इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 11वीं कक्षा की भूगोल की पुस्तक-1 यानी “भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत” के अध्याय-4 “महासागरों और महाद्वीपों का वितरण” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय 4 भूगोल के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।
Class 11 Geography Book-1 Chapter-4 Notes In Hindi
आप ऑनलाइन और ऑफलाइन दो ही तरह से ये नोट्स फ्री में पढ़ सकते हैं। ऑनलाइन पढ़ने के लिए इस पेज पर बने रहें और ऑफलाइन पढ़ने के लिए पीडीएफ डाउनलोड करें। एक लिंक पर क्लिक कर आसानी से नोट्स की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं। परीक्षा की तैयारी के लिए ये नोट्स बेहद लाभकारी हैं। छात्र अब कम समय में अधिक तैयारी कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही आप नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करेंगे, यह अध्याय पीडीएफ के तौर पर भी डाउनलोड हो जाएगा।
अध्याय- 4 “महासागरों और महाद्वीपों का वितरण”
बोर्ड | सीबीएसई (CBSE) |
पुस्तक स्रोत | एनसीईआरटी (NCERT) |
कक्षा | ग्यारहवीं (11वीं) |
विषय | भूगोल |
पाठ्यपुस्तक | भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत |
अध्याय नंबर | चार (4) |
अध्याय का नाम | “महासागरों और महाद्वीपों का वितरण” |
केटेगरी | नोट्स |
भाषा | हिंदी |
माध्यम व प्रारूप | ऑनलाइन (लेख) ऑफलाइन (पीडीएफ) |
कक्षा- 11वीं
विषय- भूगोल
पुस्तक- भौतिक भूगोल के मूल सिद्धांत
अध्याय- 4 “महासागरों और महाद्वीपों का वितरण“
पृथ्वी के 29% हिस्से में महाद्वीप और 71% हिस्से में महासागरों का फैलाव है, यह अवस्थिति सदा ही परिवर्तनों से भारी रही है। आने वाले समय में इन महासागरों और महाद्वीपों की स्थिति बदलेगी।
महाद्वीपीय प्रभाव
- अटलांटिक महासागर के दोनों तरफ की तटरेखा की ओर एक आश्चर्यजनक सममिति देखी जा सकती है। इसी समानता के चलते वैज्ञानिकों ने दक्षिण और उत्तरी अमेरिका, और यूरोप तथा अफ्रीका के एक साथ जुड़े होने की संभावनाएं जताईं।
- 1596 में डच के मानचित्रवेत्ता अब्राहम ऑरटेलीयस ने यह संभावना सबसे पहले जताई। इसको लेकर कई विद्वानों ने अपने भिन्न मत प्रस्तुत किए।
- एटॉनियों पैलेगरीनी ने एक मानचित्र जारी किया, जिसमें इन तीनों महाद्वीपों को इकट्ठा दिखाया गया।
- “महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत” सन् 1912 में जर्मन के मौसमविद अल्फ्रेड वेगनर ने प्रस्तुत किया, इसमें महासागरों और महाद्वीपों के वितरण का सिद्धांत था। जिसमें कहा गया कि महाद्वीप के भूखंड के रूप में जुड़े हुए हैं।
- उनके अनुसार सभी महाद्वीप इस भूखंड के भाग हैं जो महासागर से घिरा हुआ है। इस बड़े महाद्वीप को पैंजिया (सम्पूर्ण पृथ्वी) कहा गया। विशाल महासगरीय भाग को पैंथालासा कहा गया।
- वेगनर ने कहा- पैंजिया का विभाजन करीब 20 करोड़ साल पहले हुआ। इसके दो हिस्से बने उत्तरी भाग लॉरेन्शिया और दक्षिणी भाग गोंडवाना लैन्ड कहलाया।
महाद्वीपीय विस्थापन के पक्ष में प्रमाण
- लॉरेन्शिया और गोंडवाना लैन्ड आगे चलकर कई छोटे-छोटे हिस्सों में बंट गए, इन्हें ही आज महाद्वीप के रूप में जाना जाता है। इस विस्थापन के लिए कई प्रमाण दिए गए।
- महाद्वीपों में साम्य– दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के आमने-सामने की तटरेखाएं अद्भुत समानताएं रखती हैं। एक कम्प्यूटर प्रोग्राम की सहायता से 1964 में बुलर्ड ने अटलांटिक तटों को एक मानचित्र में एक साथ दिखाया, जिसमें तटों के साम्य रूप को दिखाया गया।
