इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 11वीं कक्षा की भूगोल की पुस्तक-1 यानी “भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत” के अध्याय-6 “भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 6 भूगोल के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 11 Geography Book-1 Chapter-6 Notes In Hindi
आप ऑनलाइन और ऑफलाइन दो ही तरह से ये नोट्स फ्री में पढ़ सकते हैं। ऑनलाइन पढ़ने के लिए इस पेज पर बने रहें और ऑफलाइन पढ़ने के लिए पीडीएफ डाउनलोड करें। एक लिंक पर क्लिक कर आसानी से नोट्स की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं। परीक्षा की तैयारी के लिए ये नोट्स बेहद लाभकारी हैं। छात्र अब कम समय में अधिक तैयारी कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही आप नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करेंगे, यह अध्याय पीडीएफ के तौर पर भी डाउनलोड हो जाएगा।
अध्याय- 6 “भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास”
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | ग्यारहवीं (11वीं) |
विषय | भूगोल |
पाठ्यपुस्तक | भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत |
अध्याय नंबर | छः (6) |
अध्याय का नाम | “भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास” |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 11वीं
विषय- भूगोल
पुस्तक- भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत
अध्याय- 6 “भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास“
भू-आकृतियों का विकास
- भूमि के छोटे टुकड़े को भू-आकृति कहते हैं, ये सभी भू-आकृतियाँ जुड़कर भू-दृश्य का निर्माण करती हैं। यह भूतल का विस्तृत भाग है।
- हर भू-आकृति भौतिक आकृति और पदार्थ होते हैं, जिन्हें भू-प्रक्रियाओं और उनके कारकों द्वारा बनाया जाता है। कई भू-आकृतियाँ कार्य करने में धीमी होने के फलस्वरूप, अपना आकार लंबी अवधि में प्राप्त कर पाती हैं।
- भू-आकृतिक प्रक्रियाएं क्षैतिज संचलन और जलवायु संबंधी परिवर्तनों के कारण या तो स्वयं या गहनता के कारण रूपांतरित हो जाती हैं।
- अपक्षय की प्रक्रियाएं भू-पपर्टी का निर्माण करने वाले पदार्थों का अपघटन कर देती हैं।
- पृथ्वी की सतह के किसी एक भाग में जब कोई एक भू-आकृति दूसरी भू-आकृति में परिवर्तित होती है, तो यह भू-आकृति का विकास कहलाता है।
प्रवाहित जल और उसका विकास
- आर्द्र स्थानों पर भू-आकृतिक कारक के रूप में प्रवाहित जल महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, प्रवाहित जल अत्यधिक वर्षा के परिणामस्वरूप भूमि का निम्नीकरण होता है।
- बहता हुआ जल अमूमन स्थलों पर प्रवाहित नदियों के रूप में होता है, जो नदियों की युवावस्था को दर्शाता है।
- तेज ढाल लगातार अपरदन के कारण धीमा पड़ जाता है, जिससे नदियों का प्रवाह कम हो जाता है।
