इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-2 यानी स्वतंत्र भारत में राजनीति के अध्याय-6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 6 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 12 Political Science Book-2 Chapter-6 Notes In Hindi
आप ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों ही तरह से ये नोट्स फ्री में पढ़ सकते हैं। ऑनलाइन पढ़ने के लिए इस पेज पर बने रहें और ऑफलाइन पढ़ने के लिए पीडीएफ डाउनलोड करें। एक लिंक पर क्लिक कर आसानी से नोट्स की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं। परीक्षा की तैयारी के लिए ये नोट्स बेहद लाभकारी हैं। छात्र अब कम समय में अधिक तैयारी कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही आप नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करेंगे, यह अध्याय पीडीएफ के तौर पर भी डाउनलोड हो जाएगा।
अध्याय- 6 “लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट”
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | बारहवीं (12वीं) |
विषय | राजनीति विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | स्वतंत्र भारत में राजनीति |
अध्याय नंबर | छः (6) |
अध्याय का नाम | लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 12वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- स्वतंत्र भारत में राजनीति
अध्याय-6 (लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट)
आपातकाल की पृष्ठभूमि
- 1971 के बाद की काँग्रेस नए युग का प्रमाण थी, यह अंतर 1973 से 1975 के बीच स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता था। ये बदलाव देश में इस काल में लगे आपातकाल के रूप में देखे जा सकते थे।
- 1967 के लोकसभा चुनावों के बाद इंदिरा गांधी एक लोकप्रिय नेता के रूप में उभरीं। इस समय में दलों के मध्य प्रतिस्पर्धा भी अपने चरम पर थी, सरकार और न्यायपालिका के मध्य भी मतभेद उत्पन्न होने लगे।
- सरकार का मानना था कि सर्वोच्च न्यायालय गरीबों के हक में लिए जाने वाले फैसलों के बीच आ रहा था। विपक्षी दलों का मानना था कि राजनीति को व्यक्तिगत किया जा रहा है। इस समय में काँग्रेस की टूट के कारण इंदिरा गांधी और विरोधियों के बीच मतभेद बढ़ गए थे।
आर्थिक संदर्भ
- इंदिरा गांधी के द्वारा 1971 में गरीबी हटाओ का नारा दिया गया, इस बावजूद भी 1971-72 के समय में देश की आर्थिक स्थिति कुछ खास बदली नहीं थी। बांग्लादेश के संकट ने भारत की अर्थव्यवस्था का और भी बुरा हाल कर दिया था।
- 1971 के युद्ध के बाद अमेरिका ने भारत की आर्थिक मदद करना बंद कर दिया। 1973 में देश में वस्तुओं के दामों में 23% और 1974 में 30% का इजाफा हुआ।
- 1972-73 में मॉनसून असफल रहा, औद्योगिक विकास धीमा हो गया, ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी बढ़ी, खर्चे कम करने के लिए सरकार ने अपने कर्मचारियों के वेतन बंद कर दिए, खाद्यान का उत्पादन 8% तक कम हो गया।
- इसके चलते विरोधी पार्टियों ने विरोध के स्वर को ऊंचा किया। 1960 के दौरान कुछ छात्रों द्वारा विरोध किया गया था, जो कि इस दौर में और भी प्रबल रूप में देखा गया।
- ऐसे मार्क्सवादी समूहों की सक्रियता भी बढ़ी जो लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखते थे, आज के समय में इन्हें नक्सलवादी समूह के रूप में जाना जाता है। ये समूह उस समय पश्चिम बंगाल में ज्यादा सक्रिय थे।
