Class 11 Political Science Book-2 Ch-7 “संघवाद” Notes In Hindi
Navya Aggarwal
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इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 11वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-2 यानी “भारत का संविधान-सिद्धांत और व्यवहार” के अध्याय-7 “संघवाद” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय-7 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 11 Political Science Book-2 Chapter-7 Notes In Hindi
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कक्षा- 11वीं विषय- राजनीति विज्ञान पुस्तक- भारत का संविधान- सिद्धांत और व्यवहार अध्याय-7 “संघवाद”
संघवाद का अर्थ
1989 में, सोवियत संघ का विघटन कई कारणों से हुआ, यह विश्व की महाशक्ति हुआ करता था। भारत में भी 1947 में दुखद विभाजन हुआ।
कुछ इस तरह की स्थिति कनाडा में फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा के आधार पर विभाजन की संभावना उत्पन्न होने पर हुई। ये सभी राष्ट्र संघीय व्यवस्था को ध्यान में रख कर बनाए गए।
लेकिन केवल संघीय संविधान बनाने से संघीय व्यवस्था कायम रख पाना मुश्किल है, इसके लिए व्यवहार और प्रकृति भी संघीय होना आवश्यक है।
भारत में संघवाद
भारत के राज्यों में धर्मों और भाषयी आधार पर भी विविधता देखी जाती है, इस व्यापक विविधता के बावजूद भी भारत में एकता को सर्वोपरि मान्यता दी गई है।
भारत के राष्ट्रीय नेताओं ने इसे ‘विविधता में एकता‘ के रूप में व्याख्यायित किया है।
संघवाद की मूल अवधारणा
भारतीय संघवाद की अवधारणा अमेरिकी संघवाद से भिन्न है। इस अवधारणा में दो तरह की राजनीतिक व्यवस्था का समायोजन है, प्रांतीय व्यवस्था और केन्द्रीय व्यवस्था।
इसके साथ ही कई संघीय देशों में दोहरी नागरिकता अपनाई गई है, भारत में इकहरी नागरिकता अपनाई गई। जैसे- भारत में रह रहे नागरिक किस राज्य से हैं, यह उन्हें भारतीय स्तर पर अलग पहचान दिलाता है।
राजनीतिक व्यवस्था में प्रांतीय स्तर की सरकारों के अपने अलग उत्तरदायित्व भी होते हैं। दोहरे शासन को प्राप्त शक्तियों का मुख्य स्त्रोत संविधान ही होता है।
इसमें देश की रक्षा और मुद्रा संबंधी विषय संघीय सरकार के और क्षेत्रीय तथा छोटे स्तर के विषय प्रांतीय सरकार के अंतर्गत आते हैं।
केंद्र और राज्यों के बीच होने वाले विवादों का निपटारा करने के लिए न्यायपालिका का गठन किया जाता है।
इस तरह देखा जाता है कि संघवाद को सफल बनाने के लिए देश में बनाई गई विभिन्न संस्थाओं को सहयोग, सम्मान और संयम की संस्कृति का प्रयोग किया जाता है।
यदि किसी कारण देश के संघ पर कोई प्रांत या भाषाई समुदाय आदि दबाव बनाने लगे तब देश में विरोध होने लगता है, जिससे गृहयुद्ध का माहौल बनने लगता है।
भारतीय संविधान में संघवाद
देश की क्षेत्रीय और भाषाई विविधता को समझते हुए, राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने भारत जैसे विशाल देश पर शासन के लिए शक्तियों का बंटवारा प्रांतीय और केन्द्रीय स्तर पर किया।
भिन्नता के होते हुए भी लोगों को सत्ता में प्रवेश के अवसर प्रदान करना आवश्यक था।
विभाजन से पूर्व मुस्लिम लीग ने मुस्लिम समुदायों को सत्ता में प्रवेश के लिए अधिकारों की मांग की, लेकिन विभाजन के बाद भारतीय संविधान में राज्यों और केंद्र के बीच समान शक्तियों के बंटवारे और एकता पर बल दिया, जिसमें राज्यों को केंद्र के मुकाबले अलग अधिकार प्रदान किए गए।
संविधान में विविधता के साथ-साथ एकता पर भी बल दिया गया है।
जैसे भारतीय संविधान में अंग्रेजी में ‘फेडरेशन’ शब्द की बजाय ‘यूनियन’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके ही हिन्दी संस्करण में ‘संघ’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
शक्ति विभाजन
भारत में राज्य और केन्द्रीय दो प्रकार की सरकारों को संविधान में मान्यता दी गई है। संविधान के तहत दोनों संस्थाओं के मध्य शक्तियों का बंटवारा समान तौर पर किया गया है।
