इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 11वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक-2 यानी “भारत का संविधान-सिद्धांत और व्यवहार” के अध्याय-9 “संविधान- एक जीवंत दस्तावेज” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय-9 राजनीति विज्ञान के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 11 Political Science Book-2 Chapter-9 Notes In Hindi
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अध्याय-9 “संविधान- एक जीवंत दस्तावेज”
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | ग्यारहवीं (11वीं) |
विषय | राजनीति विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | भारत का संविधान- सिद्धांत और व्यवहार |
अध्याय नंबर | नौ (9) |
अध्याय का नाम | संविधान- एक जीवंत दस्तावेज |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 11वीं
विषय- राजनीति विज्ञान
पुस्तक- भारत का संविधान- सिद्धांत और व्यवहार
अध्याय-9 “संविधान- एक जीवंत दस्तावेज”
अपरिवर्तनीय संविधान
- परिस्थितियों की मांग के अनुसार कई देशों में संविधान को दुबारा बनाया गया, जैसे सोवियत संघ में 74 वर्षों में 4 बार संविधान को बदला गया।
- इसके बाद 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया, और रूसी गणराज्य का नया संविधान 1993 में बनाया गया।
- भारतीय संविधान को बने 69 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन आज तक भारत की सरकार इसके आधार पर ही अपनी नीतियों और कानूनों का निर्माण करती है।
- भारतीय संविधान की प्रकृति इस देश के बेहद अनुकूल बैठती है, संविधान निर्माताओं ने काफी हद तक देश की आने वाली स्थिति का अंदाजा पहले ही लगा लिया था।
- लेकिन पूर्ण रूप से अनुकूल होने के बाद भी भारतीय संविधान में भी परिस्थितियों के अनुसार बदलाव करने पड़ते हैं।
- इस बदलने की प्रक्रिया को संविधान संशोधन कहा जाता है, साथ ही इसमें कही गई कुछ संवैधानिक बातों की एक से अधिक व्याख्याएं भी हो सकती हैं। इसी कारण भारतीय संविधान को लचीला कहा जाता है।
संविधान निर्माण के समय स्थिति
- संविधान निर्माताओं के लिए संविधान को लचीला बनाना इसलिए आवश्यक रहा, क्योंकि वे इसे बदलाव योग्य बनाना चाहते थे, और ये बदलाव आवश्यक भी होने चाहिए, इन दोनों ही तत्वों को ध्यान में रखा गया।
- पूर्ण दोषमुक्त संविधान का निर्माण करना मुमकिन नहीं था। ऐसे संविधान की आवश्यकता थी कि त्रुटियों का निवारण आसान हो सके।
- संविधान में संघीय प्रावधानों की व्यवस्था की गई है, जिसमें राज्य और केन्द्रीय महत्व के मसलों को संविधान संशोधन करके बदला नहीं जा सकता।
संविधान संशोधन की प्रक्रिया
संसद में सामान्य बहुमत के आधार पर- कतिपय अनुच्छेदों में निर्दिष्ट प्रक्रिया के अनुसार। | संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग बहुमत के आधार पर- अनुच्छेद 368 के अनुसार। | विशेष बहुमत + कुल राज्यों की आधी विधायिका – अनुच्छेद- 368 के अनुसार। |
- कुछ विशेष मामलों में संसद सामान्य प्रक्रिया द्वारा भी संशोधन कर सकती है। इस तरह के संशोधन और सामान्य कानून में अंतर नहीं होता।
- इस तरह के मामलों में संसद अनुच्छेद 368 का इस्तेमाल किए बिना ही परिवर्तन कर सकती है।
- अनुच्छेद-368 में भी संविधान संशोधन के लिए दो प्रक्रियाएं दी गई हैं। जिसमें, एक कहता है कि संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता है, और दूसरे में, संसद का विशेष बहुमत और राज्य की विधानसभा में आधी संख्या की जरूरत होती है।
- इसके बाद सामान्य विधेयक की तरह ही राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है, लेकिन राष्ट्रपति को पुनर्विचार करने की जरूरत इस स्थिति में नहीं है।
- यह प्रक्रिया जटिल एवं कठोर भी हो सकती है, लेकिन भारतीय संविधान को इन जटिलताओं से सुरक्षित रखा गया है। संशोधन की प्रक्रिया में मुख्य भूमिका जनता द्वारा निर्वाचित किए गए प्रतिनिधियों की होती है।
विशेष बहुमत