- जल के ढाल की गति निक्षेपण को निर्धारित करती है, ढाल जितना कम होगा, निक्षेपण उतना ही अधिक होगा।
- स्थलगत प्रवाह- इससे परत अपरदन होता है। नियमित भूमि न होने के कारण यह भिन्न आकृति के मार्गों पर होता है।
- छोटी और तंग क्षुद्र सरिताओं का निर्माण प्रवाहित जल के संघर्षण से अनिश्चित मात्रा में बहा कर लाए गए छोटे तलछटों के कारण होता है।
- समतल उच्चावच कुछ स्थानों पर अवरोधी चट्टानें लिए होता है, इन्हें मोनाडनोक कहा जाता है। नदियों के अपरदन के परिणामस्वरूप ये बनते हैं, इन्हें पेनीप्लेन कहते हैं।
प्रवाहित जल की अवस्थाएं
- युवावस्था– इस अवस्था की नदियां बेहद कम पाई जाती हैं। इनसे उथली ‘V’ आकार की घाटियों का निर्माण होता है जिनमें बाढ़ के मैदान नहीं होते।
- ऐसे ऊंचे सपाट धरातलों पर नदी विसर्प बनते हैं। ये विसर्प भूमि में कटाव करते हुए गहराई में बढ़ने लगते हैं। रास्ते में कठोर पत्थर या चट्टानें मिलने पर ये वहां क्षिप्रिकाओं (जलप्रपात) का निर्माण करते हैं।
- प्रौढ़ावस्था– इस समय में सहायक नदियों के साथ जुड़ जाने के कारण नदियों में जल की मात्रा बढ़ने लगती है, अब नदियां ‘V’ आकार की गहरी घाटियों का निर्माण करती हैं।
- इस अवस्था में दलदली क्षेत्र खत्म हो जाते हैं, इसके साथ समतल और विस्तृत क्षेत्र भी लुप्त हो जाते हैं।
- वृद्धावस्था– इसमें सहायक नदियों की संख्या घट जाती है और ढाल मंद पड़ जाते हैं। अब नदियां विस्तृत रूप से स्वतंत्र होकर नदी विसर्प, गोखुर झीलों आदि का निर्माण करती हैं।
अपरदित स्थलरूप
- घाटियां– इनका निर्माण आरंभ में छोटी-छोटी सरिताऐं करती हैं, फिर ये छोटी सरिताऐं धीरे-धीरे विस्तृत अवनलिकाएं बन जाती हैं, समय के साथ ये विशाल हो जाती हैं।
- जलगर्तिक -पर्वतों में नदी तल में छोटे चट्टानी टुकड़े, गर्तों में फँसकर वृतकार रूप धारण कर घूमने लगते हैं इनसे जलगर्तिक का निर्माण होता है। कंकड़, पत्थर आदि के आ जाने से इन गर्तों का आकार बड़ा होने लगता है।
- अवनमित कुंड– जल के ऊंचाई से गिरने और उनमें छोटे कंकड़ों के वृताकार घूमने के कारण जल प्रपातों में बड़े जलगर्तिक का निर्माण होने लगता है, इन बड़े और गहरे कुंड को अवनमित कुंड कहा जाता है।
- अधःकर्तित विसर्प और गभीरीभूत विसर्प– तेज गति से बहती हुई नदियां तीव्र ढालों के अनुरूप नदी तल पर अपरदन करती हैं। मंद ढालों पर पार्श्व अपरदन अधिक होता है, इन मंद ढालों पर बहकर नदियां विसर्प का निर्माण करती हैं।
- बाढ़ और डेल्टा के मैदानों पर नदी विसर्प सामान्यतः पाए जाते हैं। गहरे और विस्तृत विसर्प कठोर चट्टानों में भी पाए जाते हैं, ये विसर्प अधःकर्तित विसर्प या गभीरीभूत विसर्प कहलाते हैं।
- नदी वेदिकाएं– ये प्रारम्भिक बाढ़ों के मैदानों या पुरानी नदी घाटियों तलों के चिन्ह है। नदियों के तल या जलोढ़ रहित मूल चट्टानों के धरातलों को नदी वेदिकाएं कहा जाता है।
निक्षेपित स्थलरूप