दोनों के मध्य शक्ति विभाजन से संबंधित विवाद की स्थिति में न्यायपालिका द्वारा संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार निर्णय किया जाता है।
कुछ शक्तियां केवल राज्य और कुछ शक्तियां केवल केंद्र को दी गई हैं, जैसे संविधान द्वारा आर्थिक शक्तियां केवल केंद्र को दी गई हैं, जिसके कारण राज्य के पास आय का साधान सीमित है।
भारत का संविधान
संघ सूची
राज्य सूची
समवर्ती सूची
अवशिष्ट शक्तियां
प्रतिरक्षा
कृषि
शिक्षा
इसके अंतर्गत वे विषय रखे जाते हैं, जिनका जिक्र किसी भी सूची में नहीं किया गया है।
परमाण्विक ऊर्जा
पुलिस
कृषि भूमि के अतिरिक्त किसी अन्य संपदा का हस्तांतरण ।
साइबर कानून
विदेश मामले
जेलखाना
वन
इन मामलों पर केवल केन्द्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है।
युद्ध और शांति
स्थानीय शासन
मजदूर संघ
बैंकिंग
सार्वजनिक स्वास्थय
समानों में मिलावट
रेलवे
भूमि
गोद लेना और उत्तराधिकार
डाक और तार
शराब
वायु सेवा
वाणिज्य व्यापार
बंदरगाह
पशुपालन
विदेश-व्यापार
प्रादेशिक लोकसेवा
मुद्रा
इस विषयों कानून बनाने का अधिकार केवल केन्द्रीय विधायिका का ही है।
इस विषयों कानून बनाने का अधिकार केवल प्रांतीय विधायिका का ही है।
इस विषयों कानून बनाने का अधिकार केन्द्रीय और प्रांतीय दोनों ही विधायिकाओं का है।
केन्द्रीय सरकार की सशक्तता और संघवाद
भारत की विविधताओं को समेटने वाले संविधान के निर्माण की मांग की गई, इसके साथ ही एक शक्तिशाली केंद्र की भी मांग की गई, जो विघटन से देश को बचा सके।
इस तरह की शक्तियां केंद्र के पास होना स्वतंत्रता के समय और भी आवश्यक हो गया था, क्योंकि उस समय सत्ता पर ब्रिटिश राज था और तकरीबन 500 से भी अधिक रियासतों को नए राज्यों का रूप प्रदान करना था।
देश की एकता बनाए रखने में भी शक्तिशाली केंद्र मदद कर सकता था, जिससे देश में व्याप्त गरीबी, निरक्षरता और आर्थिक असमानता को कम किया जा सके।
केंद्र सरकार की स्थापना में सहायक संवैधानिक प्रावधान
संविधान के अनुच्छेद-3 के अनुसार, संसद किसी राज्य से उसका राज्य क्षेत्र अलग करके उसमें से दो या अधिक राज्यों का निर्माण कर सकती है। इसके साथ ही किसी राज्य की सीमा या नाम बदल सकती है।
आपातकालीन प्रावधानों के कारण संघीय व्यवस्था केंद्र के हाथ में आ जाती है, इससे राज्यों को प्राप्त शक्तियां भी संसद के पास आ जाती हैं।
केंद्र के पास आय के साधानों की उपलब्धता है, राज्य वित्तीय साधनों के लिए केंद्र पर आश्रित है। केंद्र सरकार अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर राज्यों को अनुदान प्रदान करती है।
इस कारण केंद्र सरकार पर भेदभाव करने का आरोप भी लगाया जाता है। राज्य सरकार को हटाने का अधिकार राज्यपाल को दिया गया है, जिसकी सिफारिश वह राष्ट्रपति के पास कर सकता है।
राज्यपाल विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज सकता है। इससे केंद्र सरकार उस विधेयक को अपने पास रख या वीटो का प्रयोग कर उसे नकार सकती है।
कुछ राज्यों के विषयों पर केंद्र को कानून बनाना आवश्यक हो जाता है, जिसके लिए राज्यसभा की अनुमति लेना आवश्यक है।
संविधान के अनुसार केन्द्रीय कार्यपालिका की शक्तियां प्रादेशिक कार्यपालिका की शक्तियों से ज्यादा होती हैं।
प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यों पर पूर्ण रूप से केंद्र सरकार का नियंत्रण होता है।
संविधान के अनुच्छेद 33 और 34 द्वारा ‘सैनिक शासन’ के दौरान संघ सरकार की शक्तियों को बढ़ा दिया जाता है।
इस प्रावधान के अंतर्गत राज्य या केन्द्रीय सरकार द्वारा शांति स्थापित करने के लिए किसी भी कदम को जायज माना जाएगा।
सशस्त्र बल विशिष्ट शक्ति अधिनियम का निर्माण इसी के अंतर्गत किया गया।
भारतीय संघीय व्यवस्था में तनाव
संविधान में विभिन्न क्षेत्रों को मान्यता देते हुए, केंद्र को अधिक शक्तियां प्रदान की हैं। जब राज्य की पहचान को मान्यता दी जाती है, तब राज्यों द्वारा ज्यादा शक्तियों की मांग की जाती है।