- किसी विधेयक को पास करने के लिए विधायिका में सदस्यों के बहुमत की जरूरत होती है। संशोधन के विधेयक के लिए विधेयक के पक्ष में खड़े सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्य संख्या की आधी या उससे अधिक होनी चाहिए।
- इसके अलावा, संशोधन के पक्ष के सदस्यों की संख्या मतदान में हिस्सा लेने वाले सदस्यों की एक तिहाई होना आवश्यक है। संशोधन विधेयक को बहुमत के बिना पारित नहीं किया जाता।
विशेष बहुमत का अर्थ
- लोकसभा के 545 सदस्यों में से संशोधन विधेयक के लिए 273 सदस्यों की जरूरत होती है, यदि सदन में सदस्यों की संख्या 300 है, तो विधेयक पास कराने के लिए 273 सदस्यों के पक्ष की आवश्यकता होगी।
- इसके साथ ही संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र बहुमत भी प्राप्त होना चाहिए। यदि सत्तारुढ़ दल चाहे, तो विरोधी पार्टियों के विरोध करने पर अपनी पसंद का विधेयक बहुमत के बिना भी पारित करा सकता है लेकिन संशोधन विधेयक के साथ ऐसा नहीं है।
राज्यों का अनुमोदन
- संविधान में संशोधन की प्रक्रिया में कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत के अलावा, राज्य से सलाह-मशवरा को अनिवार्य बनाया गया है।
- वे अनुच्छेद हैं- केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण और जन प्रतिनिधियों से संबंधित अनुच्छेद। इस तरह के संशोधनों के लिए जब तक आधे राज्यों की विधानपालिकाएं संशोधन को पारित नहीं करतीं तब तक संशोधन नहीं किया जा सकता।
- इस प्रकार कहा जाता है कि राजनीति की सहमति से संविधान संशोधन करने में मदद मिलती है। संविधान निर्माताओं ने कठोर और लचीले संविधान का निर्माण कर भावी पीढ़ी के लिए इसे कुछ शर्तों के साथ परिवर्तनीय बनाया है।
- इसे इतना कठोर बनाया गया है कि कोई भी आसानी से इसमें परिवर्तन न कर सके, लेकिन इतना लचीला भी बनाया गया है कि जरूरत पड़ने पर आवश्यक परिवर्तन किए जा सके।
संशोधन की आवश्यकता
- पिछले 69 वर्षों में 2021 तक भारतीय संविधान में 105 संशोधन किए गए। 1970 से 1990 के बीच बड़े स्तर पर संशोधन हुए, इसके बाद 1974 से 76 के बीच दस संशोधन किए गए। 2001 और 2003 के बीच 10 संवैधानिक संशोधन किए गए।
- संविधान संशोधनों को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है-
1. पहले वर्ग में तकनीकी और प्रशासनिक प्रकृति के रहे, इनमें ज्यादातर तकनीकी भाषा में संशोधन किए गए। (उदाहरण) 15वां संशोधन जिसमें उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की आयु सीमा को बढ़ा कर 60 से 62 कर दिया गया।
2. दूसरे वर्ग में सरकार और न्यायपालिका के बीच शक्ति वितरण संबधित मतभेदों को रखा जाता है। (उदाहरण) इसमें सरकार और न्यायपालिका के बीच मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक सिद्धांतों को लेकर मतभेद होते थे, जिसके चलते 1970 से 75 के बीच संविधान में बार-बार संशोधन किए गए।
3. तीसरे वर्ग में वे संशोधन आते हैं, जो राजनीतिक और सामाजिक इच्छाओं को अपने में सम्मिलित किए हुए हैं। (उदाहरण) इस तरह के संशोधन 1984 के बाद अधिक हुए, जिससे दल विरोधी कानून में 52वें संशोधन से बदलाव हुए। इसके साथ ही इस काल में नौकरियों में आरक्षण संबंधित नियमों में परिवर्तन किए गए।
संशोधन: विवाद
- 70 और 80 के दशक में संविधान के संशोधन से संबंधित विधियों और राजनीतिक विचारों के टकराव से कई विवाद हुए। विरोधी दलों के अनुसार सत्ता में विराजमान लोग संविधान के स्वरूप को बदलने का प्रयास कर रहे थे।
- मुख्य रूप से 38वां, 39वां और 42वां संशोधन सबसे अधिक विवादास्पद रहा। ये संशोधन आपातकाल के समय पर किए गए, जिनका प्रधान लक्ष्य था संविधान के आधारभूत हिस्सों में बदलाव लाना।
- 42वें संशोधन ने संविधान को प्रभावित किया, इस संशोधन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के केशवानन्द भारती मामले पर लिए गए निर्णय को भी चुनौती दी गई, और लोकसभा सदस्यों की अवधि को 5 से 6 वर्ष का कर दिया गया।
- मूल कर्तव्यों को संविधान में स्थान दिया गया। ऐसा कहा जाता है कि इस संशोधन से संविधान के बड़े हिस्से में परिवर्तन किए गए।
- इस संशोधन को पास करते समय विरोधी दलों के कई सांसदों को जेल में रखा गया। जिसके बाद 1977 के आम चुनावों में काँग्रेस की हार भी हुई।