- जलोढ़ पंख– इनका निर्माण नदियों के ऊंचे ढलानों से बहकर मंद ढाल वाले मैदानों में प्रवेश करने के परिणामस्वरूप होता है। जल को अपने साथ बहा ले जाने में जब नदियां असमर्थ होतीं हैं, तो निक्षेपण के लिए शंकु आकार ले लेती हैं।
- नमी वाले इलाकों में बनने वाले जलोढ़ पंखों की आकृति छोटे शंकों के समान होती है, इनमें ढलान भी कम होती है। इसके विपरीत आर्द्र-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों में इनकी ढाल तेज और बड़े शंकों की आकृति के होते हैं।
- डेल्टा– इनका विकसित होने का स्थान जलोढ़ पंखों से भिन्न है, इसके अलावा ये जलोढ़ पंखों के समान ही होते हैं। नदी के साथ बह कर आए अवसादों को नदी समुद्री तटों पर निक्षेपित कर देती है।
- बाढ़ मैदान– घाटियों के निर्माण के लिए जैसे अपरदन जिम्मेदार है, बाढ़ के मैदानों के लिए निक्षेपण जिम्मेदार है। नदी निक्षेपण के मुख्य स्थलरूप बाढ़ के मैदान हैं।
- इनके निक्षेपण से सक्रीय बाढ़-मैदानों का निर्माण होता है, तल से ऊंचा निर्मित हुए बाढ़ मैदानों को असक्रीय बाढ़ मैदान कहा जाता है।
- बाढ़ का पानी फैलने से बने मैदान अपने में गाद, चिकनी मिट्टी आदि लिए होते हैं। इस प्रकार के मैदान जिनका निर्माण डेल्टाइ क्षेत्रों में होता है, वे डेल्टा के मैदान कहलाते हैं।
- प्राकृतिक तटबंध– ये बड़ी नदियों के किनारों पर बनते हैं, नदियों के किनारों पर ये छोटे पदार्थों के रूप में रैखिक एवं समानांतर कटक के रूप में विद्यमान होते हैं।
- विसर्पी रोधिका– इनका निर्माण नदी विसर्पों के अवतल ढालों पर होता है इनका दूसरा नाम नदी रोधिका भी है। बहते हुए जल से आए सेडिमेंट्स का नदियों के किनारों पर निक्षेपण से बनते हैं।
- नदी विसर्प– बाढ़ और डेल्टा के मैदानों पर जब लूप के समान चैनलों का निर्माण होता है, उससे ये बनते हैं। ये स्थलरूप न होकर, चैनल प्रारूप हैं। ये विसर्प इन कारणों से निर्मित होते हैं-
- प्रवाहित जल द्वारा मंद ढालों पर तटों में क्षैतिज या पार्श्विक कटाव करने की प्रवृत्ति होने के कारण।
- तटों पर जलोढ़ के असंगठित जमाव से जल के दबाव का नदी पार्शव बढ़ना।
- ऐसे जल का विक्षेपण जो कोरिओलिस प्रभाव से प्रवाहित है।
भौमजल
- अपरदन के एक कारक के रूप में भौमजल का वर्णन होता है, जो कई स्थलाकृतियों का निर्माण करता है। चट्टानें यदि दरारपूर्ण, कम घनी, जोड़ों और संधियों के साथ हैं, तो इससे धरातल के जल का अंतःस्रवण आसान हो जाता है।
- भौमजल स्थलाकृति के क्षेत्र– वे स्थलरूप जो भूमिगत जल में पदार्थों के परिवहन से बने हैं, महत्वहीन होते हैं। इनका कार्य सभी चट्टानों पर नहीं देखा जाता।
- कार्स्ट स्थलाकृति का निर्माण– डोलोमाइट चट्टानों, चुना पत्थर की चट्टानों आदि जैसे क्षेत्रों में भौमजल से होने वाली घुलन और उसकी निक्षेपण प्रक्रिया द्वारा बने स्थलाकृतियों को कार्स्ट स्थलाकृतियाँ कहा जाता है।
- भौमजल का अपरदित स्थलरूप –
