इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 10वीं कक्षा की इतिहास की पुस्तक यानी “भारत और समकालीन विश्व-2” के अध्याय- 3 “भूमंडलीकृत विश्व का बनना” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय- 3 इतिहास के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 10 History Chapter-3 Notes In Hindi
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अध्याय-3 “भूमंडलीकृत विश्व का बनना“
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | दसवीं (10वीं) |
विषय | सामाजिक विज्ञान |
पाठ्यपुस्तक | भारत और समकालीन विश्व-2 (इतिहास) |
अध्याय नंबर | तीन (3) |
अध्याय का नाम | “भूमंडलीकृत विश्व का बनना” |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 10वीं
विषय- सामाजिक विज्ञान
पुस्तक- भारत और समकालीन विश्व-2 (इतिहास)
अध्याय- 3 “भूमंडलीकृत विश्व का बनना”
आधुनिक युग से पहले रेशम मार्ग से जुड़ती दुनिया
- भूमंडलीकृत विश्व पूँजी एवं बहुत सारी चीजों की आवाजाही का एक लंबा इतिहास है।
- प्राचीन काल में लोग अनेक कारणों से दूर यात्राओं पर जाते थे।
- 3000 ईसा पूर्व व्यापार के माध्यम से सिंधु घाटी सभ्यता पश्चिमी एशिया से जुड़ी थी।
- आधुनिक युग से पहले दुनिया के दूर-दूर हिस्सों में रेशम मार्ग की वजह से व्यापारिक और सांस्कृतिक व्यवहार जीवंत हो उठे थे।
- रेशम मार्ग ने एशिया को यूरोप और अफ्रीका से जोड़ा था।
- रेशम मार्ग के जरिए भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के कपड़े और मसाले दुनिया के दूसरे भागों में पहुँचते थे।
- यूरोप से एशिया सोना-चाँदी जैसी कीमती धातुएँ आती थीं।
- उस समय व्यापार के साथ-साथ संस्कृति का भी आयात-निर्यात होता था।
- पूर्वी भारत का बौद्ध धर्म रेशम मार्ग की विविध शाखाओं के माध्यम से अनेक दिशाओं में फैल चुका था।
दूर देशों के बीच खाद्य पदार्थों का आदान-प्रदान
- खाद्य पदार्थ दूर देशों के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ाने का आधार थे। इसमें झटपट तैयार किए जाने वाले खाद्य पदार्थ भी शामिल थे।
- नूडल्स चीन से पश्चिम पहुँचा और 5वीं शताब्दी में पास्ता अरब यात्रियों के साथ सिसली (इटली) पहुँचा।
- आधुनिक काल से पहले भी दूरदराज के देशों के बीच सांस्कृतिक लेन-देन चल रहा था।
- कुछ ऐसी फसलें थीं जो लगभग पाँच सौ साल पहले हमारे पूर्वजों ने नहीं देखी थीं।
- यात्री कोलंबस के कारण नए खाद्य पदार्थों की पहुँच यूरोप और एशिया तक संभव हो पाई थी।
- कई बार नई फसलों के आने से लोगों का जीवन खुशियों से भर जाता था।
- आलू के उपयोग से यूरोप के गरीब लोगों का भोजन बेहतर हो गया और उनकी औसत उम्र बढ़ने लगी।
- आयरलैंड के काश्तकारों की निर्भरता आलू पर इतनी अधिक थी कि 1840 के दशक में आलू की फसल खराब होने की वजह से लाखों लोग भूख के कारण मर गए।
16वीं सदी में विजय, बीमारी और व्यापार
- जब 16वीं सदी में यूरोपीय जहाजियों ने एशिया तक पहुँच बना ली और अमेरिका तक भी पहुँच गए तब पूर्वी-आधुनिक विश्व छोटा नजर आने लगा।
- पहले अमेरिका का दूसरे देशों के साथ कोई संपर्क नहीं था लेकिन 16वीं सदी के बाद वहाँ की विशाल भूमि पर उगाई जाने वाली फसलें एवं खनिज पदार्थ वैश्विक स्तर पर अलग पहचान बनाने लगे।
