इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 11वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-1 यानी “राजनीतिक सिद्धांत” के अध्याय-8 “धर्मनिरपेक्षता” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 8 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 11 Political Science Book-1 Chapter-8 Notes In Hindi
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अध्याय- 8 “धर्मनिरपेक्षता”
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | ग्यारहवीं (11वीं) |
विषय | राजनीति विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | राजनीतिक सिद्धांत |
अध्याय नंबर | आठ (8) |
अध्याय का नाम | धर्मनिरपेक्षता |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 11वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- राजनीतिक सिद्धांत
अध्याय-8 “धर्मनिरपेक्षता”
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ
- राष्ट्रों में मौजूद विभिन्न धार्मिक संस्कृतियों के बीच समानता को सुनिश्चित करने के लिए धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया जाता है।
- यह एक ऐसी अवधारणा है, जिसमें सभी धर्मों को समानता और सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार है।
- धर्मनिरपेक्षता को मुख्य रूप से सिद्धांत के रूप में समझा जा सकता है, इसमें अंतर और अंतः धार्मिक वर्चस्व का विरोध किया जाता है।
धर्म के अंदर वर्चस्व
- जन समुदाय में कुछ लोगों द्वारा धर्म को अफीम की तरह देखा गया है। मनुष्य अपनी जरूरतों के पूरा हो जाने पर धर्म को भूल कर संतुष्ट जीवन का निर्वाह करेगा।
- मनुष्य प्रकृति को पूर्ण रूप में जानने में समर्थ नहीं है, मानव जीवन में रहते हुए पूर्ण रूप से दुखों से छुटकारा नहीं पा सकता। धर्म इस तरह की सत्यता का विरोध नहीं करता, और इसी कारण धर्मनिरपेक्षता भी इसका स्वीकार करती है।
- धर्म के कारण ही कुछ समस्याओं का जन्म भी होता है, जैसे विश्व का कोई भी धर्म महिला और पुरुष को समान नजर से नहीं देखता, हिन्दू धर्म में महिलाओं और दलितों के लिए कुछ स्थानों पर प्रवेश वर्जित रखा गया है।
- कई धर्मों के कारण संप्रदाय संबंधित मसले खड़े हो जाते हैं, और अल्पसंख्यकों की आवाज को दबाया जाता है।
- धार्मिक वर्चस्व केवल धर्मों के बीच न होकर, धर्म के अंदर भी देखा जाता है।
- धर्मनिरपेक्ष समाज में दोनों तरह के धार्मिक वर्चस्व का विरोध किया जाता है। इससे धर्मों के बीच और धर्मों के अंदर मिलने वाले वर्चस्व की समाप्ति हो जाती है।
राज्य में धर्मनिरपेक्षता
- शिक्षा और आपसी जागरूकता से धार्मिक भेदभाव को कम किया जा सकता है। राज्य अपनी शक्तियों के आधार पर इस तरह के धार्मिक भेदभाव और अंतर धार्मिक वर्चस्व से रहित समाज का निर्माण किया जाता है।
- धार्मिक वर्चस्व को रोकने का तरीका–
- राजसत्ता का संचालन किसी धर्म प्रमुख द्वारा न हो, इससे देश में अन्य धर्मों को मानने वालों के लोगों के अधिकारों का हनन होगा।
- इसलिए धर्मिक संस्थाओं और राजसत्ताओं के बीच संबंध नहीं होना चाहिए और किसी भी औपचारिक गठजोड़ से दूर रहना चाहिए।
- जो राज्यसत्ता धार्मिक संगठनों के साथ संबंध रखती है, ऐसे शासनतंत्र में आंतरिक विरोध होते हैं, और धार्मिक समानता बनाए रख पाना मुश्किल हो जाता है।
