से संबंधित नहीं है। इसका सीधा संबंध सामाजिक न्याय से है, जिसे अनुसूचित जाति और जनजातियों को प्राप्त आरक्षण के द्वारा समझा जा सकता है। इन जातियों को विधायिका में सीटों में आरक्षण दिया जाता है, जिसके लिए संविधान में विशेष प्रावधान किया जाता है।
अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान
  • भारतीय संविधान में समुदायों के जीवन में बराबरी का पक्ष रखा है, जो हमारे देश में आसानी से मुमकिन नहीं था।
  • इसमें मुश्किलें इसलिए भी पैदा होती हैं, क्योंकि इसके बाद ये समुदाय स्वयं को एक दूसरे का प्रतिद्वंद्वी मानने लगते हैं।
  • पश्चिमी राष्ट्रों में कई उदारवादी संविधानों में समुदायों को मान्यता नहीं दी जाती, लेकिन भारत में ऐसा करना वांछनीय नहीं है।
  • इसके पीछे का कारण भारत का समुदायों से जुड़ा होना नहीं है, बल्कि भारतीय सामुदायिक जीवन के मूल्यों से ज्यादा जुड़े हुए होते हैं, भारत की यही बात इसे खास बनाती है।
  • इन समुदायों को मान्यता देना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है, क्योंकि भारत में धार्मिक और भाषाई समुदाय हैं, और ये समुदाय एक दूसरे पर प्रभुत्व न जमाए इसके लिए इनके अधिकारों को महत्त्व दिया जाता है।
  • इसमें धार्मिक संस्थाएं स्थापित करने और चलाने का अधिकार मुख्य है, जिसके लिए सरकार इन संस्थाओं को धन रूप में सहायता मुहैया कराती है, इससे पता चलता है कि धर्म किसी व्यक्ति का निजी मामला नहीं है।
धर्मनिरपेक्षता
  • कई धर्मनिरपेक्ष देशों में धर्म को व्यक्तियों का निजी मामला माना गया है, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है, भारतीय संविधान में शुरुआत में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ, इसके बाद भी भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्ष रहा है।
  • पश्चिमी देशों में राज्य और धर्म के बीच कोई संबंध नहीं है, इससे नागरिकों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है।

धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध का उद्देश्य

  • यह व्यक्ति की स्वतंत्रता को आश्वस्त करता है, राज्य द्वारा किसी धर्म को समर्थन देने से वह धर्म ताकतवर होकर व्यक्ति के जीवन को नियंत्रित करने लगता है।
  • ऐसी स्थिति में व्यक्ति राज्य से अपने अधिकारों की सुरक्षा की मांग कर सकता है, लेकिन धार्मिक समूहों को सहयोग करने वाले राज्य सहायता प्रदान कर पाने में असमर्थ साबित हो सकते हैं, इसके लिए कहा जाता है कि राज्य का धार्मिक संगठनों को सहयोग प्राप्त नहीं होना चाहिए।
  • इससे किसी भी व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता बाधित हो सकती है, राज्य न तो धर्म को सहायता प्रदान करे न ही बाधा पहुंचाए। एक सम्मान जनक दूरी होना दोनों के लिए आवश्यक है।
  • नागरिकों को अधिकार देते समय भी राज्य को यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी धर्म को आधार न बनाया जाए। राज्य के लिए आवश्यक है कि राज्य को व्यक्ति का धर्म जाने बिना व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए।
  • भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता, पश्चिमी मॉडल से इन दो रूपों में भिन्न है-

1. धार्मिक समूहों के अधिकार

  • संविधान निर्माताओं के अनुसार व्यक्तियों और समुदायों के बीच समानता बराबर आवश्यक है। किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता उसके समुदाय की स्वतंत्रता पर निर्भर है। यही कारण है कि भारतीय संविधान में सभी धर्मों को स्वतंत्रता प्रदान की गई है, जो व्यक्ति और समुदायों दोनों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है।

