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Class 11 Political Science Book-2 Ch-8 “स्थानीय शासन” Notes In Hindi

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Navya Aggarwal
Last Updated on

इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 11वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-2 यानी “भारत का संविधान-सिद्धांत और व्यवहार” के अध्याय-8 “स्थानीय शासन” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 8 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।

Class 11 Political Science Book-2 Chapter-8 Notes In Hindi

आप ऑनलाइन और ऑफलाइन दो ही तरह से ये नोट्स फ्री में पढ़ सकते हैं। ऑनलाइन पढ़ने के लिए इस पेज पर बने रहें और ऑफलाइन पढ़ने के लिए पीडीएफ डाउनलोड करें। एक लिंक पर क्लिक कर आसानी से नोट्स की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं। परीक्षा की तैयारी के लिए ये नोट्स बेहद लाभकारी हैं। छात्र अब कम समय में अधिक तैयारी कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही आप नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करेंगे, यह अध्याय पीडीएफ के तौर पर भी डाउनलोड हो जाएगा।

अध्याय- 8 “स्थानीय शासन”

बोर्डसीबीएसई (CBSE)
पुस्तक स्रोतएनसीईआरटी (NCERT)
कक्षाग्यारहवीं (11वीं)
विषयराजनीति विज्ञान
पाठ्यपुस्तकभारत का संविधान- सिद्धांत और व्यवहार
अध्याय नंबरआठ (8)
अध्याय का नामस्थानीय शासन
केटेगरीनोट्स
भाषाहिंदी
माध्यम व प्रारूपऑनलाइन (लेख)
ऑफलाइन (पीडीएफ)
कक्षा- 11वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- भारत का संविधान- सिद्धांत और व्यवहार
अध्याय-8 “स्थानीय शासन”

लोकतान्त्रिक देश में केन्द्रीय और प्रादेशिक स्तर पर सरकार बनाने के साथ-साथ स्थानीय स्तर के मुद्दों पर विचार करना भी आवश्यक हो जाता है। इसके लिए देश में स्थानीय मुद्दों के लिए भी सरकार की आवश्यकता होती है।

स्थानीय शासन की जरूरत

  • स्थानीय शासन वह है, जो जिला और गाँव के स्तर पर होता है। इसमें लोकतान्त्रिक फैसलों से स्थानीय हितों को साधना और आम नागरिकों के मुद्दों को सुलझाया जाता है।
  • स्थानीय शासन का लाभ यह है कि यह आम नागरिकों के सबसे नजदीक प्रक्रिया करता है, और उनकी समस्याओं का समाधान जल्द और प्रभावी तरीके से हो पाता है।
  • लोकतंत्र से आश्य सार्थक भागीदारी और जवाबदेही से है। स्थानीय शासन में आम जनता के मसलों और समस्याओं को सुलझाने उनके विकास और जागरूकता को बढ़ाने आदि विषय सम्मिलित हैं।
  • सामान्य नागरिकों का जुड़ाव राष्ट्रीय और प्रादेशिक सरकार के मुकाबले स्थानीय शासन से होता है। स्थानीय शासन द्वारा लिए गए निर्णयों का असर जनता पार सीधे तौर पर पड़ता है। लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने के लिए स्थानीय शासन को मजबूत करना आवश्यक है।

