इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-2 यानी “स्वतंत्र भारत में राजनीति” के अध्याय- 3 नियोजित विकास की राजनीति के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 3 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 12 Political Science Book-2 Chapter-3 Notes In Hindi
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अध्याय- 3 “नियोजित विकास की राजनीति”
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | बारहवीं (12वीं) |
विषय | राजनीति विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | स्वतंत्र भारत में राजनीति |
अध्याय नंबर | तीन (3) |
अध्याय का नाम | नियोजित विकास की राजनीति |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 12वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- स्वतंत्र भारत में राजनीति
अध्याय-3 (नियोजित विकास की राजनीति)
राजनीतिक टकराव
- देश में विकास के संबंध में लिया जाने वाला निर्णय भले ही राजनीतिक पार्टियां ले लेकिन जनता द्वारा या उस विषय के विशेषज्ञों द्वारा उसका अंतिम निर्धारण होना भी आवश्यक है। इस तरह के मामलों में पर्यावरण, अर्थशास्त्रियों आदि से सलाह मशवरा करने में कोई बुराई नहीं है।
- हालांकि, इसका अंतिम निर्णय निश्चित रूप से राजनीतिक ही होना चाहिए, जनप्रतिनिधियों को जनता की भावनाओं को समझकर ही निर्णय लेना होता है।
- भारत में आजादी के बाद लिए गए सारे निर्णय आर्थिक विकास के मॉडल को ध्यान में रखकर लिए गए थे, इनका मुख्य विजन भारत की आर्थिक संवृद्धि और आर्थिक सामाजिक न्याय दोनों ही थे।
- सरकार ही इस तरह के मसले पर मुख्य भूमिका में होगी और केवल व्यवसाय और उद्योगपतियों के भरोसे इस विषय को नहीं छोड़ा जाएगा।
- आर्थिक संवृद्धि भी हो और सामाजिक न्याय भी मिले, लेकिन इसमें सरकार की भूमिका क्या होगी ये बड़ा सवाल था और यदि सामाजिक न्याय, आर्थिक संवृद्धि के रास्ते में आता है तो ऐसी स्थिति में दोनों में से किस पर अधिक जोर दिया जाए?
- एक प्रश्न यह भी था कि क्या किसी ऐसे संगठन की आवश्यकता भी होगी, जो पूरे देश में रणनीति बना सके?
विकास की धारणाएं
- विकास मानवीय जीवन के पहलुओं को अपने में समाए हुए है, यह एक तरह की व्यापक अवधारणा है। इसमें- आय का उच्च स्तर, उच्च सामाजिक समानता, भोतिक और मानसिक क्षमताओं का विकास आदि।
- जनता के अलग तबकों के लिए विकास के पैमाने में भी भिन्नता होती है, जिसके कारण विकास से संबंधित की जा रही चर्चा विवादों से दूर नहीं रह सकती।
- आजादी के तुरंत बाद के समय में विकास की बात आने पर लोग पश्चिम का हवाला देते थे, विकास का अर्थ ही था ज्यादा से ज्यादा आधुनिक बनना। पुरानी सामाजिक संरचना को तोड़ने के लिए आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य है।
भारत के समक्ष विकास का मॉडल
- आजादी के बाद से भारत इन दो विकास के मॉडल का इस्तेमाल कर सकता था- पहला, यूरोप के अधिकतर हिस्सों और संयुक्त राष्ट्र में भी अपनाया जा रहा मॉडल- उदारवादी-पूंजीवादी विकास मॉडल। और दूसरा था, सामाजिक मॉडल, जिसे सोवियत संघ ने भी अपनाया था।
- इस समय में भारत में बहुत से लोग सामाजिक मॉडल से खासा प्रभावित थे, जिसमें- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी के नेता और काँग्रेस के नेहरू भी शामिल थे।
योजना आयोग और नियोजन
- 1940 से 1950 के बीच में ही अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए पूरे विश्व में बड़ी संख्या में जनसमर्थन मिला।
- 1944 में नियोजित अर्थव्यवस्था से संचालन के लिए, उद्योगपतियों के समूह द्वारा एक प्रस्ताव बनाया गया, जिसे बॉम्बे-प्लान भी कहा गया।
- योजना आयोग (वर्तमान नीति आयोग) की स्थापना मार्च 1950 में की गई, यह एक सलाहकार की भूमिका में रहता है, जो अपनी सिफारिशों को मंत्रिमंडल की मंजूरी पर ही पूरा करा सकता है। देश का प्रधानमन्त्री ही इसका अध्यक्ष होता है।
- सोवियत संघ की तरह योजना आयोग ने भी पंचवर्षीय योजना की राह पकड़ी, जिसमें सरकार द्वारा आगे आने वाले खर्चों और आमदनी का ब्योरा बनाया गया। इसके तहत ही राज्य और केंद्र सरकार के बजट को दो भागों में बाँट दिया गया। गैर-योजना व्यय और योजना व्यय।
पंचवर्षीय योजनाएं
- भारत में पंचवर्षीय योजना के अमल का यह फायदा दिखाई दे रहा था कि सरकार के सामने अर्थव्यवस्था की एक बड़ी तस्वीर होती, वे अब लंबे समय तक इसमें हस्तक्षेप कर सकते थे।
- प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56)- इसी साल के नवंबर में इस योजना का दस्तावेज जारी हुआ, इस योजना की कोशिश थी कि लोगों को गरीबी के जाल से निकाला जाए। इस योजना की तैयारी युवा अर्थशास्त्री के.एन.राज कर रहे थे।
- इनके अनुसार इन दो दशकों को तक भारत को अपनी रफ्तार धीमी रखनी होगी, पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि-क्षेत्रों में ध्यान दिया गया, इसके अलावा बांध-सिचाई के क्षेत्रों में निवेश, भूमि सुधार पर बल, बचत को बढ़ावा देने का प्रयास किया गया।
- दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61)- पी.सी. म्हालनोबिस और अन्य अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों के नेतृत्व में भारी उद्योगों पर जोर दिया गया। इसमें विकास की गति को तीव्र कर दिया गया और संरचनात्मक विकास पर जोर दिया गया।
- देसी उद्योगों के लिए आयतों पर शुल्क लगाया गया, इससे निजी और सार्वजनिक उद्योगों को बढ़ाने में मदद मिली, इस अवधि में बिजली, इस्पात, मशीनरी, संचार, रेलवे जैसे क्षेत्रों के विकास पर बल दिया गया।
- तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66)- यह दूसरी पंचवर्षीय योजना की तरह ही रही, इसमें भी उन सभी कार्यों पर ही बल दिया गया जो दूसरी योजना में दिया गया था। इस समय में आकर शहरों की ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा था। अब कृषि के स्थान पर उद्योगों पर बल दिया जा रहा था।
- चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74)- इस समय स्थाई विकास और आर्थिक आत्मनिर्भरता के लक्ष्यों को मुख्य उद्देश्य बनाया गया, सरकार ने इस समय में लगभग 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और हरित क्रांति ने कृषि क्षेत्रों में प्रगति का काम किया।
- इस योजना के तहत रोजगार को बढ़ावा देना, क्षेत्रीय असमानता को दूर करना, संपत्ति वितरण आदि जैसे भारी उद्योगों पर बल देकर तीव्र गति से औद्योगिक विकास पर बल दिया।
- पाँचवी पंचवर्षीय योजना (1974-79)- इस योजना के तहत गरीबी के उन्मूलन पर और साथ ही आत्मनिर्भरता पर बल दिया गया, प्राथमिक शिक्षा, आवास, ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं, पेयजल, पोषण, न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम आदि पर बल जैसी योजनाएं बनाई गईं।
निजी क्षेत्र बनाम सार्वजनिक क्षेत्र
- भारत ने विकास ने दो जाने-माने मॉडल में से किसी को भी नहीं अपनाया, भारत ने दोनों ही मॉडल में से कुछ बातों को चुना और “मिश्रित अर्थव्यवस्था” के मॉडल को अपनाया। खेती, किसानी, व्यापार, उद्योगों का हिस्सा निजी हाथों में दिया और भारी उद्योगों को अपने हाथ में रखा।
- इस मिश्रित अर्थव्यवस्था की आलोचना वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों ही खेमों ने की, दोनों का ही कहना था कि इस अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्रों को कोई जगह नहीं दी गई है, उनके अनुसार सरकार को जितना करना चाहिए था उन्होंने उतना नहीं किया।
- इस समय में गरीबी में ज्यादा कमी नहीं आई और गरीब जनता की संख्या में बढ़ोत्तरी भी देखी गई।
- नियोजित विकास की शुरुआत में देश का आर्थिक विकास और नागरिकों की स्थिति में सुधार तो हुआ लेकिन कुछ बड़े कारगर कदम न उठा पाने के कारण यह राजनीतिक समस्या के रूप में उभरी।
- असमान विकास से जिन्हें नुकसान हुआ वे राजनीति का सहारा लेकर ताकतवर हो गए, लेकिन इससे सभी की भलाई के लिए उठाए गए कदम को सफलता नहीं मिल सकी।
बाद के बदलाव
- नेहरू की मृत्यु के बाद से इंदिरा गांधी ने राजनीति की कमान संभाली, 1967 की अवधि में निजी क्षेत्रों की उद्योगों पर बाधाएं बढ़ गईं, 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
- 1950-1980 के बीच भारत की अर्थव्यवस्था 3-3.5 % की ही रफ्तार से चली। सार्वजनिक क्षेत्रों और नौकरशाही की ओर पहले जनता का झुकाव था, लेकिन बाद में यह विश्वास टूट गया।
- नीति निर्माताओं ने 1980 के बाद के दशक में अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को कम कर दिया।
नीति आयोग
- नीति आयोग की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1 जनवरी 2015 से की, यह योजना आयोग के प्रभाव की विफलता के बाद बनाया गया आयोग है।
- इसका कार्य राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक नीतियों के मध्य सामंजस्य बनाना, यह नीतिसंगत कार्यक्रमों का एक ढांचा तैयार करने के लिए केंद्र सरकार के अंतर्गत करती है। इसके अध्यक्ष देश के प्रधानमंत्री होते हैं।
- इसके प्रमुख कार्य- आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों पर ध्यान देना, यह बल प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्रियों को ‘राष्ट्रीय अजेन्डा’ देती है, गांवों के स्तर पर विश्वसनीय योजना का निर्धारण करती है, कार्यक्रमों और नीतियों के निर्धारण के लिए क्षमता का निर्माण करती है आदि।
राष्ट्रीय विकास परिषद
- यह एक संविधानोत्तर संस्था है, इसकी स्थापना 1952 में मंत्रिमंडलीय प्रस्ताव के द्वारा की गई थी। राष्ट्रीय योजना की समीक्षा करना, योजना कार्यक्रमों को बनाना एवं इसमें आने वाली दिक्कतों का समाधान निकालना, देश के विकास में आर्थिक साधन उपलब्ध करवाना, पंचवर्षीय योजना पर विचार प्रस्तुत करना आदि इसके प्रमुख कार्य हैं।
वर्ष | घटना |
1950 | योजना आयोग की स्थापना |
1951 | पंचवर्षीय योजना की शुरुआत |
2015 | नीति आयोग की शुरुआत |
1987-1991 | विकास का केरल मॉडल |
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