- महासागरों के पार चट्टानों की आयु में समानता- वर्तमान समय में विकसित की गई रेडियोमिट्रिक काल निर्धारण विधि ने महाद्वीपों की चट्टानों के निर्माण के समय की जानकारी निकालना आसान बना दिया। प्राचीन शैल समूहों की एक पट्टी मिलती है जो कि 200 करोड़ वर्ष पुरानी है। यह ब्राजील और पश्चिमी अफ्रीका के तटों के मध्य समानता को दिखाती है। इन तटों के पास पाए जाने वाले समुद्री निक्षेप जूरेसिक काल के हैं, जो यह बताता है कि इस काल में यहाँ महासागर नहीं थे।
- टिलाइट- ये वे अवसादी चट्टानें हैं जिनका निर्माण हिमानी निक्षेपण से होता है। भारत के गोंडवाना तलछटों के समान रूप दक्षिण गोलार्ध के छः अलग भागों में मिलते हैं। गोंडवाना श्रेणी के बुनियादी तल में घने टिलाइट मिलते हैं, जिनके द्वारा लंबे समय के हिमाच्छादन और हिमावरण का पता चलता है।
- भारत के अलावा फॉकलैन्ड, मैडागास्कर और अफ्रीका आदि में भी ये प्रतिरूप देखे जा सकते हैं। गोंडवाना तलछटों का समान रूप यह दिखाता है कि ये स्थलखंड इतिहास में भी समान रहे हैं। वे सभी टिलाइट चट्टानें जो हिमानियों से निर्मित हैं, वे सभी पुरातन जलवायु और महाद्वीपों के विस्थापन के प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।
- प्लेसर निक्षेप– घाना के तट पर सोने के विशाल निक्षेपों का होना और उद्गम चट्टानों का न होना, यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है। सोनायुक्त शिराएं आमतौर पर ब्राजील में मिलतीं हैं, जो यह स्पष्ट करता है कि घाना में पाए जाने वाले निक्षेप ब्राजील से इन दोनों महाद्वीप के जुड़ाव के समय निकल गए होंगे।
- जीवाश्मों का वितरण– यदि जल व स्थल में पाए जाने वाले पौधों और जंतुओं की प्रजातियाँ समुद्री अवरोधों के दोनों विपरीत किनारों पर समान पाई जाती हैं, तो उनके वितरण की व्याख्या कठिन हो जाएगी। भारत, मेडागास्कर और अफ्रीका में ‘लैमूर’ मिलते हैं, तो वैज्ञानिकों ने इन तीनों स्थलखंडों को जोड़ा और इसे लैमूरिया नाम दिया।
- मेसोसारस नाम का जीव जो केवल खारे पानी में ही मिलते थे, इनकी अस्थियाँ ब्राजील और दक्षिण केप प्रांत में पाई गईं, जो वर्तमान में एक दूसरे से 4800 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं, और इनके मध्य एक महासागर भी विद्यमान है।
प्रवाह संबंधी बल
- वेगनेर ने महाद्वीपीय विस्थापन के दो कारण बताए- पोलर/ध्रुवीय फ्लीइंग बल– यह पृथ्वी के घूर्णन से संबंधित है, पृथ्वी जो भूमध्य रेखा पर उभरी हुई है, यह उभार घूर्णन के कारण ही है।
- ज्वारीय बल- इसका संबंध सूर्य और चंद्रमा के आकर्षण से है, जो महासागर में ज्वार उत्पन्न करता है, वेगनर के अनुसार करोड़ों वर्षों में ये बल प्रभावशाली होकर विस्थापन का कारण बना, हालाँकि कई वैज्ञानिक विस्थापन के लिए इन दोनों कारणों को मानने से इंकार करते हैं।
महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत
- संवहन धारा सिद्धांत– 1930 में आर्थर होम्स ने मैंटल के अंदर संवहन धारा के प्रभाव की संभावना को व्यक्त किया। मैन्टल में उत्पन्न होने वाली संवहन धाराएं रेडियोएक्टिव तत्वों में उत्पन्न होने वाली भाप के कारण होती है।
- होम्स के अनुसार मैन्टल भाग में इन्हीं संवहन धाराओं का क्षेत्र है, यह उन्हीं प्रवाह बलों की व्याख्या प्रस्तुत करता है, जिस आधार पर आज के वैज्ञानिकों ने महाद्वीपीय विस्थापन के सिद्धांत को स्वीकारने से इनकार किया।
