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Class 11 Political Science Book-2 Ch-6 “न्यायपालिका” Notes In Hindi

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Navya Aggarwal
Last Updated on

इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 11वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-2 यानी “भारत का संविधान-सिद्धांत और व्यवहार” के अध्याय-6 “न्यायपालिका” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 6 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।

Class 11 Political Science Book-2 Chapter-6 Notes In Hindi

आप ऑनलाइन और ऑफलाइन दो ही तरह से ये नोट्स फ्री में पढ़ सकते हैं। ऑनलाइन पढ़ने के लिए इस पेज पर बने रहें और ऑफलाइन पढ़ने के लिए पीडीएफ डाउनलोड करें। एक लिंक पर क्लिक कर आसानी से नोट्स की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं। परीक्षा की तैयारी के लिए ये नोट्स बेहद लाभकारी हैं। छात्र अब कम समय में अधिक तैयारी कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही आप नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करेंगे, यह अध्याय पीडीएफ के तौर पर भी डाउनलोड हो जाएगा।

अध्याय- 6 “न्यायपालिका”

बोर्डसीबीएसई (CBSE)
पुस्तक स्रोतएनसीईआरटी (NCERT)
कक्षाग्यारहवीं (11वीं)
विषयराजनीति विज्ञान
पाठ्यपुस्तकभारत का संविधान- सिद्धांत और व्यवहार
अध्याय नंबरछः (6)
अध्याय का नामन्यायपालिका
केटेगरीनोट्स
भाषाहिंदी
माध्यम व प्रारूपऑनलाइन (लेख)
ऑफलाइन (पीडीएफ)
कक्षा- 11वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- भारत का संविधान- सिद्धांत और व्यवहार
अध्याय-6 “न्यायपालिका”

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय को विश्व के शक्तिशाली न्यायालयों में से एक कहा जाता है, यह न केवल लोगों और संस्थाओं के आपसी मुद्दों को सुलझता है, बल्कि कई राजनैतिक मुद्दों में भी निर्णय लेता है। यह सरकार का एक बेहद महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है।

स्वतंत्र न्यायपालिका की जरूरत

  • देश में बड़े छोटे स्तर पर लोगों और संस्थाओं के मध्य विवाद उत्पन्न होते रहते हैं, इन विवादों का निपटारा ‘कानून के शासन के सिद्धांत’ के आधार पर स्वतंत्रता से किया जाना चाहिए।
  • इसमें किसी भी व्यक्ति को कानून की सुरक्षा और न्याय मिलने के लिए किसी भी प्रकार का भेदभाव किया जाना उचित नहीं है।
  • न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि लोकतंत्र का स्थान कोई भी तानाशाही या कोई विशेष व्यक्ति समूह न ले ले।
  • इसके लिए न्यायपालिका का किसी भी राजनीतिक दबाव से मुक्त होना अनिवार्य है।
  • निम्न प्रकार से न्यायपालिका को स्वतंत्र रखा जा सकता है-
    1. न्यायपालिका के कार्यों में विधायिका और कार्यपालिका का कोई हस्तक्षेप न हो।
    2. न्यायधीश बिना किसी भेदभाव या डर के अपने कार्य कर सकें।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ
  • न्यायपालिका स्वतंत्र होने के बाद भी नागरिकों के प्रति उत्तरदायी है, यह लोकतंत्र का ही अहम हिस्सा है।
  • यह देश के संविधान और लोकतंत्र के प्रति जिम्मेदार है।
  • न्यायपालिका को स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए इसके न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में विधायिका का हस्तक्षेप नहीं किया जाता, ताकि दलगत राजनीति से बचा जा सके।
  • न्यायाधीशों को कुछ विशेष परिस्थितियों के कहते ही अपदस्थ किया जा सकता है, अन्यथा ये अपने पदों पर सेवानिवृति तक बने रहते हैं। इन्हें पदों से हटाने की प्रक्रिया भी संविधान निर्माताओं ने कठिन ही रखी है।
  • न्यायालयों की अभेद्य सुरक्षा के कारण न्यायाधीश अपने कार्य को बिना डर और भेदभाव के कर सकते हैं।
  • इसके अतिरिक्त वित्तीय रूप से भी न्यायपालिका कार्यपालिका या विधायिका पर निर्भर नहीं है, न ही न्यायाधीशों के भत्ते और वेतन संबंधी कोई भी स्वीकृति विधायिका से ली जाती है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति

  • सर्वोच्च न्यायालय का सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश ही भारत का मुख्य न्यायधीश होता है। राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश की सहायता से करता है।
  • इससे यह विवाद उत्पन्न हुआ की राष्ट्रपति के द्वारा मंत्रीपरिषद् न्यायाधीश की नियुक्ति में हस्तक्षेप कर रहा है।
  • इसके बाद अंत में यह निर्णय किया गया कि सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश 4 अन्य न्यायाधीशों की सलाह से जो नाम देगा राष्ट्रपति को इनमें से नियुक्तियाँ करनी होंगी।
न्यायाधीशों को अपदस्थ करना
  • न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका के पास और हटाने की शक्तियां विधायिका के पास होती हैं। इन न्यायाधीशों को इनके पद से कदाचार साबित होने या अयोग्यता साबित होने की स्थिति में ही हटाया जा सकता है।
  • इसके लिए संसद में बहुमत का होना भी आवश्यक है। जब तक संसद सदस्यों में आम सहमति न हो तब तक न्यायाधीशों को हटा पाना मुश्किल है।
  • यह प्रक्रिया कठिन इसलिए है, ताकी न्यायाधीशों की स्वतंत्रता बनी रहे और इससे शक्ति-संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है।

न्यायपालिका की संरचना

  • भारतीय न्यायालयों की एकीकृत न्यायिक व्यवस्था दी गई है, जो अन्य संघीय देशों की तरह प्रांतीय स्तर के न्यायालय नहीं देती।
  • इसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय उसके बाद उच्च न्यायालय और जिला स्तर पर अधीनस्थ न्यायालय होते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय

  • इसके निर्णय सभी अदालतों में मान्य होते हैं।
  • इस न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का तबादला किया जा सकता है।
  • ये किसी भी अदालत का मुकदमा अपने पास मँगवा सकता है।
  • ये किसी उच्च न्यायालय के मुकदमे को अन्य किसी उच्च न्यायालय में भी भेज सकता है।

उच्च न्यायालय

  • निचली अदालतों के निर्णयों पर अपील के तहत सुनवाई।
  • मौलिक अधिकारों को बहाल करने के लिए इसके द्वारा रिट जारी की जा सकती है।
  • ऐसे मुद्दे जो राज्यों के क्षेत्राधिकारों में आते हैं, का निपटारा।
  • इसके अधीनस्थ आने वाली अदालतों पर नियंत्रण।

जिला अदालत

  • जिले में दायर होने वाले मुकदमों पर सुनवाई।
  • निचली अदालतों के निर्णयों पर अपील के तहत सुनवाई।
  • गंभीर और आपराधिक मामलों पर निर्णय।

अधीनस्थ अदालत

  • मुख्य रूप से दीवानी और फौज़दारी किस्म के मुद्दों पर विचार करती है।

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार

सर्वोच्च न्यायालय भारत का सबसे शक्तिशाली न्यायालय है, जो संविधान के अंतर्गत अपने कार्य करता है। इसके कुछ क्षेत्राधिकार इस प्रकार हैं-