- नई सरकार ने संविधान के 43वें और 44वें अनुच्छेद में परिवर्तन कर इन तीनों संशोधनों से हुए परिवर्तनों को समाप्त कर दिया।
संविधान की मूल संरचना का विकास
- भारतीय संविधान के विकास को बल केशवानन्द भारती मामले के बाद मिला, ये बदलाव इस प्रकार थे-
- संविधान संशोधन शक्तियों की सीमांए निर्धारित की गईं।
- इसके किसी या सभी भागों में संशोधन की अनुमति दी गई ।
- संविधान की संरचना और बुनियादी तत्वों के उल्लंघन करने वाले संशोधन पर न्यायपालिका का फैसला अंतिम माना जाएगा।
- भारत के संविधान को जीवंत संविधान का उदाहरण माना जाता है। इसे न्यायिक व्याख्या से जन्मा विचार भी कहा जाता है। इसके पश्चात न्यायपालिका की व्याख्या से भी संविधान संशोधन किया गया है।
- न्यायपालिका के बुनियादी संरचना के सिद्धांत से संविधान की कठोरता और लचीलापन संतुलन की स्थिति में आया है।
न्यायिक व्याख्या के सिद्धांत
- नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण सीमा तय करने और आरक्षित सीटें निर्धारित करने का फैसला।
- ओबीसी वर्ग को आरक्षण देने के लिए क्रीमी लेयर में आ रहे ओबीसी वर्ग को आरक्षण न देने का प्रावधान किया गया है।
- इसके साथ ही न्यायपालिका ने शिक्षा, स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के लिए संस्थाओं की स्थापना और प्रबंधन के लिए कई संशोधन किए हैं, जिनसे संविधान के विकास में मदद मिली है।
संविधान एक जीवंत दस्तावेज
- संविधान मनुष्य की ही तरह जरूरत पड़ने पर समय अनुसार परिवर्तन कर पाने की क्षमता रखता है। समाज में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार यह भी स्वयं को उसे गतिशीलता के अनुरूप ढाल लेता है।
- अपनी इसी विशेषता के कारण यह इतना प्रभावी रूप से कार्य कर रहा है, जो लोकतान्त्रिक संविधान की सार्थकता भी है।
- लोकतान्त्रिक समाज में विचारों और व्यवहार में परिवर्तन आते रहते हैं। नागरिकों को समर्थ बनाने और विकास के मार्ग को प्रशस्त करने वाले संविधान के प्रति नागरिकों में सम्मान का भाव होता है।
- 1950 में संवैधानिक मुद्दों में सबसे अधिक बड़ा प्रश्न था संसदीय सर्वोच्चता, संसदीय लोकतंत्र में न्यायपालिका और कार्यपालिका से ऊपर संसद को रखा गया है।
- इसके साथ ही संविधान में सरकार के अन्य अंगों को भी शक्तियां दी गईं हैं, ऐसा माना जाता है कि संसद को संविधान के अनुरूप ही शक्तियां प्रदान की जानी चाहिए।
न्यायपालिका का योगदान
- न्यायपालिका और संसद में इस बात को लेकर विवाद हुआ- संसद का मानना था कि गरीब और पिछड़े वर्गों के हितों की रक्षा के लिए कानून संसद बना सकती है।
- न्यायपालिका के अनुसार इस तरह के निर्णय विधिक सीमाओं में रहकर लिए जाने चाहिए, ताकि सत्ताधारी इसका दुरुपयोग न कर सकें।
- जनकल्याण के साथ-साथ अधिकारों के दुरुपयोग न होने वाली बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
- केशवानन्द भारती मामले पर न्यायालय ने मूल संरचना का निर्माण कर निर्णय लिया, जिसका जिक्र संविधान में नहीं किया गया है।
- न्यायपालिका ने दस्तावेज में लिखे शब्दों के निहितार्थ के आधार पर निर्णय किया। कानून की भाषा से कई अधिक उस भाषा के पीछे काम कर रही भावनाएं ज्यादा महत्त्व रखती हैं।
- संविधान की मूल संरचना का ध्यान रखते हुए, न्यायपालिका ने अपना निर्णय लिया।
राजनीतिज्ञों की परिपक्वता
- 1967 से 73 के बीच संसद और कार्यपालिका द्वारा एक संतुलित समाधान जरूरी लगा। सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानन्द मामले पर दुबारा जांच के प्रयास किए, लेकिन विफलता के बाद 42वां संशोधन किया गया और संसद को सर्वोच्च माना, लेकिन 1980 में न्यायालय ने अपने पुराने निर्णयों को दोहराया।
- राजनैतिक दलों, संसद और सरकार ने भी मूल संरचना के विचार को स्वीकार।
- संविधान निर्माता और जनता नागरिकों की गरिमा, स्वतंत्रता एवं जनता की खुशहाली के साथ-साथ एकता में विश्वास करते थे।
- यह भाव जनता और नेताओं के बीच आज भी जीवित है, जिसने संविधान के प्रति नागरिकों के मन में आज भी सम्मान के भाव को जीवित रखा है।
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