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Class 11 Geography Book-1 Ch-3 “पृथ्वी की आंतरिक संरचना” Notes In Hindi

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Navya Aggarwal
Last Updated on

इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 11वीं कक्षा की भूगोल की पुस्तक-1 यानी भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत” के अध्याय-3 पृथ्वी की आंतरिक संरचना के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 3 भूगोल के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।

Class 11 Geography Book-1 Chapter-3 Notes In Hindi

आप ऑनलाइन और ऑफलाइन दो ही तरह से ये नोट्स फ्री में पढ़ सकते हैं। ऑनलाइन पढ़ने के लिए इस पेज पर बने रहें और ऑफलाइन पढ़ने के लिए पीडीएफ डाउनलोड करें। एक लिंक पर क्लिक कर आसानी से नोट्स की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं। परीक्षा की तैयारी के लिए ये नोट्स बेहद लाभकारी हैं। छात्र अब कम समय में अधिक तैयारी कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही आप नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करेंगे, यह अध्याय पीडीएफ के तौर पर भी डाउनलोड हो जाएगा।

अध्याय- 3 “पृथ्वी की आंतरिक संरचना”

बोर्डसीबीएसई (CBSE)
पुस्तक स्रोतएनसीईआरटी (NCERT)
कक्षाग्यारहवीं (11वीं)
विषयभूगोल
पाठ्यपुस्तकभौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत
अध्याय नंबरतीन (3)
अध्याय का नामपृथ्वी की आंतरिक संरचना
केटेगरीनोट्स
भाषाहिंदी
माध्यम व प्रारूपऑनलाइन (लेख)
ऑफलाइन (पीडीएफ)
कक्षा- 11वीं
विषय- भूगोल
पुस्तक- भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत
अध्याय-3 “पृथ्वी की आंतरिक संरचना”

मानव जीवन अपने आस-पास की भू-आकृति से प्रभावित रहता है। इसके धरातल का विन्यास भी, पृथ्वी के भू-गर्भ में होने वाली हलचल का ही परिणाम है। इन आंतरिक और बाह्य प्रक्रियाओं ने लगातार भू-दृश्य को आकार दिया है।

भू-गर्भ की जानकारी के साधन

  • पृथ्वी की आंतरिक परिस्थितियों ने किसी का भी उसके केंद्र में जाकर निरीक्षण करना नामुमकिन बना दिया है, लेकिन इसके बाद भी कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त की जा चुकी हैं, जो प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में मौजूद हैं।
  • प्रत्यक्ष स्त्रोत– इसके अंतर्गत प्रत्यक्ष एवं आसानी से उपलब्ध चट्टानें व खनन से मिली चट्टानें होती हैं। दक्षिण-अफ्रीका की सोने की खाने 3 से 4 कि.मी. गहरी हैं। इससे अधिक गहराई में जा पाना संभव नहीं, जैसे-जैसे पृथ्वी की गहराई में जाने का प्रयास किया जाता है, तापमान बढ़ता चल जाता है।
  • इसके लिए वैज्ञानिकों ने इन दो परियोजनाओं का चलाया है, ताकि पृथ्वी की आंतरिक स्थिति की जानकारी मिल सके। 1) गहरे समुद्र में प्रवेधन परियोजना और 2) समन्वित महासागरीय प्रवेधन परियोजना।
  • प्रत्यक्ष जानकारी में ज्वालामुखी भी एक प्रमुख स्त्रोत है। ज्वालामुखी का लावा धरातल पर आने के बाद, प्रयोगशाला में निरीक्षण के लिए उपलब्ध होता है।
  • हालाँकि यह जान पाना कठिन होता है कि यह मैग्मा पृथ्वी की कितनी गहराई से निकला है।
  • अप्रत्यक्ष स्त्रोत– पृथ्वी की गहराइयों से प्राप्त पदार्थों के विश्लेषण के माध्यम से पृथ्वी की आंतरिक जानकारियाँ अप्रत्यक्ष रूप से मिल पाती है। पृथ्वी की आंतरिक गहराई बढ़ने से तापमान, दबाव और पदार्थ का घनत्व भी बढ़ता है, इससे पदार्थों में हुए इस परिवर्तन द्वारा इन परिवर्तनों की दर का अनुमान लगाया जा सकता है।
  • वे उल्काएं जो पृथ्वी के धरातल पर पहुँचती हैं, उनसे पृथ्वी की आंतरिक जानकारियाँ अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होती हैं। उल्काएं उन पदार्थों का ही ठोस रूप है, जिनसे पृथ्वी का निर्माण हुआ है, इसलिए इनकी संरचना पृथ्वी से मिलती-जुलती है।
  • इसके अलावा भूकंपीय क्रियाएं, चुंबकीय क्षेत्र और गुरुत्वाकर्षण यह सभी पृथ्वी की आंतरिक जानकारियाँ प्राप्त करने में सहायक है।
  • पृथ्वी के विभन्न अक्षांशों पर गुरुत्वाकर्षण बल एक समान नहीं होता, इस भिन्नता को ही गुरुत्व विसंगति कहा जाता है।