भारत और स्थानीय शासन

  • इतिहास के समय में भारत में सामुदायिक रूप से सभा का आयोजन किया जाता था, जैसे-जैसे समय बीता सभाओं को ग्राम पंचायत के रूप में बदल दिया गया। आगे आकर इन पंचायतों के कार्यों में भी बदलाव देखे जाने लगे।
  • लॉर्ड रिपन, तत्काल भारत के वायसराय ने 1982 में स्थानीय शासन के निर्वाचन निकायों की शुरुआत की। इसे मुकामी बोर्ड के नाम से जाना जाता था।
  • शुरुआती समय में इसपर धीमी गति से कार्य किया गया। 1919 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट बनने के बाद ग्राम पंचायतों का गठन किया गया, और यह प्रक्रिया गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के बाद भी जारी रही।
  • आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण पर महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही जोर दिया, जिसमें ग्राम पंचायतों को मजबूत करना सम्मिलित है।
  • विकास के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आम जनता का इसमें भागीदार होना आवश्यक है। लोकतंत्र का सहभागी पंचायत को माना गया।
  • स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं के अनुसार स्वतंत्रता वही है जब कार्यपालिका और प्रशासन की शक्तियों का विकेन्द्रीकरण हो।
  • संविधान के निर्माण के समय प्रदेशों को स्थानीय शासन के विषय दिए गए। इसका जिक्र नीति निर्देशक सिद्धांतों में किया गया है जिसके कारण स्थानीय शासन के विषयों को अदालत में नहीं अपितु स्थानीय स्तर पर सलाह मशविरा कर सुलझा लिया जाता है।
  • संविधान में स्थानीय शासन को ज्यादा स्थान नहीं दिया गया, इसके निम्नलिखित कारण रहे-
    1. पहला कारण था, देश की स्थिति को स्वतंत्रता के समय केंद्र को मजबूत करना ज्यादा आवश्यक माना जा रहा था, जिसके कारण स्थानीय क्षेत्रों को कम अधिकार दिया जाना सही लगा, जिससे देश की अखंडता बनी रहे।
    2. दूसरा कारण था, अंबेडकर द्वारा यह कहा जाना कि स्थानीय क्षेत्रों में पहले से ही जातीय आधारित व्यवस्था है, स्थानीय शासन की व्यवस्था से सभी के विकास का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो सकेगा। इससे ग्रामीण इलाकों में गुटबाजी और अन्य समस्याएं उत्पन्न होने लगेंगी।
स्वतंत्र भारत और स्थानीय शासन
  • संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के बाद स्थानीय शासन की बुनियाद मजबूत हुई। स्थानीय शासन को मजबूती प्रदान करने के लिए 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम बनाया गया।
  • इसमें त्रि-स्तरीय पंचायत बनाने की बात कही गई, जिसका मकसद था जनता की भागीदारी को स्थानीय शासन में बढ़ाना।
  • कुछ राज्यों में 1960 के निर्वाचन से स्थानीय निकायों की प्रणाली अपनाई गई। इन प्रदेशों में स्थानीय शासन के जरिए विकास कर पाना संभव नहीं था, ये केंद्र पर वित्तीय सहायता के लिए निर्भर थे।
  • कई प्रदेशों में विकास के लिए स्थानीय निकायों की आवश्यकता को नकार दिया गया। 1987 में पुनरावलोकन करना प्रारंभ किया, 1989 में पी.के. थुंगन समिति द्वारा इसे संवैधानिक दर्जा प्रदान कर दिया गया। इन निकायों को संविधान में संशोधन कर सभी प्रकार की सुविधाएं मुहैया कराई गईं।
73वां और 74वां संशोधन
  • 1989 में स्थानीय शासन को मजबूती प्रदान करने और इसके कार्यों में एकरूपकता लाने की बात पर जोर दिया गया, इस आधार पर दो संविधान संशोधन किए गए।
  • 1992 में 73वां और 74वां संशोधन को पारित कर दिया गया, जिसमें से 73वां संशोधन ग्रामीण और 74वां संशोधन शहरी स्थानीय शासन से संबंधित था।
  • ये दोनों ही 1993 में लागू कर दिए गए। स्थानीय शासन को राज्य सूची में रखा जाता है, जिसपर राज्य कानून बना सकता है।
  • 73वें संशोधन से आए बदलाव- (त्रि-स्तरीय बनावट)- पंचायती राज की व्यवस्था को त्रि-स्तरीय रखा गया था, इसमें पहले, ग्राम-पंचायत– जिसमें एक या एक से अधिक गाँव शामिल हैं। दूसरे, मध्यवर्ती स्तर पर खंड या तालुका आते हैं, और तीसरे पड़ाव पर, जिला पंचायत आता है, जिसमें पूरा ग्रामीण जिला आता है।
  • 73वें संशोधन के तहत ग्राम सभा को अनिवार्य कर दिया गया।
चुनाव
  • पंचायत के तीनों स्तर के चुनाव में जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी होती है, सदस्यों का चुनाव 5 वर्ष के लिए किया जाता है, सरकार के भंग हो जाने पर 6 महीने के अंदर दुबारा चुनाव कराए जाते हैं।
  • 73वें संशोधन से पूर्व दुबारा चुनाव करने का कोई प्रावधान नहीं था।
आरक्षण
  • इसमें एक तिहाई सीट पर महिलाओं का आरक्षण, तीनों स्तर पर अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण किया गया है।
  • अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण के लिए प्रदेश की सरकार को निर्णय लेना होता है। यह आरक्षण अध्यक्ष पदों पर भी दिया जाता है।
  • इसमें अनुसूचित जाति और जनजातियों की महिलाओं के लिए भी एक तिहाई सीटों का आरक्षण दिया गया है। इसके साथ ही सरपंच पदों के लिए आदिवासी या दलित महिला भी चुनाव लड़ सकती है।
विषयों का स्थानांतरण
  • उन सभी 29 विषयों को जिनका सबनध स्थानीय शासन और कार्यों से है, को संविधान में पहचान कर 11वीं अनुसूची में स्थान दिया गया है।
  • प्रदेश द्वारा यह निर्णय किया जाएगा कि इन 29 विषयों में से किस-किस को स्थानीय निकाय को देना होगा।
  • शुरुआत में 73वें संशोधन से आदिवासी समूहों को दूर रखा गया, 1966 में एक अधिनियम के बाद इन प्रावधानों में इस समूह को भी शामिल कर लिया गया।
  • इसमें इन समूहों के बुनियादी अधिकारों में कोई बदलाव नहीं किया गया। इसका उद्देश्य था, स्व-शासन की स्थानीय परंपरा भी बनी रहे और, इन समुदायों का परिचय आधुनिक बदलावों से भी हो सके।