गुजरात और बिहार के आंदोलन
- गुजरात और बिहार में काँग्रेस की ही सरकार थी, जनवरी, 1974 में गुजरात के छात्रों ने बढ़ती बेरोजगारी, खाद्यान वस्तुओं की कीमतों और उच्च पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध में एक विकराल आंदोलन छेड़ दिया। इसके बाद गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
- राज्य विधानसभा में दुबारा चुनाव कराने की मांग की गई, इसके लिए पुरानी काँग्रेस के नेता मोरारजी देसाई ने अनिश्चितकाल तक भूख हड़ताल पर बैठन की बात कही।
- छात्रों ने आन्दोलन में शरीक होने के लिए पूर्व राजनीतिज्ञ और तत्कालीन सामाजिक कार्यकर्ता जयप्रकाश नारायण को बुलाया, जे.पी. नारायण की शर्त थी कि आंदोलन अहिंसक रहेगा और बिहार तक ही सीमित नहीं होगा।
- बिहार में काँग्रेस सरकार को बर्खास्त करने की मांग उठी, सरकार ने इस्तीफे से इनकार कर दिया। आंदोलन देश के दूसरे हिस्सों में भी फैला, रेलवे कर्मचारियों ने भी हड़ताल शुरू कर दी, इससे देश में रोजमर्रा के काम ठप्प होने का खतरा मंडराने लगा।
- देश की राजधानी में जे.पी. नारायण ने संसद मार्च किया, अब जे.पी. नारायण को विपक्ष के अन्य नेताओं का भी समर्थन मिलने लगा था। इनको अब इंदिरा के विकल्प के रूप में देखा जाने लगा। ये आंदोलन काँग्रेस के खिलाफ नहीं बल्कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व के खिलाफ चलाए जा रहे थे।
न्यायपालिका से संघर्ष
- सरकार और न्यायालय के बीच कई मुद्दों को लेकर तनाव उत्पन्न हुआ। जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण रहा ए.एन.रे की नियुक्ति, ऐसा कहा गया कि इस नियुक्ति में अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों की सरकार ने अनदेखी की है।
- इस तरह से राजनीतिक विचारों और संविधान की व्याख्या का तेज टकराव देखने को मिला। प्रधानमंत्री के पक्षधर ऐसी न्यायिक व्यवस्था की बात कर रहे थे जो सरकार के अनुकूल आचरण करे। न्यायालय का इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित करना इस संघर्ष का चरम बिन्दु माना गया।
आपातकाल की घोषणा
- जगमोहन लाल सिंह इलाहाबाद के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने 12 जून, 1975 को उन्होंने इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध करार दिया। इस फैसले का मतलब यह था कि इंदिरा गांधी अब अपने प्रधानमंत्री पद पर कायम नहीं रह सकतीं और 6 महीने तक दुबारा सांसद के लिए निर्वाचित नहीं हो सकतीं।
- संकट और सरकार का फैसला– जे.पी. नारायण की अगुआई में विपक्ष ने इंदिरा के इस्तीफे की मांग की और 25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में प्रदर्शन किया। सरकारी कर्मचारियों और पुलिस सेना के आधिकारियों को सरकार के किसी भी आदेश के पालन न करने के लिए कहा गया। इससे सरकारी कार्यों के ठप्प होने का अंदेशा बढ़ गया।
- इंदिरा सरकार ने इन्हीं गतिविधियों के चलते 25 जून, 1975 के दिन देश में आपातकाल घोषित कर दिया, सरकार ने देश में बड़े स्तर पर गड़बड़ी की आशंका का हवाल देते हुए देश में संविधान का अनुच्छेद 352 लागू कर दिया।
- सरकार का कहना था कि देश में संकट की घड़ी आ जाने के चलते आपातकाल की स्थिति उत्पन्न हुई है। आपातकाल के समय में सारी शक्तियां केंद्र के हाथों में होती हैं एवं सरकार चाहे तो किसी भी मौलिक अधिकार पर रोक लगा सकती है।