भूकंप

  • भूकंप का साधारण अर्थ है, भूमि में कंपन, यह एक प्राकृतिक घटना है। इससे पृथ्वी की विभिन्न दिशाओं में ऊर्जा का निष्कासन तरंग के रूप में होता है। ऊर्जा का निष्कासन पृथ्वी में हमेशा ही भ्रंश के किनारों से होता है। यह मुक्त होने वाली ऊर्जा ही तरंग रूप में चारों दिशाओं में निकलती है।
  • भूकंप के समय जहां से मुख्य रूप से ऊर्जा निकलती है, उसे उद्गम केंद्र अथवा अवकेन्द्र भी कहा जाता है।
  • वह स्थान जहां तरंगें सबसे पहले गति करती है, अधिकेन्द्र कहलाता है, यहीं पर भूकंप की इन तरंगों को सबसे पहले महसूस किया जाता है।
  • सिस्मोग्राफ भूकंप की इन तरंगों को मापता है। आंतरिक संरचना के अध्ययन के संबंध में भूकंप की तरंगों का अध्ययन भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

भूकंपीय तरंगे-

  • प्राकृतिक भूकंप स्थलमण्डल में ही आते हैं, सिस्मोग्राफ यंत्र का प्रयोग पृथ्वी की सतह तक पहुँचने वाली तरंगों को रिकार्ड करने के लिए किया जाता है। यह तरंगे दो प्रकार की होती हैं-
    • भू-गर्भिक तरंगे– ये तरंगे तब उत्पन्न होती हैं जब ऊर्जा उद्गम केंद्र से निकलती है। यह पृथ्वी के आंतरिक भागों से होकर गुजरती है। इसके भी दो प्रकार हैं-
      1. ‘P’ तरंगे- ये तीव्र गति से चलती हैं, धरातल पर सबसे पहले पहुँचती हैं। इन्हें प्राथमिक तरंगे भी कहा जाता है।
      2. ‘S’ तरंगे- ये P तरंगों के बाद धरातल पर पहुँचती हैं, इन्हें द्वितीय तरंगे भी कहा जाता है। ऐसी तरंगे परावर्तन से टकराने पर वापस लौट जाती हैं, बल्कि आवर्तन से टकराने पर दिशाओं में फैल जाती है।
    • धरातलीय तरंगे- ये तरंगे शैलों और भू-गर्भिक तरंगों के बीच क्रिया के परिणामस्वरूप नई तरंगों का निर्माण करती हैं। इनका वेग विभिन्न पदार्थों में भी भिन्न होता है। ये तरंगे ज्यादा विनाशकारी होती हैं, जिससे इमारतें आदि भी गिर जाती हैं।

भूकंपीय तरंगों का संचरण

  • भिन्न तरंगों से संचारित होने के कारण इसकी प्रणाली भी भिन्न ही होती है, इसके संचारन के साथ ही शैलों में कंपन होता है।‘P’ तरंगों से कंपन की दिशा भी तरंगों के समान ही होती है। ये कंपन की दिशा में आने वाले पदार्थों पर दबाव डालती है। जिसके कारण शैलों में संकुचन अथवा फैलाव होता है।
  • ‘S’ तरंगे सीधी खड़ी दिशा में समकोण कंपन पैदा करती है। यह जिस पदार्थ से भी होकर गुजरती है, उसमें उभार या खड्डा बना देती है।