राज्य चुनाव आयुक्त

  • इस तरह के आयोग की जिम्मेदारी पंचायती राज के चुनाव कराने की होती है, यह काम प्रदेश के प्रशासन से न करवाकर अब प्रदेश के चुनाव आयुक्त द्वारा कराया जा रहा, जैसे भारत का चुनाव आयुक्त स्वतंत्र रूप से चुनाव संचालित करता है।
  • उसी प्रकार प्रदेश का चुनाव आयुक्त भी स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकारी है।

राज्य वित्त आयोग

  • प्रदेश सरकार द्वारा राज्य स्तर पर वित्त आयोग की स्थापना की जानी चाहिए ताकि स्थानीय शासन में आर्थिक स्थिति को जांचा जा सके, जिससे स्थानीय कामकाज के स्तर पर आर्थिक समस्या न उत्पन्न हो और यह राजनीतिक मुद्दा न बन जाए।

74वां संशोधन

  • इसका संबंध नगरपालिका से है, इसे शहरी स्थानीय शासन भी कहा जाता है।
  • 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की 31% जनसंख्या शहरों में रहती है। वे इलाकें जिनमें 5000 या इससे अधिक की जनसंख्या का वास हो। 75% कामकाजी पुरुषों का मुख्य कार्य खेती न हो, और हर किलोमीटर पर 400 या इससे अधिक की जनसंख्या का वास हो, शहरी इलाके कहलाते हैं।
  • 73वें संशोधन के सभी प्रावधान नगरपालिकाओं के लिए 74वें संशोधन में भी दिए गए हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि प्रदेश की सरकार कुछ फैसले (जिनकी चर्चा संविधान की 12वीं अनुसूची में भी दी गई है) स्थानीय शासन पर ही छोड़ दें।