इसके परिणाम स्वरूप केंद्र और राज्य के बीच विरोध उत्पन्न होता है। जिसका समाधान न्यायपालिका करती है।
केंद्र-राज्य संबंध
संविधान को पूर्ण रूप प्रदान करने का काम राजनीति की वास्तविकताएं करती हैं। राजनीतिक परिवर्तनशीलता का प्रभाव भारतीय संघवाद पर होता है।
1950 से 60 के दशक में संघीय व्यवस्था की नींव रखी गई, इस समय केंद्र और राज्य दोनों में कांग्रेस का वर्चस्व था। इस समय दोनों के मध्य संबंध सामान्य रहे। केंद्र से राज्यों को वित्तीय सहायता की आशा थी।
जैसे-जैसे राज्यों में अन्य पार्टियों की सरकार बनने लगी राज्यों की वित्तीय मांग और भी बढ़ने लगी और राज्यों में केंद्र सरकार के हस्तक्षेप का विरोध किया जाने लगा।
जब कांग्रेस का प्रभुत्व समाप्त हुआ और भारतीय राजनीति गठबंधन की ओर बढ़ी तब राज्यों में भी कई क्षेत्रीय दलों ने सरकार बनाना शुरू किया। जिसके परिणाम से संघवाद का सही रूप देखने को मिला।
स्वायत्ता की मांग
राजनीतिक दल राज्यों को स्वायत्ता देने की मांग करते रहते हैं। यह स्वायत्ता इन सभी दलों के लिए भिन्न हो सकती
राज्यों को अधिक शक्ति देने के विचार से अनेक राज्य जैसे तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल और दल जैसे अकाली दल, माकपा ने स्वायत्ता की मांग की है।
वित्तीय स्वायत्ता
राज्यों को आय के अधिक साधन मुहैया कराए जाने चाहिए। तमिलनाडु और पंजाब की स्वायत्त मांगों में वित्तीय स्वायत्ता ही मुख्य कारण है।
प्रशासनिक स्वायत्ता
प्रशासन पर केंद्र का नियंत्रण कई राज्यों को पसंद नहीं है।
साथ ही यह मांग सांस्कृतिक और भाषा पर आधारित मुद्दों पर भी हो सकती है। तमिलनाडु में हिन्दी के वर्चस्व का विरोध किया जाना इसका उदाहरण है। कई दक्षिणी राज्यों में हिन्दी के विरोध में आंदोलन भी देखने को मिले।
राज्यपाल की भूमिका और राष्ट्रपति शासन
केंद्र और राज्यों के बीच राज्यपाल के कारण कई विषयों पर विवाद होते रहते हैं, क्योंकि राज्यपाल का निर्वाचन केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है, इसलिए राज्य सरकार इसे केंद्र के हस्तक्षेप के रूप में देखती है।
यह स्थिति केंद्र और राज्य में अलग-अलग सत्ता के होने पर और अधिक खराब हो जाती है। 1983 में केंद्र और राज्य के संबंधों में मसलों को सुलझाने के लिए ‘सरकारिया आयोग’ का गठन किया गया।
इसके अलावा अनुच्छेद-356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है और केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकार का अधिग्रहण कर लिया जाता है।
इसके साथ ही राज्यपाल को यह अधिकार मिल जाता है कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकता है।
1967 के बाद केंद्र में रहकर कांग्रेस सरकार ने राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए अनुच्छेद 356 के प्रयोग कई बार किया।
नए राज्यों की मांग
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले हुए राष्ट्रीय आंदोलनों ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ, समान भाषा क्षेत्र और संस्कृति से संबंधित एकता को उत्पन्न किया।
इन आंदोलनों के दौरान ही यह निर्णय लिया गया कि राज्यों का निर्माण संस्कृति और भाषाई आधार पर किया जाना चाहिए।
राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना 1953 में हुई और धीरे-धीरे देश के बड़े राज्यों की भाषाई आधार पर स्थापना की गई, पूर्वोत्तर के नए राज्यों जैसे मणिपुर, असम, अरुणाचाल प्रदेश आदि राज्यों का जन्म हुआ।
इन सब के अलावा कुछ बड़े राज्यों का विभाजन 2000 में हुआ। 2014 में आंध्रप्रदेश राज्य में से तेलंगाना का निर्माण किया गया। राज्यों के विभाजन को लेकर संघर्ष आज भी जारी है, जैसे महाराष्ट्र।
अंतर्राज्यीय मसले
संघीय व्यवस्था में किसी देश के भिन्न राज्यों में मसले हो सकते हैं, जिसके कारण देश के माहौल पर असर पड़ता है। इन विवादों का मुख्य कारण कानूनी न होकर राजनीतिक भी हो सकता है।