यूरोप मॉडल में धर्मनिरपेक्षता
- इन राज्यों में धर्म की स्थापना पर किसी भी प्रकार का बल नहीं दिया जाता, इसमें राजसत्ता के अपने अलग क्षेत्र और धर्म के अलग क्षेत्र हैं।
- धर्मनिरपेक्ष राज्य में धार्मिक समुदायों को किसी भी प्रकार की सहायता प्रदान नहीं कर सकते। राज्य का दखल किसी खास समय में भी नहीं हो सकता, जैसे किसी धर्म को मानने वाले सदस्य द्वारा किसी अन्य सदस्य को मंदिर के गर्भगृह में जाने से रोकने पर।
- इस प्रकार धर्म राज्य के कानूनों का विषय नहीं हो सकता। इससे लोगों की स्वतंत्रता और समानता की रक्षा होती है।
- धर्मनिरपेक्ष राज्य द्वारा किसी भी प्रकार का धार्मिक सुधार नहीं किया जा सकता।
भारतीय मॉडल में धर्मनिरपेक्षता
- भारत की धर्मनिरपेक्षता में राज्य एवं धर्म पृथक करने का प्रयास नहीं किया जाता, और इसमें अंतर-धार्मिक समानता महत्वपूर्ण है।
- यह अंतर-धार्मिक सहिष्णुता भारत में पहले से ही मौजूद है, यह सहिष्णुता की भावना धार्मिक वर्चस्व का विरोध नहीं करती।
- सहिष्णुता के माध्यम से हम ऐसे लोगों को भी बर्दाश्त कर सकते हैं जो हमे पसंद नहीं है। इस प्रकार भिन्न मत होते हुए भी धार्मिक समानता की भावना बनी रहती है।
- गृह युद्धों और राष्ट्र की स्थिति के सामान्य न होने के कारण अंतर-धार्मिक साहिषणुता की आवश्यकता होती है, जब लोग देश के मान को रखने के लिए जूझ रहे होते हैं।
- भिन्नता- पश्चिमी चिंतन के बाद भारत की समानता की अवधारणा हाशिए से सतह पर आ गई है।
- इसने धर्मों के बीच समानता और धर्मों में समानता को बल दिया है।
- भारत में पहले से मौजूद और यूरोप से आए विचारों के कारण धर्मनिरपेक्षता ने नया रूप धारण किया।
- भारत में अंतः और अंतर धार्मिक वर्चस्व को खत्म करने के प्रयासों पर साथ काम हुआ जैसे बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन करने पर कड़ा विरोध किया गया।
- वहीं भारत में अल्पसंख्यकों को धार्मिक स्वतंत्रता पर अधिक बल दिया गया।
- भारत में अंतर-धार्मिक वर्चस्व को रोकने के लिए राज्य द्वारा कई धार्मिक सुधार भी किए जाते हैं जैसे भारतीय संविधान द्वारा अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया जाना।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता संबंधित कुछ विशेषताएं-
- भारत में न तो पूर्ण धर्म तंत्र है, न ही यहाँ किसी एक धर्म का राज है। भारत में धार्मिक समानता के लिए कई नीतियाँ अपनाईं गई हैं, जो इसको धर्म से अलग भी करता है, और जरूरत होने पर संबंध भी स्थापित करता है।
- किसी धर्म का विरोध करने के लिए राज्य उस धर्म से निषेधात्मक सम्बद्ध बनाता है, जैसे अस्पृश्यता के विरुद्ध कार्रवाई।
- जुड़ाव बनाने की स्थिति के लिए भारत का संविधान स्वतंत्र रूप से अपने धार्मिक शिक्षण संस्थान खोलने की अनुमति प्रदान करता है।
- भारत की धर्म निरपेक्षता को ‘सार्व धर्म समभाव’ के मुहावरे तक सीमित नहीं किया जा सकता, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता इससे कहीं आगे है।
- इसमें सभी धर्मों में राजसत्ता द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है, यह हस्तक्षेप धर्मों में विद्यमान जातिगत विभाजन के खिलाफ होता है। यानी धर्म के सभी पहलुओं को सम्मान की दृष्टि से ही देखा जाए यह भी आवश्यक नहीं है।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता संबंधित कुछ आलोचनाएं
