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Class 11 Geography Book-1 Ch-5 “भू-आकृतिक प्रक्रिया” Notes In Hindi

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Navya Aggarwal
Last Updated on

इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 11वीं कक्षा की भूगोल की पुस्तक-1 यानी भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत” के अध्याय-5 भू-आकृतिक प्रक्रिया के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 5 भूगोल के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।

Class 11 Geography Book-1 Chapter-5 Notes In Hindi

आप ऑनलाइन और ऑफलाइन दो ही तरह से ये नोट्स फ्री में पढ़ सकते हैं। ऑनलाइन पढ़ने के लिए इस पेज पर बने रहें और ऑफलाइन पढ़ने के लिए पीडीएफ डाउनलोड करें। एक लिंक पर क्लिक कर आसानी से नोट्स की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं। परीक्षा की तैयारी के लिए ये नोट्स बेहद लाभकारी हैं। छात्र अब कम समय में अधिक तैयारी कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही आप नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करेंगे, यह अध्याय पीडीएफ के तौर पर भी डाउनलोड हो जाएगा।

अध्याय- 5 “भू-आकृतिक प्रक्रिया”

बोर्डसीबीएसई (CBSE)
पुस्तक स्रोतएनसीईआरटी (NCERT)
कक्षाग्यारहवीं (11वीं)
विषयभूगोल
पाठ्यपुस्तकभौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत
अध्याय नंबरपाँच (5)
अध्याय का नामभू-आकृतिक प्रक्रिया
केटेगरीनोट्स
भाषाहिंदी
माध्यम व प्रारूपऑनलाइन (लेख)
ऑफलाइन (पीडीएफ)
कक्षा- 11वीं
विषय- भूगोल
पुस्तक- भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत
अध्याय-5 “भू-आकृतिक प्रक्रिया”

भू-पपर्टी स्थिर न होकर गत्यात्मक है। इसका संचलन क्षैतिज और ऊध्वर्धार दिशाओं में होता है। वर्तमान के मुकाबले पृथ्वी भूतकाल में अधिक चलायमान रही होगी। पृथ्वी के बाह्य और आंतरिक बल के लिए इसे सूर्य से ऊर्जा की आवश्यकता होती है। बाह्य और आंतरीक बलों का प्रभाव सदैव भू-पपर्टी का होता है। बाह्य बल को बहिर्जनिक और आंतरिक बल को अन्तर्जनित कहा जाता है।

तल संतुलन

  • धरातल पर होने वाले अपरदन से उच्चावच के बीच का अंतर कम होने लगता है, इसे ही तल संतुलन कहा जाता है। अन्तर्जनिक शक्तियों द्वारा धरातल का भाग ऊपर उठता है, इसके परिणामस्वरूप बहिर्जनित क्रियाएं उच्चावच की भिन्नता को एक समान करने में विफल हो जाती हैं।
  • अन्तर्जनिक बल के परिणामस्वरूप धरातल के उच्चावच में नियमित रूप से विषमताएं देखने को मिलती हैं। बहिर्जनिक और अन्तर्जनित बलों में विरोधात्मक कार्यों के चलते, यह अंतर बना रहता है।
  • अन्तर्जनित बल भू-आकृति का निर्माण करता है और बहिर्जनिक प्रक्रिया से भूमि में विघर्षण होता है। अपने जीवन के निर्वाह के लिए मानव भूतल की संवेदनशीलता का दोहन और सघन उपयोग करता है।
  • इस भू-भाग को अपना सही आकार पाने में कई साल लगे हैं। संसाधनों का दुरुपयोग करके मानव ने इनका बड़ी संख्या में ह्रास किया है।
  • वे सभी प्राकृतिक पदार्थ जिन्होंने पृथ्वी के निर्माण में सहायता की है, उन्हें जान लेने बाद इनके संरक्षण के संबंध में सोचा जा सकता है।