- महासागरीय अधःस्थल का मानचित्रण– महासागरों का अधःस्थल एक विस्तृत मैदान के रूप में होता है, इसकी बनावट में भिन्नता पाई जाती है। इसकी आकृति उच्चावच होती है। महासागरीय अधःस्थल के निरूपण अभियान ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद महासगरीय उच्चावच संबंधित जानकारियाँ प्रस्तुत की, जिसमें कहा गया कि महासागर की अधःस्थल में पर्वतीय कंटक और गहरी खाइयाँ हैं, जो इनके किनारों पर ही मुख्यतः स्थित हैं।
- ये महासागरीय कंटकें ज्वालामुखी के उद्गार हेतु अधिक सक्रीय हैं। इनकी पपर्टी की चट्टानों के काल निर्धारण से ज्ञात होता है कि महाद्वीपीय भागों की चट्टानें महासागरीय नितल की चट्टानों से पुरानी है।
- इसके अलावा महासागर में दोनों तरह की चट्टानें जो, कटक से बराबर की दूरी पर ही विद्यमान हैं। उनकी आयु और संरचना भी समान ही हैं।
महासागरीय अधःस्थल की बनावट
- गहराई और उच्चावच के आधार पर इसको तीन हिस्सों में विभाजित किया है-
- 1) महाद्वीपीय सीमा- ये महाद्वीप के किनारों और समुद्री बेसिन के बीच का भाग है। इसमें महाद्वीपीय मग्नतट, महाद्वीपीय उभार, महाद्वीपीय ढाल और महासागरीय खाइयाँ आदि शामिल हैं। महासागरों और महाद्वीपों के वितरण को जानने के लिए गहरी महासागरीय खाइयों का अध्ययन आवश्यक है।
- 2) वितलीय मैदान– ये महाद्वीपीय तटों और मध्य महासागरीय कटकों के बीच मिलते हैं। ये वही क्षेत्र हैं जहां पर महाद्वीप से बहकर आए अवसाद एकत्रित होते हैं।
- 3) मध्य महासागरीय कटक– ये कटक पर्वतों की शृंखला का निर्माण करते हैं, जो आपस में जुड़े हुए होते हैं। महासागरीय जल में डूबी हुई यह पर्वत शृंखला पृथ्वी की सबसे लंबी पर्वत शृंखला है। इनके मध्यवर्ती शिखरों पर रिफ्ट, प्रभाजक पठार, पार्श्व मण्डल के साथ-साथ इनकी लंबाई भी इनकी विशेषताएं हैं।
सागरीय अधःस्थल का विस्तार
- वेगनर द्वारा प्रस्तुत किए गए महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत में प्रवाह के संबंध में जानकारी का अभाव था, इसके बाद चट्टानों के संबंध में चुंबकीय अध्ययन और महासागर के तल के मानचित्र की जानकारी दी गई।
- इसमें पाया गया कि मध्य महासागरीय कटको के साथ ही यहाँ ज्वालामुखी के उद्गार की क्रिया भी है, जो यहाँ बड़ी मात्रा में लावा निकालते हैं।
- महासागरीय कटक के बीच के हिस्से पर दोनों ओर समान दूरी पर मिलने वाली चट्टानों के निर्माण का समय, संरचना और इसके चुंबकीय गुणों में भी समानता देखने को मिलती है।
- महासागरीय पर्पटी की चट्टानें किसी भी स्थान पर 20 करोड़ वर्ष से ज्यादा पुरानी नहीं मिलेंगी। महाद्वीपीय चट्टानें इनके मुकाबले ज्यादा पुरानी हैं।
- भूकंप का उद्गम केंद्र मध्य महासागरीय कटकों के क्षेत्रों में कम गहराई पर है, इसके अलावा गहरी खाइयों में भूकंपीय केंद्र अधिक गहराई में है।
- 1961 में हेस ने मध्य सागरीय कटको के दोनों ओर की चट्टानों के विश्लेषण पर आधारित एक सागरीय अधःस्थल के विस्तार की संकल्पना प्रदान की। जिसमें बताया गया कि महासागर के कटको के ऊपर ज्वालामुखी के विस्फोट से इसकी पर्पटी पर विभेदन होता है, इसके परिणामस्वरूप लावा दरारों को भरकर महासागर के क्षेत्र को विस्तार प्रदान करता है।
- यही करण है कि महासागर की पपर्टी नई होती है। महासागर के विस्तार से एक ओर नई पपर्टी का निर्माण होता है, वहीं दूसरी ओर महासागर की गर्तों में इनका विनाश भी हो जाता है।
प्लेट विवर्तनिकी
- प्लेट विवर्तनिकी की अवधारणा 1967 में मैक्कैंजी, पारकर और मोरगन ने प्रस्तुत की। विवर्तनिकी प्लेट एक ठोस चट्टान का अखंडित भाग है, इनका निर्माण महासागर और महाद्वीप का स्थलमंडलों के मिलने से होता है।