- पेरू और मैक्सिको की खानों से निकलने वाले कीमती धातुओं ने अमेरिका की संपत्ति को बढ़ाया और पश्चिम एशिया के साथ होने वाले व्यापार को गति प्रदान की।
- इस सदी तक पुर्तगाली और स्पेनिश सेनाओं की विजय का सिलसिला शुरू हो गया था।
- अमेरिका को उपनिवेश बनाने की कोशिश की जाने लगी।
- उस समय अमेरिका के लोगों में यूरोप से आने वाली बीमारियों से लड़ने की क्षमता नहीं थी।
- चेचक बीमारी पूरे महाद्वीप में फैल गई थी।
- बीमारी फैलने के कारण घुसपैठियों की जीत का रास्ता आसान होने लगा था।
- 19वीं सदी तक यूरोप में गरीबी और भूख चारों तरफ फैली हुई थी।
- शहरों में जनसंख्या अधिक थी और धार्मिक लड़ाई-झगड़े दैनिक जीवन का हिस्सा थे।
- अमेरिका में अफ्रीका के गुलामों से कपास और चीनी का उत्पादन करवाया जाता था।
- 18वीं सदी में चीन और भारत को धनी देशों में गिना जाता था।
- 15वीं सदी में चीन ने दूसरे देशों से दूरियां बना ली थीं जिसके कारण वह बाकी देशों से अलग-थलग पड़ने लगा।
- यूरोप विश्व व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र था।
19वीं शताब्दी में विश्व अर्थव्यवस्था का उदय एवं तकनीकी बदलाव
- खाद्य पदार्थ के मामले में सभी देश आर्मनिर्भर होना चाहते थे।
- 18वीं सदी के अंत में ब्रिटेन की आबादी तेजी से बढ़ने लगी थी।
- कृषि उत्पादों की माँग बढ़ने की वजह से इनकी किमतें भी बढ़ने लगीं।
- सरकार ने ‘कॉर्न लॉ’ के तहत मक्के के आयात पर पाबंदी लगा दी थी।
- उद्योगपतियों और शहरी लोगों के विरोध के कारण ‘कॉर्न लॉ’ को समाप्त कर दिया गया।
- ‘कॉर्न लॉ’ के समाप्त होने के बाद बहुत कम कीमतों पर खाद्य पदार्थों का आयात किया जाने लगा था।
- दुनिया के हर हिस्से में ब्रिटेन के लिए जमीनों को साफ करके खेती की जाने लगी।
- अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे स्थानों पर श्रम का प्रवाह होने लगा।
- 19वीं सदी में यूरोप के लगभग पाँच करोड़ लोग अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया में बस गए।
- उस दौरान दुनिया के लगभग पंद्रह करोड़ लोग अच्छे भविष्य के लिए अपने घर को छोड़कर दूसरे देशों में काम करने चले गए थे।
- ब्रिटिश कपड़ा मिलों की माँग को पूरा करने के लिए दुनिया में बड़े पैमाने पर कपास की खेती की जाने लगी।
- विभिन्न क्षेत्रों के उत्पादन की हिस्सेदारी 1820 से 1914 के बीच विश्व व्यापार में 25 से 40 गुना बढ़ गई।
- व्यापार में लगभग 60% हिस्सा सिर्फ गेहूँ, कपास और कोयले जैसे खनिज पदार्थ का था।
- रेलवे, भाप के जहाज और टेलिग्राफ ये तीनों महत्त्वपूर्ण बदलाव थे।
- तकनीकी प्रगति सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों का चौतरफा परिणाम होती है।
- रेल के निर्माण और उसके विकास ने कम लागतों पर आयात-निर्यात को आसान कर दिया।
- 1870 के दशक तक अमेरिका से यूरोप को मांस के लिए जिंदा जानवर निर्यात किया जाता था।
- पानी की जहाज में रेफ्रिजरेशन की तकनीक स्थापित कर दी गई, जिससे जल्दी खराब होने वाली चीजों को भी दूर देशों में आसानी से ले लाया जा सकता था।
- नई तकनीक के आने से अब जानवरों के स्थान पर उनके मांस को यूरोप में निर्यात किया जाने लगा।
- यरोप में तकनीक व्यवस्था की वजह से मांस के दाम कम हो गए और समुद्री लागत भी कम हो गई।