भू-आकृतिक प्रक्रियाएं

  • धरातल की बनावट में परिवर्तन भूतलीय पदार्थों पर अन्तर्जनित और बहिर्जनिक बलों के चलते भौतिक दबाव तथा रासायनिक क्रियाओं से होता है, जिसे भू-आकृतिक प्रक्रियाएं कहा जाता है।
  • पटल निरूपण एवं ज्वालमुखीयता एक अन्तर्जनित भू-आकृतिक प्रक्रिया है, वहीं वृहत क्षरण, अपरदन अपक्षय ये बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएं हैं।

भू-आकृतिक कारक

  • पृथ्वी के बहिर्जनिक तत्व जो धरातल के पदार्थों का परिवहन कर सकते हैं, उन्हें ही भू-आकृतिक कारक कहा जाता है। ये तत्व ढाल प्रवणता के फलस्वरूप गतिशील हो जाने के कारण पदार्थों को ढाल के सहारे ले जाकर इनका निक्षेपण निचले भागों में कर देते हैं।
  • यह प्रक्रिया एक बल है, जिसके प्रभावी होने का कारण है भूतल के पदार्थों का साथ में अनुप्रयुक्त होना। यह एक गतिशील माध्यम है, जिसमें हवा, बहता जल, धाराएं आदि शामिल हैं। ये तत्व भूतल के पदार्थों का निक्षेपण और अपरदन करते हैं, इसलिए इन गतिशील माध्यमों को भू-आकृति का कारक कहते हैं।
  • गरुत्वाकर्षण धरातल के पदार्थों पर दबाव डालने के साथ ही ढाल के आधार पर गतिशील पदार्थों को दिशात्मक बल से सक्रीय करता है। वे धाराएं जिसे लहरें और ज्वार भाटा बनाते हैं, ये अप्रत्यक्ष गरुत्वाकर्षण प्रतिबल से क्रियाशील होते हैं। गतिशीलता गरुत्वाकर्षण और ढाल प्रवणता के बिना संभव नहीं है।
  • गरुत्वाकर्षण बल के माध्यम से ही हम धरती के संपर्क में रह सकते हैं और यह भूतल के पदार्थों के संचलन की शुरुआत करता है। पृथ्वी की प्रवणता ही इसके आंतरिक और सतही संचलन का कारण है।

अन्तर्जनित प्रक्रियाएं

  • पृथ्वी के भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के लिए पृथ्वी की आंतरिक ऊर्जा बेहद महत्वपूर्ण है। इसकी आंतरिक ऊर्जा मुख्यतः रेडियोधर्मी एवं ज्वारिय घर्षण और पृथ्वी की उत्पत्ति से जुड़ी हुई ऊष्मा के द्वारा इसका निर्माण होता है।
  • ऊर्जा पटल विरूपण और ज्वालामुखीयता पर भूतापीय प्रवणता से मिलने वाली ऊर्जा और पृथ्वी से निकलने वाली ऊष्मा प्रवाह का प्रभाव पड़ता है।
  • अन्तर्जनित बलों की क्रियाएं भू-पपर्टी की मोटाई दृढ़ता की भिन्नता के कारण एक समान नहीं होती।

पटल विरूपण

  • भू-पपर्टी को संचलित, उत्थापित और निर्मित करने वाली प्रक्रियाओं को पटल विरूपण कहा जाता है। इसके अंतर्गत शामिल हैं-
    • 1) तीक्ष्ण विलियन से पर्वत निर्माण और भू-पपर्टी की संकीर्ण और लंबी पट्टियों को प्रभावित करने वाली प्रक्रियाएं।
    • 2) धरातल के विस्तृत भाग के उत्थान और विनाश में महाद्वीपीय रचना संबंधी प्रक्रियाएं।
    • 3) छोटे स्थानीय संचलन के फलस्वरूप उत्पन्न भूकंप।
    • 4) पपर्टी के क्षितिज चलन करने में प्लेट विवर्तनिकी की भूमिका।
  • महाद्वीपीय रचना महाद्वीप निर्माण की ही प्रक्रिया है, भू-पपर्टी में भ्रंश और विभंग का कारण महाद्वीपीय रचना, प्लेट विवर्तनिकी और भूकंप की प्रक्रियाएं हैं। महाद्वीपीय रचना के फलस्वरूप सामान्य विकृति हो सकती है।
  • इन सब के कारण ही दबाव, तापक्रम और आयतन में परिवर्तन होता है, जो शैलों के कायांतरण को प्रभावित करता है।

