जैसे तुलसीदास जी को महान राम भक्त माना जाता था ठीक उसी प्रकार ही सूरदास जी को भी कृष्ण भक्त माना जाता था। वह हर पल कृष्ण की भक्ति में ही डूबे रहते थे। उनकी भक्ति की चर्चा हर जगह थी। बहुत लोग यह मानते हैं कि वह जन्म से ही अंधे थे। तो कई लोग ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि वह बचपन से अंधे नहीं थे। बल्कि वह बाद में अंधे हुए। सूरदास का जन्म रुनकता’ नामक ग्राम में हुआ था। इनका जन्म 1478 ई० के आसपास माना जाता है। इनके पिता का नाम पंडित राम दास जी था। इनकी माता का नाम जमुनादास था। तो आज हम सूरदास की जीवनी के बारे में (surdas ka jeevan parichay) हिंदी में जानेंगे।
सूरदास की महत्वपूर्ण जानकारी | |
जन्म स्थान | रुनकता ग्राम |
जन्म तारीख | 1478 ई० |
नाम | सूरदास |
मृत्यु का स्थान | पारसौली |
पिता का नाम | पंडित रामदास |
माता का नाम | जमुनादास बाई |
गुरु | आचार्य बल्लभाचार्य |
भक्ति का रूप | कृष्ण की भक्ति |
निवास स्थान | श्रीनाथ मंदिर |
भाषा की शैली | ब्रज |
काव्य कृतियां | सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी |
साहित्य में योगदान | कृष्ण की बाल- लीलाओं तथा कृष्ण लीलाओं का चित्रण |
रचनाएं | सूरसागर, साहित्य लहरी, सूरसारावली |
पत्नी का नाम | कई लोग मानते हैं उनका नाम रत्नावली था। कई लोग मानते हैं कि वह ब्रह्मचारी थे। |
सूरदास का बचपन
सूरदास का जन्म 1478 में सीही में हुआ था। उनका घर रुनकता गाँव में था। कहते हैं कि सूरदास जी का जन्म सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका परिवार निर्धनता के साथ अपना गुजारा कर रहा था। वह अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। बहुत से लोग यह मानते हैं कि वह जन्म से ही अंधे थे। क्योंकि वह अंधे थे इसलिए उनके माता-पिता और बड़े भाई इनका सम्मान नहीं करते थे।
वह हर पल सूरदास के अंधेपन का मजाक उड़ाते थे। कोई भी माता-पिता का यह फर्ज बनता है कि वह अपने बच्चे की जरूरतों को पूरा करे। लेकिन सूरदास के माता-पिता का दिल सूरदास के लिए पत्थर की तरह था। इनके माता और पिता इतने निर्दयी थे कि वह सूरदास को ढंग से खाना तक भी नहीं देते थे। इस तरह के भेदभाव से सूरदास का मन एक पल के लिए दुखी होता था पर फिर भी वह अपने आप को संभाल लेते थे। उनका सबसे अच्छा सहारा श्री कृष्ण थे। उन्होंने बचपन से ही भगवान की भक्ति करनी शुरू कर दी। भगवान श्री कृष्ण से उनका एक अलग प्रकार का ही नाता जुड़ गया था।
सूरदास की शिक्षा
सूरदास जी श्री कृष्ण के परम भक्त थे। वह हर पल भगवान की भक्ति में ही डूबे रहते थे। भगवान को पाने की इच्छा की लालसा के चलते ही एक दिन उन्होंने वृन्दावन धाम जाने की सोची। आखिरकार वह वहां के लिए रवाना हो ही गए। अंत में जब वह वृन्दावन पहुंचे तो उन्हें वहां पर एक ऐसे शख्स मिले जिनकी वजह से उनके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। सूरदास जी को वहां पर बल्लभाचार्य जी मिले।
वह सूरदास जी से मात्र 10 साल ही बड़े थे। बल्लभाचार्य जी का जन्म 1534 में हुआ था। उस समय वैशाख् कृष्ण एकादशी चल रही थी। बल्लभाचार्य जी की नजर मथुरा की गाऊघाट पर बैठे एक इंसान पर गई। वह शख्स श्री कृष्ण की भक्ति में डूबा हुआ नजर आ रहा था।
जब बल्लभाचार्य जी ने उसके पास आकर उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम सूरदास बताया। बल्लभाचार्य जी सूरदास जी के व्यक्तित्व से इतना ज्यादा प्रभावित हुए कि उन्होंने सूरदास जी को अपना शिष्य बना लिया। वह सूरदास जी को श्रीनाथ जी ले गए। और वहां पर उन्होंने इस कृष्ण भक्त को मंदिर की जिम्मेदारी भी सौंप दी। वहां पर वह अनेकों भजन लिखने लगे। बल्लभाचार्य जी की शिक्षा के चलते सूरदास जी के जीवन को एक सही दिशा मिल गई।