छाया क्षेत्र का उद्भव

  • ये ऐसे क्षेत्र होते हैं जहां सिस्मोग्राफ द्वारा भूकंप की तरंगे अभिलेखित नहीं होती हैं, इन्हें भूकंपीय छाया क्षेत्र कहा जाता है। एक भूकंपीय छाया क्षेत्र दूसरे भूकंपीय छाया क्षेत्र से अलग होते हैं।
  • सिस्मोग्राफ द्वारा भूकंप अभिलेखित किया जाने के बाद, भूकंपीय छाया क्षेत्र ज्ञात होता है। इस प्रकार से भूकंपीय तरंगे छाया क्षेत्र का निर्माण करती हैं- सामान्यतः ऐसा पाया गया है कि ‘P’ और ‘S’ तरंगों का अभिलेखन भूकम्पलेखी द्वारा अधिकेन्द्र से लेकर सिर्फ 105 डिग्री के भीतर की किसी दूरी पर किया जाता है।
  • अधिकेन्द्र से 145 डिग्री की दूरी पर सिर्फ ‘P’ तरंगों को ही दर्ज किया जाता है, ‘S’ तरंगों को नहीं।
  • वैज्ञानिकों ने 105 डिग्री और 145 डिग्री के बीच के क्षेत्र को ही छाया क्षेत्र कहा है, क्योंकि ‘S’ तरंगे 105 डिग्री से दूर के क्षेत्र में नहीं जा पाती।
  • ‘S’ तरंगों का छाया क्षेत्र विस्तार में बड़ा है और पृथ्वी के 40% भाग से भी अधिक है। भूकंप का अधिकेन्द्र पता होने पर इसका छाया क्षेत्र पता किया जा सकता है।

भूकंप के प्रकार

  • विवर्तनिक भूकंप– सामान्य तौर पर इस तरह के भूकंप ही अधिक आते हैं। भ्रंशतल के किनारे चट्टानों के सरक जाने के कारण इस तरह के भूकंप आते हैं।
  • ज्वालामुखीय भूकंंप– ज्वालामुखीय भूकंंप एक विशिष्ट प्रकार के विवर्तनिक भूकंप को कहा जाता है, इस तरह के भूकंप अधिकतर ज्वालामुखी क्षेत्रों तक ही सीमित रह जाते हैं।
  • नियात भूकंप– खनन क्षेत्रों में यदि अधिक खनन कार्य किया जाए तो इससे भूमिगत खानों की छत ढह जाती है, इसके कारण महसूस किए गए झटकों को ही नियात भूकंप कहा जाता है।
  • विस्फोट भूकंप– परमाणु अथवा रासायनिक विस्फोट के चलते भी भूमि में कंपन पैदा होती है, इसे ही विस्फोट भूकंप कहा जाता है।
  • बांधजनित भूकंप– बड़े बांधों वाले क्षेत्रों में आने वाले भूकंप को बांधजनित भूकंप कहा गया है।

भूकंप की माप

  • भूकंपीय घटनाओं को मापने के लिए इसकी तीव्रता और आघात तीव्रता को देखा जाता है। भूकंपीय तीव्रता का मापन ‘रिक्टर स्केल’ पर किया जाता है। इसकी तीव्रता भूकंप के दौरान मुक्त हुई ऊर्जा से संबंधित है।
  • मापनी भूकंप की तीव्रता को 0 से 10 के बीच मापती है, आघात को मापने के लिए इटली के एक वैज्ञानिक मरकैली द्वारा निर्मित किए ‘मरकैली स्केल’ पर इसकी गहनता 1 से 12 के बीच मापी जाती है।

भूकंप के प्रभाव

  • यह एक प्राकृतिक आपदा है, जिसका प्रकृति पर सीधा प्रभाव होता है, ये प्रभाव हैं-
    • इमारतों का टूटना, ढांचों का ध्वस्त हो जाना
    • हिमस्खलन
    • भूमि का हिलना
    • भू-स्खलन
    • धरातलीय विसंगति
    • आग लगना
    • वस्तुओं का गिरना
    • बांध या तटबंध टूटने के कारण बाढ़ आना
    • सुनामी
  • इन प्रभावों में कुछ प्रभाव स्थल रूप में देखे जा सकते हैं, बल्कि अन्य को उस क्षेत्र में हुई हानि के आधार पर ही समझा जा सकता है।
  • भूकंप के फलस्वरूप सुनामी तभी आ सकती है जब, भूकंप का अधिकेन्द्र समुद्री अधस्थल पर हो, और यहाँ पर भूकंप की तीव्रता बहुत अधिक हो।
  • ‘सुनामी’ भूकंप नहीं है, यह भूकंपीय तरंगों से उत्पन्न लहरें हैं। मूल रूप से भूकंप की प्रक्रिया कुछ क्षण की होती है, लेकिन यदि रिक्टर स्केल पर इसका मापन 5 से अधिक है, तो यह विनाशकारी सिद्ध हो सकता है।