ज्वालामुखीयता

  • वे सभी पिघली हुई शैले या लावा जब धरातल की ओर गति करते हैं, तो इसके परिणाम स्वरूप ही कई आंतरिक और बाह्य ज्वालामुखी के स्वरूप निर्मित होते हैं, इसे ज्वालामुखीयता के नाम से जाना जाता है।
  • बहिर्जनिक प्रक्रियाएं– ये प्रक्रियाएं अपनी ऊर्जा को सूर्य से निर्धारित की गई अपनी वायुमंडलीय ऊर्जा और अन्तर्जनित शक्तियों द्वारा नियंत्रित विवर्तनिक कारकों से उत्पन्न हुई प्रवणता से प्राप्त करती हैं।
  • ढालयुक्त सतह वाले धरातल पर गरुत्वाकर्षण बल काम करता है और पदार्थों को ढाल की दिशा में गति देता है।
  • प्रतिबल का अर्थ है- प्रति इकाई क्षेत्र पर अनुप्रयुक्त बल। ठोस पदार्थों में इसका निर्माण धक्का देने और खिचाव से उत्पन्न होता है, जो विकृति को प्रभावित करता है। इसके द्वारा ही शैल और धरातल के पदार्थों का विखंडन होता है।
  • अपरूपण प्रतिबल- इसके कारण कोणीय विस्थापन या फिसलन आते हैं, इसकी सक्रियता धरातल के पदार्थों पर निर्भर करती है, इस बल के द्वारा शैल और धरातलीय पदार्थ विखंडित होते हैं।
  • इसके अलावा भूतल के पदार्थों को आणविक संचलन के प्रतिबल भी प्रभावित करते हैं।
  • रासायनिक प्रक्रिया कणों के मध्य संबंधों को ढीला करती है और विलय पदार्थों को घुलने योग्य बना देती है जो धरातल के पदार्थों के पिंड के अंतर्गत प्रतिबल का विकास अपक्षय, अपरदन और निरक्षण का महत्वपूर्ण कारण है।

अनाच्छादन

  • इसके अंतर्गत बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं। इसका अर्थ है- आवरण हटाना, निरावृत करना। इसमें अपरदन, अपक्षय, संचलन आदि शामिल किए जाते हैं। इसकी हर प्रक्रिया में एक अलग बल की जरूरत होती है।
  • एक से दूसरे अलग क्षेत्रों में बहिर्जनिक क्रियाएं अलग होती हैं। पृथ्वी की तापीय प्रवणता के कारण यहाँ विभिन्न जलवायु प्रदेश स्थित है।
  • वर्षण और तापमान जो भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को नियंत्रण में रखती है, के दो घटक हैं। वनस्पति के प्रकार और घनत्व, मुख्यतः तापक्रम और वर्षा पर निर्भर है और बहिर्जनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाओं को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं करते।

अनाच्छादित प्रक्रियाएं

1) प्रक्रिया 2) प्रेरक बल/ऊर्जा
अपक्षयगुरुत्वाकर्षण/आणविक दाब एवं रासायनिक क्रियाएं
वृहत संचलनगुरुत्वाकर्षण बल
अपरदन/परिवहनगतिज ऊर्जा

जलवायवीय कारक

  • जलवायवीय तत्व स्थानीय भिन्नता का प्रमुख कारण है, इसमें ऊंचाई में अंतर, दक्षिण के ढालों पर पूर्व और पश्चिम की अपेक्षा ज्यादा सूर्यताप प्राप्त होना सम्मिलित है।
  • वायु का वेग, वर्षण की मात्रा, प्रकृति और इसकी गहनता, हिमकरण और पिघलने की आवृति, वर्षण और वाष्पीकरण में संबंध, तापमान की दैनिक श्रेणी और तुषार व्यापन की गहराई में अंतर के परिणामस्वरूप ही भू-आकृतिक प्रक्रियाएं किसी भी जलवायु प्रदेश में भिन्न होती है।
  • बहिर्जनिक भू-आकृतिक के कार्यों की गहनता (यदि जलवायवीय कारक एक से हों तो) शैलों के प्रकारों और उनकी संरचना पर निर्भर होगी।
  • संरचना में रासायनिक संवेदनशीलता, परागम्यता या अपरागम्यता इत्यादि सम्मिलित होते हैं।