2. राज्य का हस्तक्षेप करने का अधिकार

  • भारत में प्राचीन समय से ही छुआछूत की जड़ें बेहद गहरी रही हैं। इसलिए राज्य और धर्म में पारस्परिक निषेध नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसी स्थिति में राज्य के हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है।
  • यह नकारात्मक हस्तक्षेप नहीं है, राज्य इन समुदायों की आर्थिक सहायता करते हैं, राज्य के समानता और स्वतंत्रता के मूल्यों के आधार पर राज्य इन समुदायों को मदद करता है, अथवा बाधा पहुँचा सकता है।
  • इसकी तीन विशेषताएं इस प्रकार हैं-
    1. भारतीय समाज जहां सामुदायिक जीवन मूल्यों द्वारा व्यक्ति की स्वतंत्रता को अधिक महत्व नहीं दिया जाता, भारतीय संविधान ने इस उदारवादी व्यक्तित्व को एक शक्ल प्रदान की है।
    2. व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए सामाजिक न्याय की स्थापना।
    3. समुदायों के मध्य झगड़े और तनाव होते हुए भी भारतीय संविधान द्वारा समूहगत अधिकार प्रदान किए हैं, जैसे सांस्कृतिक विशिष्टता की अभिव्यक्ति का अधिकार।
सार्वभौमिक मताधिकार
  • भारत में जहां आपसी ऊंच-नीच बेहद बड़े स्तर पर है, और इसे समाप्त कर पाना भी आसान नहीं है, में सार्वभौमिक मताधिकार एक बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि कई बड़े लोकतान्त्रिक देशों में भी कामगार तबके और महिलाओं को मताधिकार काफी समय बाद दिया गया।
  • भारत में 1895 में अनौपचारिक रूप से संविधान बनाने का पहला प्रयास किया गया, जिसे ‘कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ इंडिया बिल’ कहा गया था।
  • इसके लेखक ने भी भारत के प्रत्येक नागरिक को मताधिकार देने और सरकारी पद हासिल करने का अधिकार प्रदान किया था। इसलिए शुरुआत से ही सार्वभौमिक मताधिकार को वैधानिक अधिकार माना गया, जिससे जनता अपना मत जाहीर कर सके।
संघवाद
  • अनुच्छेद 371 को भारतीय संविधान में जगह देकर असमतोल या असंतुलित संघवाद जैसी अवधारणा को अपनाया गया है। यह अमेरिकी संघवाद की संवैधानिक बनावट से भिन्न है।
  • भारतीय सविधान में यह भिन्नता कुछ इकाइयों की प्रमुख जरूरतों को ध्यान में रखकर इन्हें विशेष दर्जा प्रदान किया गया है, जैसे- अनुच्छेद 371ए के तहत पूर्वोत्तर के नागालैंड को विशेष राज्य के तौर पर स्थापित किया गया, जो यहाँ स्थानीय आप्रवास पर रोक लगाता है और स्थानीय पहचान की उपलब्धता भी सुनिश्चित करता है।
  • विभिन्न प्रदेश में होने वाले इस तरह के असमान बर्ताव में कोई बुराई नहीं है।

राष्ट्रीय पहचान

  • भारत में प्रत्येक नागरिक की अपनी राष्ट्रीय पहचान है, हमारी इस पहचान का धर्म और भाषा के साथ कोई अंतर्द्वंद्व नहीं है। इन दोनों पहचानों के मध्य संतुलन साधने का पूर्ण प्रयास किया गया है।
  • इसके बाद भी विशेष परिस्थिति होने पर राष्ट्रीय पहचान को ही सर्वोपरि रखा जाता है।