- धोलरंध्र– इनमें से कुछ धोलरंध्रों का निर्माण घुलन की प्रक्रिया से होता है। ये घाटी रंध्रों का निर्माण करते हैं।
- लेपीज– धीरे-धीरे चुनायुक्त चट्टानों के ज्यादातर भाग गर्तों और खाइयों में समाहित हो जाते हैं और जो नुकीले व असमान कटक रह जाते हैं वे लेपीज कहलाते हैं।
- कंदराएं– इनका निर्माण मुख्यतः वहां होता है जहां चट्टानों का संस्तर एकांतर हो, इनके बीच में डोलोमाइट या चुना पत्थर की चट्टानें हों।
- भौमजल का निक्षेपित स्थलरूप– निक्षेपित स्थलरूपों का निर्माण ज्यादातर कन्दराओं के अंतर्गत ही होता है।
- स्टैलेकटाइट, हिमस्तम्भ की तरह ही स्टैलेकटाइट भिन्न मोटाई में लटके हुए होते हैं, जो चुना-पत्थर के क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
- स्टैलेगमाइट, कन्दराओं की छतों से टपकने वाले चुना-युक्त जल के कारण इनका निर्माण होता है।
- स्तम्भ का निर्माण स्टैलेकटाइट और स्टैलेगमाइट के मिल जाने से होता है।
हिमनद
- हिमनद धरती पर नदी की तरह ही प्रवाहित होती है। इनका प्रवाह पर्वतीय ढालों से घाटियों में रैखिक प्रवाह के रूप में बहती बर्फ को ही हिमनद कहते हैं। समतल क्षेत्रों में फैली परत को महाद्वीपीय हिमनद या गिरिपद कहते हैं।
- पर्वतीय ढालों पर बहने वाले हिमनदों को घाटी या पर्वतीय हिमनद कहा जाता है। इनका प्रवाह जल के साथ बेहद कम होता है, ये दिन में कुछ मीटर तक ही प्रवाहित हो सकते हैं।
- इसका भार घर्षण उत्पन्न करता है, जिसके कारण अपरदन तीव्र हो जाता है। इसकी गति का कारण गरुत्वाकर्षण बल होता है।
- चट्टानी पदार्थ इसके अपरदन की वजह से इसके साथ ही चले जाते हैं, इसके कारण ये छोटी पहाड़ियों, पर्वतों आदि में बदल जाते हैं।
हिमनद का अपरदित स्थलरूप में सम्मिलित हैं-
- सर्क– इनको उत्पन्न करने के काम बर्फ के पर्वतीय भागों में हिमनद करती है, यहाँ की घाटियों के सबसे ऊपर देखे जा सकते हैं।
- हॉर्न या गिरीशृंग और सिरेटेड कटक– हॉर्न का निर्माण सर्क के ऊपर हुए अपरदन के परिणामस्वरूप होता है, जिससे हिमनद के ऊपर नुकीली धार बन जाती है। हिमालय इसका सबसे अच्छा उदाहरण है।
- हिमनद घाटी या गर्त– ये ‘U’ आकार की घाटियां होती हैं। इन घाटियों में मलबा बिखरा हुआ होता है और इनकी मुख्य घाटी के दोनों छोरों पर लटकती घाटी भी होती है।
निक्षेपित स्थलरूप में सम्मिलित हैं-
- जब हिमनद पिघलते हैं तब छोटे और बड़े पदार्थों का निक्षेपण होता है, इसे ही हिमोढ़ या हिमनद गोलाश्म कहते हैं।
- शैलों का कुछ मलबा इन नदियों में प्रवाहित होकर निक्षेपित होता है, इससे बनी हिमनदी-जलोढ़ को हिमानी धौत कहते हैं।
- हिमोढ़– ये हिमनद टिल या गोलाश्मी मृतिका के जमाव से बनी एक लंबी कटक होती है। ऐसे निक्षेप जिनकी मोटाई और आकार अलग हों, वे तलीय हिमोढ़ कहलाते हैं।
- एस्कर– नदियां गोलाश्म और चट्टानी टुकड़े अपने साथ बहाकर लाती है, जो बर्फ की घाटियों में जमा हो जाते हैं, जब ये बर्फ पिघलती है, तो वक्राकर कटक का रूप धारण करती है, यही एस्कर कहलाती है।