शैल

  • अपनी भिन्न संरचना के कारण शैल भू-आकृतिक प्रतिक्रियाओं के लिए कई प्रतिरोधी क्षमता रखती है। यदि एक शैल इस प्रक्रिया हेतु प्रतिरोध रहित है, तो दूसरी शैल प्रक्रिया के लिए प्रतिरोधपूर्ण होगी।
  • जलवायवीय दशाओं की भिन्नता के कारण एक शैल इन प्रतिक्रियाओं के लिए अलग-अलग तरह का प्रतिरोध दर्शाएगी।
  • इन शैलों का कार्य अलग दरों पर होता है, ये स्थलाकृति की भिन्नता का कारण भी बनती हैं। बहिर्जनिक भू-आकृतियों का प्रभाव ज्यादातर धीमा होता है, जो कुछ समय बाद अनवगम्य हो सकता है।
  • सतत श्रांति के कारण लंबे समय में यह शैलों को प्रेरित करती हैं जो बताता है कि धरातल भिन्नता मूल रूप से भू-पपर्टी के उद्भव से संबंधित है।

अपक्षय

  • धरातल के पदार्थों पर वायुमंडलीय तत्वों के द्वारा की गई क्रिया, अपक्षय कहलाती है। इसमें बेहद कम संचलन होता है। इसे स्वस्थाने एवं तदस्थाने प्रक्रिया कहते हैं। इनका प्रतिकूलन जटिल भौमिक, जलवायवीय, स्थलाकृतियों और वनस्पति कारकों द्वारा होता है।
  • सबसे महत्वपूर्ण इसमें जलवायु कारक है। इन प्रक्रियाओं के अतिरिक्त अपक्षय मैन्टल की गहराई एक जलवायु से दूसरी जलवायु में अलग होती है।

अपक्षय के प्रकार

  1. रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएं
  2. भौतिक अपक्षय प्रक्रियाएं
  3. जैविक कार्य एवं अपक्षय
  • रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएं– इसमें विलयन, कार्बोनेटीकरण, जलयोजन, ऑक्सीकरण और न्यूनीकरण नाम का समूह कार्य करता है। इनका काम शैलों का अपघटन, विलयन या न्यूनीकरण का होता है, जो रसायनिक प्रक्रिया द्वारा सूक्ष्म अवस्था में ढल जाती है।
  • चट्टानों का न्यूनीकरण धरातलीय जल, मृदा जल एवं अन्य अम्लों की प्रक्रिया से होता है। सभी रासायनिक प्रतिक्रियाओं को गति प्रदान करने के लिए इसमें ऊष्मा के साथ जल और वायु का विद्यमान होना आवश्यक है।
  • वायु में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड के अलावा पौधों और पशुओं के अपघटन भूमि पर कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को बढ़ा देता है।
  • भौतिक अपक्षय प्रक्रियाएं– ये प्रक्रियाएं कुछ अनुप्रयुक्त बलों पर निर्भर हैं। ये इस प्रकार हैं-
    • 1) गुरुत्वाकर्षण बल, जिसमें अत्यधिक ऊपर भार, दबाव या अपरूपण प्रतिबल शामिल हैं।
    • 2) तापक्रम में परिवर्तन, क्रिस्टल रवों में वृद्धि तथा पशुओं के क्रियाकलाप के परिणाम से उत्पन्न विस्तारण बल।
    • 3) शुष्कन और आर्द्रन चक्रों से नियंत्रित जल का दबाव।
  • शैलों के विभंग का कारण बल धरातल और भिन्न धरातल पदार्थों के अंतर्गत अनुप्रयुक्त होना होता है।
  • प्रक्रियाओं में अधिकांश तापीय विस्तारण और दबाव के निर्मुक्त होने के कारण भौतिक अपक्षय होता है। इस तरह की प्रक्रियाएं लघु एवं मंद हो सकती हैं, लेकिन कई बार संकुचन और विस्तारण के चलते शैलों में बड़ी श्रांति के बाद ये शैलों में बड़ी हानि कर सकती हैं।
  • जैविक कार्य और अपक्षय– ये जीवों की वृद्धि और संचलन से उत्पन्न हुए भौतिक परिवर्तन और अपक्षय- वातावरण से खनिजों और आयन के स्थानांतरण में योगदान करते हैं। नवीन सतहों का निर्माण केंचुओं, दीमकों, चूहों और कृंतकों द्वारा खोदे गए बिलों वेजिंग से होता है। इससे रासायनिक प्रक्रिया के लिए सतह में नमी और वायु में वेधन से सहायता मिल जाती है।
  • मानव द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर भी भूतल के पदार्थों में जल, वायु और खनिजों के मिश्रण के साथ-साथ नए संपर्क साधने में सहायता मिल जाती है।
  • ह्यूमिक, कार्बनिक और अन्य अम्ल जैसे तत्वों के उत्पादन में पौधों और पशुओं के सड़ने के बाद सहायता मिलती है, जो कई तत्वों के सड़ने और घुलने को बढ़ावा देता है।