- लोगों की जीवन स्थिति सुधरने लगी। बहुत से लोगों के आहार में मांसाहार और मक्खन शामिल हो गया।
19वीं शताब्दी के अंत में उपनिवेशवाद
- 19वीं शताब्दी के अंत तक व्यापार एवं बाजार तेजी से फैलने लगे थे।
- इस समय एक बदलाव यह भी हुआ कि लोगों से स्वतंत्रता और आजीविका के साधन छीन लिए गए।
- 19वीं सदी के आखिर में यूरोपीयों की विजय से सभी क्षेत्रों में बहुत सारे कष्टकारी परिवर्तन आए। उसी समय औपनिवेशिक सामाजों को विश्व अर्थव्यवस्था में शामिल कर लिया गया।
- वर्ष 1885 में यूरोपीय ताकतवर देशों की एक बैठक द्वारा अफ्रीका को आपस में बाँट लिया गया था।
- 19वीं शताब्दी के अंत तक ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और बेल्जियम मुख्य औपनिवेशिक ताकतें थीं।
- स्पेन के कब्जे में रह चुके कुछ उपनिवेशों पर कब्जा करके 1890 के दशक के आखिर में संयुक्त राज्य अमेरिका भी एक औपनिवेशिक ताकत के रूप में सामने आया।
अफ्रीका में 1890 में फैली प्लेग बीमारी
- प्राचीन काल में अफ्रीका में जमीन की कोई कमी नहीं थी और वहाँ की जनसंख्या भी बहुत कम थी।
- 19वीं सदी के आखिर में यूरोपीय ताकतें यहाँ के विशाल भूक्षेत्र और खनिज भंडारों को देखकर आकर्षित हुई थीं।
- यूरोपीय लोग अफ्रीका में बागानी खेती करना और खदानों को नुकसान पहुँचाना चाहते थे।
- अफ्रीका में 1890 में प्लेग बीमारी बहुत तेजी से फैल गई।
- मवेशियों की बीमारी ने हजारों लोगों का जीवन बदल दिया और दुनिया के साथ उनके संबंध खराब होने लगे।
- वर्ष 1892 में प्लेग बीमारी जंगल की आग की तरह अंटलांटिक तट तक पहुँच गई।
- यह बीमारी 90% मवेशियों की मौत का कारण बनी।
- बड़ी संख्या में मवेशियों के मरने के कारण अफ्रीका में रहने वाले लोगों के रोजी-रोटी के साधन समाप्त हो गए।
- यहाँ के बगान मालिकों, खान मालिकों और औपनिवेशिक सरकारों ने बचे हुए पशुओं को अपने कब्जे में कर लिया था।
- अफ्रीका को गुलाम बनाने के लिए यूरोपीय उपनिवेशकारों को यह समय सबसे ठीक लगा।
भारत से गिरमिटिया श्रमिकों का दूसरे देशों में जाना
- भारत से सस्ते दामों पर मजदूरों को बाहर ले जाया जाता था। ऐसे मजदूरों को गिरमिटिया मजदूर कहा जाता था।
- 19वीं सदी में भारत एवं चीन से लाखों की संख्या में बाहरी देशों में बागानों, खदानों और सड़क-रेलवे निर्माण से जुड़े कार्यों को करने के लिए मजदूरों को ले जाया जाता था।
- भारतीय मजदूर इस शर्त पर बाहरी देशों में ले जाए जाते थे कि अगर मालिकों के बगानों में पाँच साल तक कार्य कर लेंगे तो वे अपने देश लौट सकते हैं।
- इन श्रमिकों को उस समय अनुबंधित श्रमिक कहा जाता था।
- अधिकतर अनुबंधित श्रमिक भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य भारत और तमिलनाडु के सूखे क्षेत्रों से जाते थे।
- भारतीय अनुबंधित श्रमिकों को मुख्य रूप से कैरीबीयाई द्वीप समूह, मॉरिशस और फिजी ले जाया जाता था।
- मजदूरों की भर्ती का कार्य एजेंट करते थे, इस कार्य के लिए उन्हें कमीशन मिलती थी।
- अगर कोई मजदूर अनुबंध के लिए नहीं मानता था तो एजेंट उसका अपहरण करवा लेते थे।
- 19वीं सदी की इस अनुबंध व्यवस्था को बहुत सारे लोगों ने ‘नयी दास प्रथा’ का नाम दिया।
- मुहर्रम के सालाना जुलूस के मेले में सभी धर्मों और नस्लों के मजदूर भी हिस्सा लेते थे।