भूमि की आवृति

  • भूकंप के फलस्वरूप भारी मात्रा में जन-धन की हानि होती है, लेकिन ऐसा जरूरी नहीं कि विश्व के सभी भागों में भूकंप के तेज झटके ही आएं, तेज झटके सिर्फ भ्रंश के पास वाले क्षेत्रों में ही महसूस किए जाते हैं।
  • ऐसा देखा गया है कि रिक्टर स्केल पर 8 से अधिकता वाले भूकंप की संभावना कम रहती है, जो 1 से 2 वर्षों में एक बार ही देखे जा सकते हैं। और विश्व में लगभग हर मिनट हल्के भूकंप आते रहते हैं।

पृथ्वी की संरचना

  • भू-पपर्टी– यह पृथ्वी का सबसे बाहरी भाग है, इसकी मिट्टी की प्रवृति भंगुर होती है। महाद्वीपों और महासागरों में इसकी मोटाई अलग होती है, महाद्वीपों के मुकाबले महासागरों में इसकी मोटाई कम है। पर्वतीय क्षेत्रों में यह मोटाई महाद्वीपों से भी अधिक है। हिमालय पर्वत क्षेत्रों में इसकी मोटाई 70 कि.मी. तक है।
  • मैटल– भू-पपर्टी के नीचे का भाग मैटल कहलाता है। यह 2,900 कि.मी. की गहराई तक होता है। इसके ऊपरी भाग को दुर्बलता मंडल कहा जाता है, जो 400 कि.मी. तक फैला होता है। ज्वालामुखी फटने के बाद धरती पर आने वाले लावा का मुख्य स्त्रोत दुर्बलता मण्डल होता है। भू-पपर्टी और मैटल का ऊपरी भाग ही स्थल मण्डल कहलाता है, जो 10 से 200 कि.मी. तक मोटा होता है।
  • क्रोड– भूकंपीय तरंगों से ज्ञात होता है कि पृथ्वी के केंद्र में गोलाकार क्रोड है। मैटल और क्रोड की सीमा 2,900 कि.मी. की गहराई तक होती है। बाह्य क्रोड तरल और आंतरिक क्रोड ठोस होती है। क्रोड में मौजूद भारी पदार्थों को ‘निफ़े’ परत के नाम से जाना जाता है।

ज्वालामुखी व ज्वालामुखी स्थलरूप

  • ज्वालामुखी वह स्थान है, जहां से गैस, तरल चट्टानी पदार्थ, लावा, राख आदि धरातल पर पहुंचता है। तरल चट्टानी पदार्थ दुर्बलता मण्डल से निकलता है। मैटल के ऊपरी भाग में पहुँचकर यह पदार्थ मैग्मा होता है, जैसे ही यह धरातल पर पहुंचता है, यह लावा कहलाता है।
  • ज्वालामुखी के लावा प्रवाह में लावा के जमे हुए टुकड़ों का मलबा, राख, बम, विभिन्न गैसे जिसमें- नाइट्रोजन योगिक, क्लोरीन, हाईड्रोजन व आर्गन, सल्फर योगिक शामिल है।