प्रक्रियागत उपलब्धि

  • इन सभी उपलब्धियों के अलावा भारतीय संविधान के तहत राजनीतिक विचार-विमर्श में विश्वास रखा गया है।
  • संविधान का निर्माण करने वाली सभा का नजरिया भी सभी को शामिल करने का था, जिससे यह पता चलता है कि भारत की जनता तर्कबुद्धि के आधार पर अपने निर्णय ले सकती है।
  • इसके साथ ही इससे यह पता चलता है कि मसलों पर समझौते भी कराए जा सकते हैं, जिनका अर्थ स्कारात्मक है।
  • संविधान सभा ने बहुमत की बजाय कुछ मुद्दों पर सर्वानुमति से लिए गए फैसले को उचित करार दिया।

भारतीय संविधान: आलोचनाएं

भारतीय संविधान अस्त-व्यस्त है

  • इसे ढीला-ढाला संविधान की संज्ञा दी गई है, जो यह बताता है कि किसी भी देश का संविधान एक कसे हुए दस्तावेज के रूप में होना चाहिए।
  • किसी भी देश का संविधान एक दस्तावेज तो होता है, साथ ही कुछ अन्य दस्तावेज (संवैधानिक दस्तावेज) भी होते हैं, जो उस कसे हुए दस्तावेज से बाहर भी मिल सकते हैं, यही संविधान कहलाता है।
  • भारत ने अपने संविधान में कई वक्तव्यों और कायदों को समेट लिया है, जो अन्य देशों के संविधानों में नहीं मिलेगा जैसे- चुनाव आयोग और लोक सेवा आयोग का प्रावधान।

यह संविधान सबकी इच्छा पूर्ति नहीं कर सका है

  • संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव सार्वभौम मताधिकार से न होकर सीमित मताधिकार द्वारा किया गया था। इसलिए माना जाता है कि नागरिकों की आवाज के आधार पर संविधान का निर्माण किया गया न की राय के आधार पर।
  • इसलिए भारतीय संविधान इस विचार से बेहद दूर है, इसलिए संविधान सभा की बहसों को पढ़कर यह अंदाज लगाया जा सकता है कि इस सभा में समाज के सभी मसलों पर चर्चा की गई है।

भारतीय परिस्थितियों के प्रतिकूल संविधान

  • ऐसा माना जाता है कि भारतीय संविधान विदेशी दस्तावेज है। इसके हर अनुच्छेद को पश्चिम से उधार लिया गया है और यह भारतीय संस्कृति से मेल नहीं खाता। इसलिए यह संविधान भ्रामक है।
  • संविधान निर्माताओं ने भारतीय परंपराओं की बुराइयों को खत्म करने के लिए पश्चिम के कुछ नियमों को अपनाया।
  • 1841 में राजाराम मोहन राय ने इसकी शुरुआत कर दी थी, उन्होंने दलितों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों का विरोध नए कानूनों की सहायता से किया।
  • पश्चिमी आधुनिकता का टकराव सांस्कृतिक व्यवस्था से होने पर, एक प्रकार की संकर-संस्कृति का निर्माण हुआ, जो न तो पूर्ण रूप से आधुनिक थी न ही परंपरागत।
  • यह वैकल्पिक आधुनिकता लिए हुए है। संविधान बनाते समय भी इन दोनों के स्वस्थ मेल का भाव ही काम कर रहा था।

संविधान की सीमाएं

भारतीय संविधान पूर्ण रूप से त्रुटिहीन भी नहीं है, कई मुद्दों और बातों पर पुनरावलोकन की आवश्यकता रह जाती है, या इसमें कुछ विवादित मुद्दे हो सकते हैं। ये सीमाएं इस प्रकार हैं-

  • इसमें राष्ट्रीय एकता की धरणा को केंद्र में रखा गया है।
  • लिंगगत न्याय और कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया।
  • गरीब और विकासशील देश होने के नाते, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों को बुनियादी अधिकारों में स्थान देने के बजाय नीति निर्देशक तत्वों में शामिल किया गया है।
  • लेकिन भारतीय संविधान की ये सीमाएं इतनी बड़ी नहीं हैं कि संविधान के दर्शन के लिए खतरा बने।
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