- अधिकतर अनुबंधित मजदूर अनुबंध समाप्त होने के बाद भी भारत नहीं लौटे और जो लौटे वो कुछ समय यहाँ बताने के बाद वापस नए ठिकाने पर चले गए।
- साहित्यकार वी. एस. नायपॉल, क्रिकेट खिलाड़ी शिवनरैन, चंद्रपॉल और रामनरेश सरवन अनुबंधित मजदूरों के वंशज माने जाते हैं।
- 20वीं सदी के आरंभ में राष्ट्र नेताओं ने इस प्रथा का विरोध करना शुरू कर दिया था। इस प्रथा को वर्ष 1921 में समाप्त कर दिया गया था।
- कैरीबीयाई द्वीप समूह के लोग वहाँ गए मजदूरों को कुली मानते थे और उनके साथ कुलियों जैसा व्यवहार करते थे।
भारतीय व्यापार और वैश्विक व्यवस्था
- विश्व बाजार के लिए फसलों को उगाने के लिए पूँजी की जरूरत महसूस होने लगी थी।
- भारत से सबसे कीमती और महीन कपास यूरोपीय देशों में निर्यात किया जाता था।
- औपनिवेशीकरण के बाद ब्रिटेन में भी कपास का उत्पादन बढ़ने लगा।
- ब्रिटिश अपने लिए नए बाजारों की खोज कर रहा था।
- भारत में 1812 से 1871 के बीच कच्चे कपास का निर्यात 5% से बढ़कर 35% हो गया था।
- 19वीं शताब्दी में भारतीय बाजारों में ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादों का वर्चस्व स्थापित होने लगा था।
- भारत से सस्ते दामों पर कच्चा माल ब्रिटेन जाता था और वहाँ से तैयार जो माल भारत आता था, उसकी कीमत बहुत अधिक होती थी।
- ब्रिटेन के व्यापार से जो अधिशेष प्राप्त होता था, उससे देश के खर्चे का निबटारा होता था।
महायुद्ध के बीच उत्पादन और उपभोग
- प्रथम विश्व युद्ध 1914 में शुरू हुआ और बहुत लंबे समय तक (1918 तक) चला था। ऐसा भीषण युद्ध अभी तक नहीं लड़ा गया था।
- इस युद्ध में रसायनिक हथियारों का सबसे अधिक इस्तेमाल किया गया। इस युद्ध में 90 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए और 2 करोड़ लोग घायल हुए थे।
- युद्ध के लिए आवश्यक माँगों के कारण उत्पादन और रोजगार में भारी मात्रा में इजाफा हुआ था।
- वर्ष 1921 में हर पाँच में से एक ब्रिटिश मजदूर के पास कोई कार्य नहीं था।
- 1920 के दशक में अमेरिका अर्थव्यवस्था की एक बड़ी विशेषता बृहत उत्पादन का चलन थी।
- कार निर्माता हेनरी फोर्ड बृहत उत्पादन के विख्यात प्रणेता थे।
- टी-मॉडल कार बृहत उत्पादन पद्धति से बनी पहली कार थी।
- फैक्ट्री में अधिक थकान होने के कारण बहुत से मजदूरों ने काम छोड़ दिए। डर के कारण फोर्ड ने वेतन को दो गुना कर दिया और ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी।
- 1923 में अमेरिका सबसे बड़ा करदाता देश बन चुका था।
- अमेरिका में 1919 में 20 लाख प्रतिवर्ष कारों का उत्पादन होता था, जोकि 1929 में बढ़कर 50 लाख से अधिक हो चुका था।
- 1929 में विश्व को आर्थिक संकट ने घेर लिया था।
आर्थिक महामंदी की शुरुआत
- वर्ष 1929 से आर्थिक महामंदी की शुरुआत हुई थी। दुनिया के अधिकतर हिस्सों में उत्पादन, आय, रोजगार और व्यापार में भयानक गिरावट आई।
- कृषि उत्पादन की कीमतों के कम होने से किसानों की आय कम होने लगी।
- 1820 के दशक में बहुत से देशों ने अमेरिका से कर्ज लेकर अपनी निवेश से जुड़ी जरूरतों को पूरा किया।
- 1928 के पहले 6 महीने तक विदेशों में अमेरिका का कर्जा एक अरब डॉलर था।
- मंदी का प्रभाव अमेरिका पर भी पड़ा था। इसी वजह से अमेरिकी बैंकों ने कर्ज देना बंद कर दिया था।