- 25 जून, 1975 की आधी रात को राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने आपातकाल की उद्घोषणा की, इसके बाद सभी बड़े अखबारों की बिजली काट दी गई, बड़े विपक्षी नेताओं की बड़ी संख्या में गिरफ्तारियाँ हुईं।
परिणाम
- सरकार ने देश में प्रेस सेंसेरशिप लगा दी, सभी विरोधी आंदोलन को बंद करा दिया गया, राजनीतिक माहोल में तनाव और सन्नाटा छा गया। आरएसएस और इस्लाम-ए-जमात पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया, नागरिकों के कई मौलिक अधिकारों पर भी रोक लगा दी, अब वे अदालत का दरवाजा भी नहीं खटखटा सकते थे।
- निवारिक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया, गिरफ्तार किए गए लोगों की गिरफ्तारी का कारण बताना भी सरकार ने जरूरी नहीं समझा। 1976 में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आपातकाल में भी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को स्वीकार करने वाले फैसले को उलट दिया, यहां भी सरकार की दलील को मान्यता मिली।
- इंडियन एक्स्प्रेस और स्टेट्स मैन ने प्रेस सेंसेरशिप का विरोध किया। सेमिनार और मेनस्ट्रीम ने आपातकाल के सामने झुकने की बजाय बंद होना सही समझा।
- पद्मभूषण से सम्मानित हिन्दी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने और कन्नड लेखक ने अपनी पदवियाँ लौटा दीं।
आपातकाल से सबक
- आपातकाल के द्वारा भारतीय लोकतंत्र की कमियों और विशेषताओं का पता चला, जो आपातकाल के प्रावधानों में संशोधन का कारण बना।
- भारत के लोकतंत्र ने आपातकाल से ये सबक सीखे- भारत में लोकतंत्र की समाप्ति मुश्किल हैं, प्रावधानों में सुधार कर आपातकाल को केवल ‘आंतरिक गड़बड़ी’ और ‘सशस्त्र विद्रोह’ की स्थिति में लगाने की घोषणा हुई।
- ऐसी स्थिति में न्यायालय ने नागरिकों के अधिकारों के लिए सक्रिय तौर पर भूमिका निभानी शुरू कर दी, क्योंकि पहले के आपातकाल के दौरान वह नागरिकों के अधिकारों की रक्षा नहीं कर सका था।
- विरोधी पक्ष के बीच उत्पन्न तनावों में कैसे कमी लाई जाए और क्या आम नागरिकों को ऐसे विरोध में शामिल होना चाहिए या नहीं और ऐसे में सीमाओं का निर्धारण कैसे किया जाए।
- ऐसा कहा गया कि आपातकाल के दौरान पुलिस और प्रशासन ने सरकार के दबाव में आकार सभी कार्रवाइयाँ की, जो दर्शाता है कि सरकार ने इन कर्मचारियों को अपने औजार के रूप में प्रयोग किया।
- शाह आयोग- सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जे.सी. शाह की अध्यक्षता में जनता पार्टी ने 1977 में शाह आयोग का गठन किया। इसका गठन आपातकाल के दौरान हुए सत्ता के दुरुपयोग, सरकार के अत्याचारों को लेकर, पीड़ितों के बयान के लिए और एक निष्पक्ष जांच करने के लिए किया गया था।
आपातकाल के बाद की राजनीति
- आपातकाल के बाद लोकसभा चुनाव हुए, जिसमें जनमत ने आपातकाल का अपना अनुभव चुनाव में बताया। विपक्ष ने लोकतंत्र बचाओ का नारा दिया। 1975 से 77 के बीच की गतिविधियों ने एक तरह से भारतीय लोकतंत्र को मजबूत भी बनाया।
- लोकसभा के चुनाव– जनवरी 1977 यानी आपातकाल के लगभग 18 महीने बाद सरकार ने चुनाव कराए। आपातकाल की समाप्ति और मार्च में चुनाव खत्म होने के बाद जेल में बंद राजनीतिक कार्यकर्ताओं को रिहा कर दिया गया।