अकबर और सूरदास जी का संबंध
अकबर और सूरदास जी के जीवन से संबंधित एक प्रसिद्ध कहानी है। इस कहानी के अनुसार सूरदास जी के भजनों की चर्चा देश के हर एक कोने में फैल गई थी। यही चर्चा अकबर के कानों तक भी पहुंची। अकबर ने सोचा कि तानसेन के अलावा ऐसा कौन सा संगीत सम्राट हो सकता है? इसी प्रश्न को जानने की लालसा में अकबर सूरदास जी से मिलने मथुरा पहुंच गए। मथुरा पहुंचकर उन्होंने सूरदास जी से कहा कि वह उनको श्री कृष्ण के मधुर भजन गाकर सुनाए। अकबर ने कहा कि अगर सूरदास जी उसको भजन गाकर सुनाएंगे तो वह उनको खूब सारा धन देगा। इस बात पर सूरदास जी ने कहा कि उनको कोई तरह की धन दौलत की लालसा नहीं है। ऐसा कहकर वह अकबर को भजन सुनाने लगे। उस दिन के बाद से ही अकबर सूरदास जी का मुरीद हो गया।
विवाह से संबंध
बहुत से लोगों का यह मत है कि सूरदास जी का विवाह कभी हुआ ही नहीं था। वही कई लोग ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि सूरदास जी का विवाह रत्नावली नाम की एक सुंदर महिला से हुआ था। अब सभी लोगों की अपनी-अपनी राय है। हर किसी का अलग मत है।
सूरदास और सूरसागर की रचना
आज जिस महान ग्रंथ सूरसागर को हम अपने घर में रखते हैं, क्या आपको पता है कि वह किसने लिखी थी? दरअसल सूरसागर की रचना सूरदास जी ने ही की थी। सूरसागर को हिंदू धर्म का महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। माना जाता है कि इस ग्रंथ को 15 वीं शताब्दी में रचा गया था। इस महान ग्रंथ में एक लाख से भी अधिक श्री कृष्ण के भजन और भजन थे। पर आज के समय में यह भजन एक लाख से घटकर केवल 5000 ही रह गए हैं।
रचनाएं
सूरदास जी श्री कृष्ण के इतने बड़े भक्त थे कि उन्होंने भगवान के लिए खूब सारे भजन और दोहे लिख डाले। वह अपने भजनों के माध्यम से लोगों के मन में श्री कृष्ण के प्रति भक्ति भाव जगाना चाहते थे। सूरदास जी की प्रमुख रचनाएं हैं – सूर सागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती, सूर पच्चीसी, गोवर्धन लीला, नाग लीला, पद संग्रह और ब्याहलो।
निधन
महान भक्त सूरदास जी का निधन 1583 ईस्वी में हो गया था। निधन के समय वह गोवर्धन के निकट पारसौली गाँव में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। उन्होंने श्री कृष्ण के चरणों में ही अपने आप को समर्पित कर दिया था। आज के समय में हम भगवान के प्रति इतना त्याग और समर्पण किसी भी मनुष्य में नहीं देख सकते हैं। सूरदास जी पर श्री कृष्ण की असीम कृपा थी। अंधा होने की वजह से भले ही अपनों ने उनसे मुँह मोड़ लिया था। परंतु श्री कृष्ण जी ने उन्हें कभी भी अकेला नहीं पड़ने दिया।
महापुरुषों की जीवनी भी पढ़ें | |
मीराबाई | महात्मा गांधी |
जयशंकर प्रसाद | तुलसीदास |
सूरदास पर आधारित FAQs
सूरदास जी का जन्म 1478 ई० में रुनकता गाँव में हुआ।
सूरदास जी के पिता का नाम पंडित रामदास था। और उनकी माता का नाम जमुनादास बाई था। उनका परिवार सारस्वत ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखता था।
सूरदास जी के गुरु का नाम आचार्य बल्लभाचार्य था।
सूरदास जी को कृष्ण भक्ति के लिए जाना जाता है। उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में अनेकों रचनाएं ऐसी लिखी जो भगवान श्री कृष्ण को समर्पित थी।
सूरदास जी की प्रमुख रचनाएं हैं – सूर सागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती, सूर पच्चीसी, गोवर्धन लीला, नाग लीला, पद संग्रह और ब्याहलो।
दास जी की पत्नी का नाम रत्नावली था।