इन विवादों का निपटारा आपसी सहमति और बातचीत से निकाला जा सकता है, जैसे राज्यों के बीच सीमा विवाद और नदी जल बंटवारे को लेकर उत्पन्न विवाद।
सीमा विवाद– प्रदेशों के सीमाओं का अंकन भाषाई आधार पर किया गया है, इसके बाद भी एक ही सीमा को साझा कर रहे राज्यों के मध्य विवाद देखने को मिल जाते हैं।
जिन समवर्ती क्षेत्रों में एक से ज्यादा भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं, ऐसे क्षेत्रों के विवादों को भाषाई आधार पर सुलझाना सरल नहीं है।
महाराष्ट्र-कर्नाटक, मणिपुर-नागालैंड, पंजाब-हरियाणा के बीच के विवाद उल्लेखनीय है।
नदी जल बंटवारे को लेकर उत्पन्न विवाद- राज्यों के मध्य इस प्रकार के विवाद गंभीर हैं, जिसमें दोनों ही नागरिकों को पीने के पानी और सिंचाई संबंधी समस्या का सामना करना पड़ता है।
तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी नदी के जल बंटवारे को लेकर विवाद है, इसके अलावा नर्मदा नदी पर गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के बीच विवाद है।
इन विवादों को सुलझाने के लिए ‘जल विवाद न्यायाधिकरण‘ बनाया गया है, इसके बाद भी राज्य सर्वोच्च न्यायालय की ओर जाना अधिक महत्त्वपूर्ण समझते हैं।
विशिष्ट प्रावधान
भारतीय संविधान में प्रत्येक राज्य को उनके आकार और प्रकृति के आधार पर भिन्न तरह के अधिकार दिए गए हैं, जैसे- राज्यसभा में राज्य की जनसंख्या के आधार पर राज्यों को कम या अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया है।
राज्यों को संविधान के अनुसार समान शक्तियां प्राप्त हैं, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में संविधान में विशेष अधिकारों की भी व्यवस्था की है।
संविधान के अनुच्छेद 371 के अनुसार, पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों को उनकी संस्कृति और एतिहासिकता को संरक्षित रखने का प्रावधान किया गया है, इसके बाद भी इन स्थानों पर अलगाववाद और सशस्त्र विद्रोह जैसे तत्व देखने को मिल जाते हैं।
इस तरह के प्रावधान हिमाचल प्रदेश और अन्य पहाड़ी राज्यों के लिए भी किए गए हैं।
जम्मू-कश्मीर
1947 में विभाजन के समय जम्मू और कश्मीर जो कि उस समय रजवाड़ों में शामिल था, के पास भारत या पकिस्तान में शामिल होने की स्वतंत्रता थी, लेकिन पाकिस्तान के काबायली घुसपैठियों ने कश्मीर पर कब्जा करना चाहा, इसके बाद राजा हरीसिंघ ने भारत की सहायता ली और कश्मीर को भारत में मिलाने का निर्णय लिया।
विभाजन के समय कश्मीर को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया, जिसके बाद कश्मीर को स्वायत्ता प्रदान की गई, अनुच्छेद 370 के तहत इसे विशेष राज्य का दर्ज दिया गया।
इस राज्य को भारत के अन्य राज्यों से भिन्न शक्तियां प्रदान की गई थीं। जिस प्रकार अन्य राज्यों में शक्तियों का बंटवारा तीन सूचियों में दिया गया है, और यह स्वयं ही लागू किया जा सकता है, जम्मू-कश्मीर में केंद्र के पास सीमित शक्तियां हैं, और राज्य तथा समवर्ती सूची से संबंधित कानून को राज्य की अनुमति के आधार पर ही लागू किया जा सकता है।
राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक आदेश जारी करने के लिए राज्य की सहमति द्वारा संविधान के कुछ हिस्से को राज्य में लागू किया।
इसके बाद जम्मू-कश्मीर को अलग झण्डा, संविधान और संघ की सूची में संसद की शक्तियों को स्वीकारा गया।
अन्य राज्यों से भिन्न जम्मू-कश्मीर में आंतरिक अशान्ति के बाद भी आपातकाल या वित्तीय आपातकाल लागू नहीं किया जा सकता था। नीति निर्देशक तत्व लागू नहीं किए जा सकते थे। यह सब केवल राज्य सरकार ही सहमति से अनुच्छेद 368 में संशोधन से संभव था।
भारत सरकार द्वारा 31 अक्टूबर, 2019 से इस व्यवस्था को हटा दिया गया है, और जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के तहत इस राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- (जम्मू और कश्मीर) और (लद्दाख) में विभाजित कर दिया गया है।