अपक्षय के विशेष प्रकार

  • आधार शैल या शैल के ऊपर एक घुमावदार चादरनुमा एक उत्खंडित या पत्रकन होता है, जो एक चिकनी गोल सतह का निर्माण करता है। ये अपशल्कन कहलाती है- यह घटना अभारितकरण तथा तापक्रम परिवर्तन द्वारा फैलाव और संकुचन के परिणाम रूप में होती है।
  • अभारितकरण या तापीय संकुचन के द्वारा अपशल्कित गुंबद तथा टॉर्स का निर्माण होता है।

अपक्षय का महत्व

  • अपक्षय की प्रक्रिया से शिलों का विघटन छोटे-छोटे टुकड़ों में हो जाता है। इससे मृदा के निर्माण और आवरण प्रस्तर का मार्ग प्रशस्त होता है, और ये वृहत संचलन और अपरदन के लिए भी उत्तरदायी है। जैव विविधता वनों की देन है और वन की निर्भरता अपक्षयी प्रवाह पर है।
  • शैलों का अपरदन न होने पर अपरदन का कोई महत्व नहीं रह जाता, जो दर्शाता है कि अपक्षय वृहत क्षरण, उच्चावच और अपरदन के निम्नीकरण में सहायक है।
  • राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए भी शैलों का अपक्षय और निक्षेपण महत्वपूर्ण है। इसके निक्षेपण से लोहा, मैंगनीज, तांबे का संकेन्द्रण होता है।

वृहत संचलन

  • इसके अंतर्गत वे सभी संचलन आते हैं, जो गुरुत्वाकर्षण से प्रेरित होकर ढालों के सहारे शैलों के मलबे का स्थानांतरण होता है। इसमें न सिर्फ जल, वायु, हिम का प्रवाह मलबे के साथ होता है, बल्कि मलबा अपने साथ जल, वायु आदि को बहा ले जाता है।
  • इस संचलन की गति धीमी से तेज हो जाती है, जिसके कारण पदार्थों के स्तम्भ भी प्रभावित होते हैं। इसमें स्खलन, बहाव और पतन को शामिल किया जाता है। अपक्षय से बने पदार्थों पर गुरुत्वाकर्षण बल का प्रभाव होता है। वृहत संचलन के लिए अपक्षय जरूरी नहीं, लेकिन इससे इसे बढ़ावा मिलता है।
  • वृहत संचलन अपक्षयित ढालों पर अधिक सक्रिय होती है। गुरुत्वाकर्षण बल वृहत संचलन में सहायता करता है, इसमें कोई भी भू-आकृतिक कारक जैसे- वायु, जल, हिमानी, धारा आदि शामिल नहीं होते, जो यह दर्शाता है कि वृहत संचलन का संबंध अपरदन से नहीं है और पदार्थों के संचलन में गुरुत्वाकर्षण की अहम भूमिका है।
  • वृहत संचलन में सहायता के लिए असंबंद्ध कमजोर पदार्थ, भ्रंश, खड़े भृंगु या तीव्र ढाल, मूसलाधार बारिश आदि पर्याप्त है।