- हिमानी धौत मैदान– हिमानी गिरिपद से दूर हिमानी जलोढ़ निक्षेपों से हिमानी धौत का निर्माण होता है।
- ड्रमलिन– ये हिमनद मृतिक के अंडाकार समतल कटकनुमा स्थलरूप हैं जिसके अंदर रेत और बजरी का ढेर होता है।
तरंग व धाराएं
- तटीय क्षेत्रों में कुछ परिवर्तन बेहद जल्दी होते हैं, यहाँ की तीव्र क्रियाशीलता के कारण कुछ प्रक्रियाएं बहुत विनाशकारी हो जाती हैं।
- जल का तटों पर प्रभाव तरंगों के आवागमन के कारण होता है, इसके करण ही समुद्र के तल में भी दोलन की प्रक्रिया देखने को मिलती है।
- तटों के स्थलरूप को निर्धारित करने वाले अन्य तत्व-
- समुद्री ताल की बनावट,
- समुद्र का मुख-उन्मग्न या जलमग्न तट
- समुद्र के जल स्तर को स्थाई मानने पर, तटीय स्थलाकृतियों के विकास को जानने के लिए 2 भागों में तटीय विभाजन होता है-
- ऊंचे चट्टानी तट– यहाँ तट रेखाएं नियमित नहीं मिलतीं। फियोर्ड के समान तट बनते हैं। यहाँ अपरदित स्थलरूपों की संख्या अधिक होती है।
- तटों से अपरदन शुरू होने पर वेलांचाली प्रवाह अपरदन के पदार्थ को समुद्री तटों पर पुलिन (रोधिकाएं) रूप में इकट्टा करती है। किसी खाड़ी के मुख पर रोधिका का निर्माण होने से ये लैगून बनाती है।
- निम्न अवसादी तट– नदियां इनसे तटीय मैदान और डेल्टा का निर्माण करतीं हैं। अवसादी तट मंद ढाल के कारण झुक जाते हैं, तो वे अवसाद जो तट पर हैं उनमें दोलन होने लगता है।
- निक्षेपित स्थलाकृतियों में बदलावों के अन्य कारण सुनामी और तूफ़ानी तरंगे भी होती हैं।
अपरदित स्थलरूप
- भृगु, वेदिकाएं- ऐसे समुद्री तट जहां अपरदन क्रिया मुख्यतः होती है, वहां इस तरह की आकृतियों का निर्माण होता है।
- कंदराएं– जब भृगु से समुद्र की लहरों का टकराव होता है, तब जो खाली स्थान का निर्माण होता है, वह कंदराएं कहलाती हैं।
- स्टैक– लहरों के टकराव के परिणाम से जिन भृगुओं का विनाश हो जाता है, उन अवशेषों को स्टैक कहते हैं।
निक्षेपित स्थलरूप
- पुलिन और टिब्बे– तटों की विशेषताओं में पुलिन का महत्व है, ये अस्थायी आकृतियां बनाती हैं। टिब्बों का निर्माण रेट से तटों के साथ साथ ही देखा जा सकता है।
- रोधिका, रोध तथा स्पिट– रेत और शिलिंग से बनी कटक अपतट जो समुद्र के किनारों के समानांतर चलती है, रोधिका कहलाती है।
- रेत के ज्यादा जमाव के कारण ऊपर की ओर देखी जा सकने वाली रोधिकाएं, रोध कहलाती है।
- जब रोधिका की सिरे से खड़ी के साथ जुड़ी हुई हो, तो इसे स्पिट कहा जाएगा।
- इन तीनों के खाड़ी की ओर आने से, खाड़ी का मुख छोटा होने लगता है, जिससे ये एक लैगून की तरह दिखने लगती है।
पवनें
- सूखे रेगिस्तानों में पवनें ही अपरदन का स्त्रोत हैं, यहाँ की मृदा जल्द ही ठंडी अथवा गर्म होती है।
- इन गर्म हवाओं के कारण, हल्की गर्म हवा भंवर का निर्माण करती है और ऐसे में अनुवात प्रवाह का निर्माण होता है।