- धर्म विरोधी–
- भारत की धर्मनिरपेक्षता संस्थाओं के वर्चस्व का विरोध करती है, लेकिन यह धर्म विरोधी नहीं है।
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता को धार्मिक पहचान के लिए खतरा कहा जाता है, लेकिन यह सभी धर्मों को समानता प्रदान करती है।
- यह ऐसे संगठनों का विरोध करती है, जो किसी अन्य धर्म के लिए खतरा उत्पन्न करें।
- पश्चिम की देन-
- ऐसा माना जाता है कि यह पश्चिम राज्यों की देन है, और भारत के लिए उपयुक्त नहीं है।
- हालांकि भारत में आज के दौर में प्रयोग की जाने वाली लगभग सभी चीजें पश्चिम की ही देन है, उस लिहाज से यह आलोचना मान्य नहीं मानी जाती।
- अल्पसंख्यकवाद–
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता में अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर अधिक जोर दिया जाता है, ये ऐसे अधिकार हैं जो किसी अल्पसंख्यक को विशेष तौर पर दिए जाते हैं।
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता इसे न्यायोचित मानती है, क्योंकि हर बार लोकतान्त्रिक तरीके को ध्यान में रखकर समानता को स्थापित नहीं किया जा सकता।
- हस्तक्षेप की अधिकता–
- भारत में धार्मिक तौर पर उत्पीड़ित व्यक्ति के निजी मामलों में हस्तक्षेप किया जाता है। यह समझ गलत है।
- भारत में धर्म और राज्य के बीच एक संवैधानिक कड़ी काम करती है, जो केवल जरूरत होने पर ही राज्य का हस्तक्षेप धर्म में करने की मंजूरी प्रदान करती है। यह अतिशय हस्तक्षेपकारी होने की इस आलोचना को खारिज करता है।
- इसका अर्थ हुआ कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता राज्य सत्ता के समर्थन से धार्मिक सुधारों को सुनिश्चित करती है।
- ऐसे कानून जो धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन करते हैं, भारत की धर्मनिरपेक्षता ऐसी स्थिति में धर्म के आंतरिक मामलों में दखल देती है।
- वोट बैंक की राजनीति-
- ऐसा माना जाता है, कि धर्मनिरपेक्षता से वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा मिलता है।
- लोकतान्त्रिक राजनीति में नेताओं का चुनाव वोट से ही किया जाता है।
- यह देखना भी आवश्यक है, कि यदि कोई राजनेता किसी विशेष समूह के वोट हासिल करना भी चाहता है, तो क्या वह सत्ता में आने के बाद उनके लिए कार्य कर रहा है, यदि ऐसा है, तो इस तरह से यह राजनीति बुरी नहीं है।
- एक असंभव कार्य की पूर्ति–
- ऐसी अवधारणा है कि धर्मनिरपेक्षता एक ऐसे कार्य को करने का प्रयास कर रही है जो संभव ही नहीं है। और यह कार्य है भिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों को एक साथ रखना।
- इस तरह से साथ रहने की यह अवधारणा गलत मानी जाती है, ऑटोमन साम्राज्य इसका उदाहरण है।
- लेकिन आलोचकों ने भी अब माना है कि समानता आज के समय में संस्कृति का एक अहम पहलू बन रही है।
- इससे यह पता चलता है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता भविष्य की दुनिया का प्रतिबिंब प्रस्तुत कर रही है।
- वैश्वीकरण का युग प्रारंभ होने के कारण लोगों की गतिशीलता से आज यूरोप और अमेरिका में अनेकों धर्मों की आवाजाही बढ़ी है, जिससे ये देश भी भारत जैसे होने लगे हैं। यही कारण है कि ये देश भी अब भारत की गतिविधियों का अध्ययन करते हैं।
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