भूस्खलन

  • ये वृहत संचलन की तुलना में अधिक तीव्र संचलन है। इसमें फिसलने वाले पदार्थ शुष्क होते हैं। इसके असंलग्न वृहत की आकृति, अनिरंतरता की प्रकृति और ढाल की निरन्तरता पर भी निर्भर होता है। सामान्यतः पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन होते हैं। भूस्खलन के प्रकार-
    • ढाल– अवसर्पण का अर्थ है, जब मलबे की कई इकाइयां पश्च-आवर्तन से फिसलती है।
    • मलबा स्खलन– मालवा का पृथ्वी के पिंड के पश्च आवर्तन के बिना स्खलन होना, मलबा स्खलन कहलाता है।
    • शैल स्खलन– इससे अभिप्राय भ्रंश के नीचे पृथक शैल वृहत के स्खलन को शैल स्खलन कहते हैं। ये बहुत तीव्र और विनाशक होती हैं।
    • शैल पतन- जब शैल खंड ढाल से दूरी रखकर तीव्र गति और स्वतंत्र रूप से गिरता है, उसे शैल पतन कहते हैं।

अपरदन और निक्षेपण

  • अपरदन– इसके अंतर्गत शैल के मलबे की अवाप्ति और परिवहन को रखा जाता है। अन्य क्रियाओं के बाद पिंडाकार की शैलें टुकड़ों में बंट जाती हैं, तो अपरदन के कारक- हिमानी, वायु, भौम जल, लहरों को स्थानांतरित किया जाता है।
  • यह गति इन कारकों के गत्यात्मक रूप पर आधारित है। चट्टानी मलबे का अपघर्षण भी अपरदन में जरूरी है, अपरदन से उच्चावच निम्न हो जाता है। अपरदन निम्नीकरण की प्रक्रियाओं में क्षरण, अपक्षय और अपरदन आते हैं।
  • अपरदन और वृहत संचलन में अंतर है, अपरदन से भूतल में अनवरत बदलाव होते हैं, वहीं वृहत संचलन से सूखा और आर्द्र दोनों तरह का मलबा गुरुत्वाकर्षण बल के कारण स्वयं ही भूतल पर आ जाता है।
  • भूमिगत जल द्वारा ही भूतल के पदार्थों वायु, हिमानी, लहरों और प्रवाहशील जल आदि का अपरदन और परिवहन होता है। पदार्थों की तीन अवस्थाओं ठोस, द्रव्य तथा गैस के प्रतिनिधि हैं।
  • इसके दो अन्य कारकों धाराओं और भूमिगत जल का काम जलवायु नियंत्रित नहीं कर सकती। लहरों का काम थल और जलमंडल के अंतरापृष्ठ-तटीय प्रदेशों में है, वहीं भूमिगत जल का यह काम किसी क्षेत्र की आशमिक विशेषताओं से निर्धारित होता है।
  • निक्षेपण– ढाल में कमी के कारण अपरदन के कारकों के वेग में कमी आने के परिणामस्वरूप अवसादों का निक्षेपण होना शुरू हो जाता है। अपरदन का परिणाम ही निक्षेपण है। निक्षेपण किसी कारक का काम नहीं है।
  • इसमें पहले बड़े फिर छोटे पदार्थ निक्षेपित होते हैं। जिसके कारण छोटे भू-भाग भर जाते हैं और हिमानी, वायु, लहरें, भूमिगत जल आदि सभी कारक निक्षेपण के कार्य में लग जाते हैं।