1. मौलिक क्षेत्राधिकार
  • इसमें कुछ मुकदमों पर सर्वोच्च न्यायालय ही सुनवाई कर सकता है।
  • इस अधिकार के तहत सर्वोच्च न्यायालय संघीय विवादों पर निर्णय करता है।
  • केवल सर्वोच्च न्यायालय ही इन मुद्दों पर सुनवाई करता है, इसलिए यह मौलिक क्षेत्राधिकार है।
2. ‘रिट’ संबंधी क्षेत्राधिकार
  • अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय रिट जारी कर कार्यपालिका को कुछ करने या कोई कदम न उठाने का आदेश दे सकता है।
3. अपीली क्षेत्राधिकार
  • यदि कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय के निर्णय के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय में अपील करता है, तो उसके लिए उच्च न्यायालय को सर्वोच्च न्यायालय को यह प्रमाण देना होगा कि इस मुद्दे में संविधान या कानून की व्याख्या का कोई मसला है, और यह सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल करने वाला मुद्दा है।
  • इसके अलावा यदि फौजदारी के मामले में किसी व्यक्ति को फांसी की सजा दे दी गई है, तो वह इसकी अपील सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में कर सकता है।
  • उच्च न्यायालय यदि व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय में अपील की आज्ञा न दे, तो सर्वोच्च न्यायालय खुद भी उस मुद्दे को अदालत में मँगवा सकता है।
  • इस तरह के मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय दुबारा से मुकदमा करता है और नए मुकदमे के आधार पर अपना निर्णय देता है।
4. सलाह संबंधी क्षेत्राधिकार
  • सर्वोच्च न्यायालय परामर्श भी दे सकता है। जैसे यदि भारत के राष्ट्रपति को संविधान या लोकहित से संबंधित किसी विषय की व्याख्या चाहिए, तो वह सर्वोच्च न्यायालय के पास भेज सकता है, लेकिन न्यायालय सलाह देने के लिए और राष्ट्रपति सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है।
  • इस तरह से सरकार किसी मसले पर कानूनी सलाह प्राप्त कर सकती है, और सलाह मिलने पर सरकार कोई संशोधन करना चाहे तो कर सकती है।

न्यायिक सक्रियता

  • न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन जनहित याचिका है, इसके द्वारा न्यायालय जनता के प्रति न्याय सुनिश्चित करता है।
  • किसी भी देश का नागरिक न्यायालय में तभी जाता है, जब व्यक्तिगत तौर पर कोई नुकसान उठा रहा हो।
  • 1979 के बाद ऐसे मुकदमों की सुनवाई का भी फ़ैसला लिया गया, जो पीड़ित व्यक्ति के अभाव में किसी और द्वारा दर्ज किए गए थे।
  • इस तरह के मुद्दों को ही जनहित याचिका का नाम दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने इसमें उन सभी मुद्दों को रखा जो जनहित से संबंधित थे, जैसे कैदियों के अधिकार, गरीबों के जीवन को बेहतर बनाने के प्रयास, पर्यावरण की सुरक्षा आदि।
  • इस तरह के मुद्दों पर न्यायालय मुकदमा आने पर उसकी जांच पड़ताल अखबारों की सहायता से करता है और फैसलों पर पहुंचता है, न्यायपालिका की यह न्यायिक सक्रियता बेहद लोकप्रिय हो रही है।
  • इसके परिणाम स्वरूप न्यायालय ने लोगों के अधिकारों के दायरे को विस्तृत किया है, उसके अनुसार अब अच्छी हवा और पर्यावरण हर व्यक्ति का अधिकार है।
राजनीतिक व्यवस्था पर न्यायिक सक्रियता का प्रभाव
  • इन बदलावों से व्यक्तियों के साथ-साथ व्यक्ति समूहों को भी अदालत जाने का मौका मिला।
  • न्यायप्रणाली को और भी अधिक लोकतान्त्रिक बनाया गया, और कार्यपालिका भी उत्तरदायी हुई। उन सभी प्रत्याशियों को अपनी संपत्ति संबंधी शपथ पत्र देने के निर्देश दिए गए, जो चुनाव लड़ने वाले हैं, ताकि जनता उस आधार पर अपने प्रत्याशियों का चयन कर सके।
  • जनहित याचिका के परिणाम से न्यायपालिकाओं पर कार्यों का बोझ बढ़ गया, ऐसे कार्य जो कार्यपालिका को सुलझाने चाहिए थे, अब न्यायपालिका हल कर रही है।
  • न्यायिक सक्रियता के कारण शक्ति-संतुलन बनाए रख पाना मुश्किल हो गया है।