- इसके बाद चुनावों की घोषणा होने पर राजनीतिक दलों ने एक दल बनाया जिसका नाम जनता पार्टी रखा गया, इसका नेतृत्व जे.पी. नारायण ने किया। काँग्रेस से अलग हुए अन्य नेता भी बाबू जगजीवन राम के नेतृत्व वाली काँग्रेस फॉर डेमोक्रेसी नाम की पार्टी बना चुके थे। ये पार्टी भी आगे जाकर जनता दल में ही शामिल हुई।
- लोकसभा चुनाव, 1977 परिणाम– परिणामों में काँग्रेस हार गई, काँग्रेस को केवल 154 सीटें और 35% वोट ही हासिल हुए। वहीं जनता पार्टी और अन्य सहयोगी दलों ने 330 सीटें मिली और जनता पार्टी को 295 सीटों का बहुमत हासिल हुआ।
- काँग्रेस को मध्य और उत्तर भारत में सफलता नहीं प्राप्त हो सकी। क्योंकि उत्तर भारत में ही नसबंदियाँ ज्यादा संख्या में कराई गई थीं। काँग्रेस पूरे भारत में चुनाव नहीं हारी, महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा के कुछ राज्यों में काँग्रेस ने कई सीटें अपने नाम कर ली थीं। यूपी में भी इंदिरा गांधी रायबरेली और अमेठी से संजय गांधी चुनाव हार चुके थे।
जनता सरकार
- चुनावों के नतीजों के बाद जनता पार्टी ने सरकार बनानी शुरू की, जयप्रकाश नारायण ने इसमें अहम भूमिका निभाई। प्रधानमंत्री पद के लिए मोरारजी देसाई को चुना गया। जिसके बाद पार्टी में तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई।
- पार्टी में आपसी मतभेद के कारण 18 महीने बाद इसका विभाजन हुआ, जिसमें बहुमत न मिल पाने के कारण मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई।
- चोधरी चरण सिंह ने काँग्रेस के समर्थन में सरकार बनाई जो कि 4 माह के बाद ही काँग्रेस द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण गिर गई। 1980 में दुबारा चुनाव कराए गए, जिसमें काँग्रेस बहुमत से जीती, इसने 353 सीटें जीतीं और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में फिर से काँग्रेस की सरकार बनीं।
- 1977 के बाद पिछड़े वर्गों के मुद्दों को ध्यान में रखकर एक नारा दिया गया जो था- इंदिरा लाओ, देश बचाओ।
विरासत
- 1977 और 1980 के बाद भारत की दलगत प्रणाली व्यापक रूप से बदली। 1969 के बाद काँग्रेस जो सभी तरह की विचारधारा को अपने में समाहित करके चलती थी ने एक विशेष विचारधारा से स्वयं को जोड़ लिया। अब काँग्रेस इंदिरा गांधी के भरोसे ही लोकप्रिय हुई।
- काँग्रेस ने अब स्वयं को भी गरीब के सहायक के रूप में प्रस्तुत किया। विपक्षी दलों ने खुद को गैर-काँग्रेसवाद की ओर अग्रसर किया और इसका नतीजा उन्हें 1977 के चुनावों में भी देखने को मिला।
- आपातकाल के बाद संवैधानिक संकट उत्पन्न हुआ और जनता की भूमिका लोकतंत्र में सवालों से घिर गई। इसके साथ ही दलीय प्रणाली ने जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में विफलता दिखाई।
- राजनीतिक दलों के अंदर बदलाव को आपातकाल के बाद साफ तौर पर देखा गया। पिछड़ी जातियों के नेताओं ने इन पार्टियों की संरचना में अहम किरदार निभाया।
समय-सूची
वर्ष | घटना |
1971 | गरीबी हटाओ का नारा |
1974 | गुजरात आंदोलन की शुरुआत |
1974 | रेल हड़ताल |
1975 | विधानसभा चुनावों में काँग्रेस की हार |
25 जून, 1975 | देशभर में आपातकाल की घोषणा |
1977 | शाह आयोग का गठन |
1977 | आपातकाल के बाद पहले लोकसभा चुनाव |
1977 | जनता पार्टी और काँग्रेस फॉर डेमोक्रेसी पार्टी का गठन |
PDF Download Link |
कक्षा 12 राजनीति विज्ञान के अन्य अध्याय के नोट्स | यहाँ से प्राप्त करें |