- 1933 तक अमेरिका में 4000 बैंक बंद कर दिए गए और एक लाख से भी अधिक कंपनियाँ बर्बाद हो गईं।
- 1935 में अधिकतर देश आर्थिक संकट से बाहर आते हुए नजर आने लगे थे।
भारत में आर्थिक महामंदी
- महामंदी ने भारतीय व्यापार को सबसे पहले प्रभावित किया।
- 1928 से 1934 के बीच देश के आयात-निर्यात घटकर आधे हो गए।
- इसी समय भारतीय गेहूँ की कीमत 50% गिर गई।
- शहरी निवासियों के मुकाबले किसानों एवं काश्तकारों को सबसे अधिक नुकसान हुआ।
- टाट की बोरियों का निर्यात बंद होने के बाद पटसन की कीमतों में 60% से भी अधिक गिरावट आई।
- वर्ष 1931 में मंदी ने विकराल रूप धारण कर लिया था। गाँवों में बसे लोग असंतोष और उथल-पुथल के दौर से गुजर रहे थे।
- भारतीय शहरों पर मंदी का प्रभाव उतना अधिक नहीं पड़ा था जितना ग्रामीण क्षेत्रों पर पड़ा।
- उद्योगों की रक्षा के लिए सीमा शुल्क बढ़ा दिए गए थे, जिससे औद्योगिक निवेश में तेजी आई थी।
दो महायुद्धों के बाद मिले आर्थिक अनुभव
- औद्योगिक समाज को व्यापक उपभोग के बिना स्थापित नहीं रखा जा सकता है।
- आर्थिक विकास के लिए पूर्ण रोजगार का होना बेहद जरूरी है।
- आर्थिक स्थिरता सरकारी हस्तक्षेप से सुनिश्चित की जा सकती है।
- पूर्ण रोजगार के लक्ष्य को सरकार द्वारा वस्तुओं, पूँजी एवं श्रम की आवाजाही को नियंत्रित करके प्राप्त किया जा सकता है।
- घाटे से निपटने के लिए मुद्रा कोष की स्थापना करना।
- 1947 में विश्व बैंक तथा आई. एम. एफ. ने औपचारिक रूप से कार्य करना शुरू किया था।
- अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था राष्ट्रीय मुद्राओं तथा मौद्रिक व्यवस्थाओं को एक-दूसरे से जोड़ने का कार्य करती है।
- डॉलर की कीमत 35 औंस सोने के बराबर कर दी गई थी।
- वैश्विक आय में 5% की दर से वृद्धि हो रही थी।
अनौपनिवेशीकरण और स्वतंत्रता
- दूसरा विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद भी विश्व का एक बड़ा भाग गुलाम बना हुआ था।
- विश्व बैंक तथा आई. एम. एफ. भूतपूर्व उपनिवेशों से गरीबी की समस्या एवं विकास की कमी से निपटने में पूर्ण रूप से दक्ष नहीं थे।
- जनता को स्वतंत्र कराने के लिए ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की मदद ली गई, जो पहले से ही गुलाम थे।
- बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बहुत बार विकासशील देशों के प्राकृतिक संसाधनों को अनेक तरह से नुकसान पहुँचाती थीं।
- इस समस्या का समाधान करने के लिए नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली की गणना की गई।
युद्धोत्तर दुनिया में वैश्वीकरण की शुरुआत
- साठ के दशक से ही भारी लागत ने अमेरिका की आर्थिक क्षमता को कमजोर कर दिया था।
- सोने की तुलना में डॉलर की कीमत गिरने लगी थी और विनिमय दर की व्यवस्था असफल हो गई थी।
- बाद में अस्थिर विनिमय दर की व्यवस्था शुरू की गई।
- अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों में अनेक बदलाव किए गए। विकासशील देश इन संस्थानों की सहायता ले सकते थे।
- 1949 की क्रांति के बाद चीन वैश्विक अर्थव्यवस्था से अलग ही रहा। चीन में वेतन बाकी देशों की तुलना में कम था।
- भारत, चीन और ब्राजील की अर्थव्यवस्था में आए भारी बदलाव ने दुनिया के आर्थिक भूगोल को पूरी तरह बदल दिया था।
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