न्यायपालिका और अधिकार

  • न्यायपालिका का कार्य है, व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करना। यह इन दो विधियों द्वारा किया जा सकता है।
  • पहला, रिट द्वारा- इससे न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण और परमादेश जारी कर दिया जाता है, जो (अनुच्छेद 32 के तहत) मौलिक अधिकारों को दुबारा स्थापित कर देता है।
  • दूसरा, सर्वोच्च न्यायालय किसी लागू हो रहे कानून को संविधान के विरुद्ध कहकर लागू होने से रोक सकता है।
  • इससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों का संरक्षण और संविधान की सही व्याख्या हो पाती है, यह न्यायिक पुनरावलोकन कहलाता है।
  • इसमें न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिक तौर पर जांच कर सकता है। संविधान में सीधे इस शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, लेकिन मूल अधिकारों के हनन की स्थिति में न्यायालय इस तरह के कानून को बनने से रोक सकता है।
  • न्यायिक पुनरावलोकन के तहत न्यायालय संघीय संबंधों में भी अपनी इन शक्तियों को इस्तेमाल कर सकता है।
  • न्यायालय ऐसे किसी भी मुद्दे पर इन शक्तियों का इस्तेमाल कर सकता है, जो किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है या संविधान में किए गए शक्ति-विभाजन के विपरीत है। यह न्यायपालिका को शक्तिशाली बना देता है।

न्यायपालिका और संसद

  • न्यायपालिका ने अधिकारों की सुरक्षा के साथ-साथ संविधान के विरुद्ध राजनैतिक बर्ताव पर भी रोक लगाई है।
  • पुनरावलोकन के अंतर्गत अब राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को भी शामिल कर दिया गया है।
  • न्यायिक सक्रियता के कारण ही न्यायालय ने कार्यपालिका को कई मुद्दों पर फटकार लगाई है, जिसमें, हवाला मामले, पैट्रोल पंप के अवैध आबंटन के मामले आदि शामिल किए जा सकते हैं। जिनकी जांच सीबीआई को सौंपी गई।
  • संविधान का निर्माण-शक्तियों के सीमित विभाजन, और संतुलन के सिद्धांत से बनाया गया है। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अपने कार्य क्षेत्रों को लेकर स्पष्ट हैं। इन सबके बाद भी कुछ विवाद उत्पन्न हो जाते हैं।
  • यह टकराव संसद और न्यायपालिका या कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच उत्पन्न होते हैं। जैसे- संविधान के लागू होने पर संपत्ति के अधिकारों पर संसद ने रोक लगाई, जिसका विरोध न्यायालय ने किया कि संसद द्वारा मौलिक अधिकारों को कम किया जा रहा है।
  • जिसके जवाब में संसद ने संविधान संशोधन का प्रयास किया, और न्यायालय ने इसे भी मौलिक अधिकारों का हनन बताया।
  • 1967-73 के मध्य यह विवाद काफी बढ़ गया। इसी कड़ी में विधायिका और न्यायालय के बीच भूमि-सुधार, निवारक नजरबंदी जैसे कानूनों पर भी विवाद होने लगे।
  • 1973 में केशवनन्द भर्ती मुकदमें में निर्णय सुनाते हुए, न्यायालय ने संसद और अन्य किसी भी संस्था को न्यायालय के ढांचे से संविधान में संशोधन करके या किसी अन्य तरीके से भी छेड़छाड़ करने से मना कर दिया।
  • न्यायालय ने संपत्ति के अधिकार के मुद्दे पर संसद की बात मानते हुए प्रतिबंध लगा दिया, क्योंकि यह न्यायालयी ढांचे का मुद्दा नहीं था।
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