- पवनों के तेज गति के बीच आने वाली रुकावटों के कारण पवन विक्षोभ होता है, ये विनाशकारी हो सकता है।
- रेत और बजरी पवन के रास्ते में आकार घर्षण का कार्य करती है, रेत के कण चट्टानों पर टकराते हैं, यह बालू घर्षण की तरह होती है।
- यहाँ वर्षा बेहद कम होती है। लेकिन कभी-कभी कम समय के लिए भी भारी बारिश हो सकती है। यहाँ की पवनें अपरदनात्मक और निक्षेपणात्मक स्थलरूप का निर्माण करती हैं।
- वनस्पतियों पर यांत्रिक और रासायनिक अपक्षय का प्रभाव होता है, जिनका क्षय आसान होता है। यह मलबा पवनों और वर्षा द्वारा प्रवाहित होता है।
अपरदनात्मक स्थलरूप
- पेडिमेन्ट– पर्वतों के निचले स्थानों पर मंद ढाल की चट्टानों के तलों को पेडिमेंट्स कहते हैं।
- पदस्थली– रेगीस्तानी क्षेत्रों में भूमि के ऊंचे तलों का परिवर्तन ऐसे मैदानों में हो जाता है, जिसकी कोई निश्चित आकृति नहीं होती, इन्हें ही पदस्थली कहते हैं।
- प्लाया– मरुस्थलों में बेसिनों में अपवाह ज्यादातर बेसिन के बीच में होता है, जिससे समतल मैदान बन जाता है। इन मैदानों में पानी की उपलब्धता से ये झीलों में बदल जाते हैं, इन्हें प्लाया कहा जाता है।
- अपवाहन गर्त– वनस्पतियों के अपक्षय पदार्थों का प्रवाह पवनों की स्थाई दिशा में होने लगता है, जो यहाँ पर उथले गर्तों को निर्मित करता है, ये अपवाहन गर्त होते हैं।
- गुहा– तेज पवनों के कारण बने वात-गर्त बाद में जाकर गहरे और बड़े हो जाते हैं, इन्हें गुहा कहा जाता है।
- छत्रक, टेबल और पीठिका शैल– यहाँ की चट्टानें तेज हवा के चलते कट जाती हैं, इनका आकार टोपी के समान बन जाता है, जो छत्रक के आकार के हो जाते हैं, कुछ चट्टानें पीठिका के आकार में ढल जाती हैं।
निक्षेपित स्थलरूप
- पवन के वेग में छोटे कण काफी दूर तक उड़ते हैं और धरती के साथ घर्षण करते हैं। जब ये कण टकराते हैं, तो दूसरे कणों को ढीला कर देते हैं, इसे साल्टेशन कहते हैं।
- पवनों के द्वारा कणों के आकार के आधार पर परिवहन निर्धारित होता है, इससे ही पदार्थों की छटाई भी हो जाती है।
- निक्षेपित स्थलरूपों के अंतर्गत पवन के साथ बहे कणों की महीनता भी महत्व रखती है।
बालू-टिब्बे
- इनका निर्माण उष्ण-शुष्क रेगिस्तानों में होता है। इसके प्रकार-
- वे टिब्बे जिनकी आकृति नव चंद्र के समान होती है, बरखान कहलाते हैं।
- वे स्थान जहां रेत के स्थानों पर कुछ हरी वनस्तापियाँ भी उग जाती हैं, इन स्थानों पर पर्वलयिक टिब्बे बन जाते हैं। इनका आकार बरखान से भिन्न होता है।
- सीफ़ बालू-टिब्बों का निर्माण वायु की दिशा में बदलाव के कारण होता है। इसकी एक ही भुजा होती है और ये बरखान की भांति होते हैं।
- हवा की समान दिशा में जब रेत की कमी हो जाती है, तब अनुदैर्ध्य बनते हैं।
- जिन टिब्बों का निर्माण पवनों की दिशा के समानकोण पर बनाता है, उन्हें अनुप्रस्थ टिब्बे कहते हैं।
PDF Download Link |
कक्षा 11 भूगोल के अन्य अध्याय के नोट्स | यहाँ से प्राप्त करें |