74वें और 73वें संशोधन में क्रियान्वयन

  • 73वें संशोधन को लागू हुए 10 वर्ष हो चुके हैं, जिसे लगभग सभी स्थानीय निकायों में प्रयोग कर चुनाव कराए गए हैं।
  • भारत में जिला पंचायतों की संख्या 600 से अधिक, मध्यवर्ती पंचायतों की 6000 से अधिक संख्या है, ग्राम पंचायतों की संख्या 2,40,000 है।
  • वहीं शहरों में यह नगर निगम-100, नगरपालिका-1400 और नगर पंचायत- 2000 हैं। हर पाँच साल में इसमें 32 लाख लोग निर्वाचित होते हैं।
  • इन संशोधनों द्वारा नगर और ग्रामीण पंचायती राज को एक ही स्वरूप प्रदान किया है, जिसमें महिलाओं की मौजूदगी में इजाफा देखा गया है। इसमें महिलाओं ने सरपंच पदों पर भी अपनी जगह बनाई है।
  • जिला पंचायतों पर 200 और तालुका पंचायतों पर 2000 और ग्राम पंचायतों में 80,000 से भी ज्यादा महिलाएं अध्यक्ष पदों पर विराजमान हैं। नगरीय स्थानीय शासन में भी यह आंकड़ा संतोषजनक है।
  • इन संस्थाओं में महिलाओं की वृद्धि से विचार-विमर्श के विषयों को नई राह मिल जाती है और अन्य महिलाओं में भी अब राजनीतिक समझ विकसित हुई है।
  • कई मामलों में यह देखा गया है कि महिलाओं के इन पदों पर आसीन होने के कारण, पुरुष उनके निर्णयों को बदलने का या उनके निर्णय लेने का प्रयास करते हैं। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में यह आँकड़े कम होते भी दिखे हैं।
विभिन्न जातियों के लिए आरक्षण
  • भारत की जनसंख्या का 16.2% हिस्सा अनुसूचित जाति और 8.2% भाग अनुसूचित जनजाति का है। इन जातियों के लिए आरक्षण संविधान संशोधन द्वारा अनिवार्य कर दिया गया है।
  • स्थानीय शासन में चाहे वह शहरी हो या ग्रामीण इन समुदायों के सदस्यों की बड़ी संख्या देखी जा सकती है।
  • लेकिन कुछ वर्षों में देखा गया है, गांवों पर नियंत्रण रखने वाले तबके अपने नियंत्रण को छोड़ना ही नहीं चाहते, इससे सत्ता पर संघर्ष बढ़ जाता है।
  • यह तनाव होना अनिवार्य भी है, जैसे ही लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए कमजोर वर्ग के हाथों में शक्तियां दी जाएंगी, संघर्ष उत्पन्न होगा।

स्थानीय शासन के 29 विषय

  • इन 29 विषयों को संविधान में संशोधन कर स्थानीय शासन के हाथों में दे दिया गया है, जिसमें जनकल्याण और विकास के विषय सम्मिलित हैं।
  • पुराने अनुभवों के अनुसार भारत में इन निकायों को कार्य करने की स्वतंत्रा नहीं दी जाती है, जिससे प्रतिनिधियों को चुना जाना मात्र एक औपचारिकता बनकर रह गई है।
  • ऐसा माना जाता है कि ये निकाय प्रादेशिक और केन्द्रीय स्तर के निर्णयों में कोई बदलाव नहीं कर सकते और साथ ही इसमें जनता के पास संसाधनों के आबंटनों से संबंधित ज्यादा विकल्प प्रदान नहीं किए गए हैं।
  • स्थानीय निकायों के पास धन की कमी होती है, जिसके लिए वे केंद्र या प्रदेश की सरकार पर आश्रित होते हैं।
  • इन निकायों की कमाई कम और खर्चे ज्यादा होते हैं, जिसके लिए इन्हें अनुदानों का आश्रय लेना पड़ता है।
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