ज्वालामुखी के प्रकार

  • शील्ड ज्वालामुखी– सभी शील्ड ज्वालामुखी सबसे विशाल ज्वालामुखी होते हैं, ये बेसाल्ट से निर्मित होते हैं, ये ठंडे लावा से बनते हैं। लावा बाहर आते समय बेहद तरल होता है, जिसके कारण इसका ढाल अधिक तीव्र नहीं हो पाता। निकास नलिका में यदि पानी चला जाए तो, इनमें विस्फोट भी हो जाता है। सामान्यतः ये ज्वालामुखी विस्फोट न होने के लिए जाने जाते हैं, लेकिन यदि हो जाए तो लावा फव्वारे के रूप में बाहर आता है जिससे शंकु का निर्माण होता है, इसे सिंडर शंकु कहा जाता है।
  • मिश्रित ज्वालामुखी– इनमें से बेसाल्ट की अपेक्षा ठंडा लावा निकलता है, इनमें अमूमन विस्फोट होता है। इसमें से लावा के साथ ज्वालखंडाश्मि पदार्थ और राख निकलती है। ये सभी पदार्थ ज्वालमुखी के पास एकत्रित होकर मिश्रित ज्वालामुखी का निर्माण करते हैं।
  • ज्वालामुखी कुंड– ये सबसे अधिक विस्फोटक ज्वालामुखी में से हैं, इनमें जब विस्फोट होता है, तो ये नीचे धंस जाते हैं। ये धँसे हुए ज्वालामुखी कुंड बन जाते हैं। इनमें होने वाला विस्फोट बताता है कि इनका मैग्मा का भंडार बेहद विशाल भी है और पास भी।
  • बेसाल्ट प्रवाह क्षेत्र– इनसे निकलने वाला लावा बेहद तरल होता है, जो बेहद दूर तक बह जाता है। कभी-कभी इसका प्रवाह 50 मी. से लेकर कई सैकड़ों मीटर तक फैल जाता है। भारत का दक्कन ट्रैप का क्षेत्र वृहत बेसाल्ट लावा क्षेत्र है।
  • मध्य महासगरीय कटक ज्वालामुखी– इनका उद्गार मुख्यतः महासागरों में पाया जाता है। मध्य महासागरीय कटक शृंखला जो महासागरीय बेसिनों में फैली है, जो 70,000 कि.मी. से भी अधिक लंबी है। इसमें लगातार उद्गार होता रहता है।

ज्वालामुखी स्थलाकृतियाँ

अंतर्वेधी आकृतियाँ

  • ज्वालामुखी से लावा बाहर निकलने और ठंडा होने से आग्नेय शैलें बनती हैं। लावा का यह जमाव या तो ज्वालामुखी के अंदर या बाहर कहीं भी हो सकता है। लावा ठंडा होने के स्थान के आधार पर इसे दो भागों में विभाजित किया गया है- ज्वालामुखी शैल और पातालीय शैल।
  • भूपटल पर ही लावा के ठंडे हो जाने के कारण कुछ आकृतियाँ निर्मित होती हैं, इन्हें अंतर्वेधी आकृतियाँ कहा जाता है।

बैथोलिथ

  • मैग्मा का बड़ा हिस्सा यदि भूपपर्टी की गहराई में ही अधिक ठंडा हो जाए, तो यहां एक गुंबद का आकार बन जाता है। इसका ऊपरी पदार्थ हट जाने के बाद ये धरातल पर दिखने लगते हैं। ये मैग्मा भंडारों का ही जमा हुआ भाग है, जो ग्रेनाइट से बने हुए पिंड होते हैं।
  • इनका फैलाव काफी विस्तृत होता है और ये कई किलोमीटर की दूरी तक फैले होते हैं।

लैकोलिथ

  • ये अंतर्वेधी चट्टानें हैं जो तल से एक पाइपनुमा आकृति से जुड़ी होती है। धरातल पर पाए जाने वाले मिश्रित ज्वालामुखी के समान ही इनकी आकृति होती है, लेकिन ये लैकोलिथ गहराई में पाए जाते हैं।

लैपोलिथ, फैकोलिथ व सिल

  • जब ऊपर उठते लावा का कुछ हिस्सा धरातल के कमजोर भाग में जाकर जमा हो जाता है, तो इसकी अलग-अलग आकृतियाँ बनती हैं, इसे ही लैपोलिथ कहा जाता है।
  • अपनाति के ऊपर और अभिनति के नीचे लावा का जमाव हो जाता है, ये चट्टानें नाली से मैग्मा से जुड़ी होती हैं, इसे ही फैकोलिथ कहा जाता है।
  • जो अंतर्वेधी चट्टानें तल में एक शीट के रूप में ठंडी हो जाती हैं, उन्हें सिल कहा जाता है। ज्यादा अधिक मोटाई होने पर इसे सिल और कम मोटाई होने पर शीट की संज्ञा दी जाती है।

डाइक

  • लावा का प्रवाह दरारों से होता हुआ जब धरातल के समकोण होकर ठंडा हो जाता है, तो जो दीवार जैसे संरचना का निर्माण होता है, उसे डाइक कहते हैं। पश्चिम महाराष्ट्र में अंतर्वेधी चट्टानों में ये आकर्तियाँ पाई जाती हैं।
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