मृदा निर्माण

  • धरातल पर मृदा प्राकृतिक तत्वों का समुच्चय है, जिसमें जीवित एवं मृत सभी प्रकार के तत्व सम्मिलित हैं। यह एक गत्यात्मक माध्यम है, जिसमें रासायनिक, जैविक आदि क्रियाएं होती रहती हैं। यह अपक्षय का परिणाम है और वृद्धि में सहायक है, यह विकसोन्मुख तत्व है।
  • मौसम के साथ इसकी विशेषताएं बदलती रहती हैं। यह ठंडी, गरम, शुष्क और आर्द्र हो सकती है।

मृदा निर्माण की प्रक्रिया

  • यह प्रक्रिया अपक्षय पर निर्भर करती है, अपक्षयी पदार्थ की गहराई ही मृदा निर्माण के मूल में काम करती है। अपक्षयी प्रवाह, लाईकेन, बैक्टीरिया जैसे निकृष्ट पौधों से उपनिवेशित होते हैं। ह्यूमस के एकीकरण के लिए जीव और पौधों के मृत अवशेष सहायक होते हैं।
  • पदार्थों के पुंज छिद्रमय और स्पंज की तरह काम करें इसके लिए पौधों की जड़ों का भूमि के अंदर जाना और बिल बनाने वाले जानवरों का कणों को सतह पर लाना सहायता प्रदान करता है, जो मृदा में पानी सोखने और वायु के प्रवेश की क्षमता और भी अधिक बढ़ा देता है। जिससे परिपक्व मृदा का निर्माण होता है।

मृदा निर्माण के कारक

  • मूल पदार्थ/शैल- मूल शैल मृदा के निर्माण में निष्क्रिय नियंत्रण कारक की भूमिका निभाता है। मृदा के निर्माण में संरचना, शैल निक्षेप के खनिज, गठन आदि महत्वपूर्ण हैं। अपक्षय की प्रकृति, दर के साथ-साथ आवरण की गहराई और मोटाई के प्रमुख तत्व मूल पदार्थ में होते हैं।
  • कई बार असमान आधार की शैलों पर एक जैसी मृदा मिल सकती है और कभी-कभी एक ही आधार पर भी भिन्न मृदाएं हो सकती हैं।
  • अपरिपक्व और नई मृदा का संबंध मूल शैल के साथ घनिष्ठ होता है।
  • स्थलाकृति/उच्चावच– यह इसका दूसरा नियंत्रक कारक है, स्थलाकृतियों के मूल पदार्थों के आच्छादन को सूर्य की किरणें प्रभावित करतीं हैं। मृदा की परत तीव्र ढालों पर पतली और उच्च तथा सीधी जगहों पर यह परत मोटी होती है। मृदा निर्माण के लिए जल का परिश्रवण अच्छा होना और अपरदन मंद होना अनुकूल रहता है। चिकनी मृदा का विकास मोठे स्तर पर सपाट और समतल क्षेत्रों में होता है।
  • जैविक क्रियाएं– मूल पदार्थों में जीव और वनस्पति आवरण हमेशा ही अवस्थित रहते हैं। इनसे मृदा को नमी, नाइट्रोजन को धारण करने की क्षमता में सहायता और यह जैव पदार्थों की उपस्थिति के लिए भी सहायक हैं। इसकी नमी के लिए मृत पौधे और सूक्ष्म जीवों की भूमिका अहम है।
  • ह्यूमस बनने की अवधि में निर्मित जैविक अम्ल, इसके मूल पदार्थों के खनिजों का विनियोजन करने के लिए सहायता करते हैं। ठंडी और गरम जलवायु की मृदा में पाए जाने वाली भिन्नता से सूक्ष्म जीवों की गहनता का पता चलता है। ठंडी जलवायु बैक्टीरियल वृद्धि को कम कर देती है, जो ह्यूमस को बढ़ा देता है।
  • मृदा में रहने वाले बैक्टीरिया हवा से प्राप्त नाइट्रोजन को रसायन में बदल देते हैं, जिसे पौधे अपने उपयोग में लाते हैं, इसे नाइट्रोजन निर्धारण प्रक्रिया कहा जाता है।
  • कालावधि– यह तीसरा महत्वपूर्ण कारक है, मृदा की परिपक्वता का निर्धारण इसके विकास में लगने वाले समय के आधार पर होता है।
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