- ये दुर्बलतामंडल की एक स्थिर इकाई के रूप में क्षैतिज परिस्थिति में गतिमान रहती है। हर प्लेट की मोटाई अलग होती है। इन्हें लिथोस्फ़रेरिक भी कहते हैं।
- पपर्टी और ऊपरी मैन्टेल को स्थलमण्डल के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है, महासागरों में इन प्लाटों की मोटाई लगभग 5 से 100 किलोमीटर और महाद्वीपों में यह 200 किलोमीटर है। यदि प्लेटों का अधिकतर भाग महासागर या महाद्वीप से संबंधित है, तो आधार पर इन प्लेटों को महासागर या महाद्वीपीय प्लेट भी कहते हैं।
- इस सिद्धांत में कहा गया है कि, पृथ्वी का स्थलमण्डल का विभाजन 7 मुख्य प्लेटों और कुछ छोटी प्लेटों के रूप में हुआ है। वे 7 मुख्य प्लेटें इस प्रकार हैं-
- 1) अन्टार्कटिक प्लेट- इसके अंतर्गत अंटार्कटिक के अलावा इसको चारों दिशाओं से घेरने वाली महासगरीय प्लेटें भी सम्मिलित हैं।
- 2) उत्तरी अमेरिका प्लेट– इसमें पश्चिमी अटलांटिक तल सम्मिलित हैं और इसकी सीमा का निर्धारण कैरेबियन द्वीप और दक्षिण अमेरिकन प्लेट करती हैं।
- 3) दक्षिण अमेरिका प्लेट- पश्चिमी अटलांटिक तल के साथ-साथ उत्तरी अमेरिकी प्लेट और कैरेबियन द्वीप इसे अलग करते हैं।
- 4) प्रशांतमहासगरीय प्लेट
- 5) इंडो-ऑस्ट्रेलियन-न्यूजीलैन्ड प्लेट
- 6) अफ्रीका प्लेट
- 7) यूरेशीया प्लेट
छोटी प्लेटें-
- 1) कोकोस प्लेट– ये मध्यवर्ती अमेरिका और प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।
- 2) नज़का प्लेट– दक्षिणी अमेरिका और प्रशांत महासगरीय प्लेट के बीच विद्यमान हैं।
- 3) अरेबियन प्लेट– ज्यादातर इसके अंतर्गत अरब प्रायद्वीप और भू-भाग आते हैं।
- 4) फिलिपीन प्लेट– ये प्लेटें एशिया महाद्वीप और प्रशांत महासगरीय प्लेटों के बीच स्थित हैं।
- 5) कैरोलिन प्लेट- ये न्यूगिनी के नॉर्थ में फिलीपियन और इंडियन प्लेट के बीच स्थित हैं।
- 6) फ्यूजी प्लेट– ये ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्व में हैं।
इसके संबंध में वेगनर महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत-
- पैंजिया जो कि आरंभिक समय का सुपर महाद्वीप था। वेगनर के अनुसार केवल महाद्वीपों को गतिमान कहना सही नहीं था। ये प्लेटों का हिस्सा हैं और प्लेटें गतिमान हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार प्लेटें हमेशा से गतिमान रही हैं और आगे भी रहेंगी।
- कुछ खोजों में ऐसा कहा गया है कि प्लेटों के ऊपर उपस्थित महाद्वीपीय पिंड कई कालों से गतिमान हैं और पैंजिया का निर्माण अलग-अलग महाद्वीपीय खंडों से हुआ है। वैज्ञानिकों ने पराचुम्बकीय जानकारियाँ एकत्रित कर पता लगाया है कि महाद्वीपों की पहले के समय में स्थिति कहां थी।
- साथ ही नागपुर के क्षत्रों में मिलने वाली चट्टानों के विश्लेषण से ही यह पता चल सका है कि भारतीय उपमहाद्वीप की अवस्थिति कहां थी।
प्लेट सीमाएं
कुल तीन प्रकार की प्लेट सीमाएं हैं-
- अपसारी सीमा– जब प्लेटें एक दूसरे से अलग दिशा में गति करती हैं, इन्हें अपसारी सीमा कहा जाता है। जहां से ये प्लेटें एक-दूसरे से दूर हुई हैं, उस स्थान को प्रसारी स्थान कहा जाता है, इससे नई पपर्टी का भी निर्माण होता है। मध्य अटलांटिक कटक इसका उत्तम उदाहरण है।
- अभिसरण सीमा– दो प्लेटें जब एक दूसरे के नीचें धँसती हैं और पपर्टी नष्ट होती है, उसे अभिसरण सीमा कहा जाता है। जिस स्थान पर यह होता है, उसे प्रविष्ठान क्षेत्र कहते हैं। यह तीन प्रकार से होता है-
- 1) महासागरीय और महाद्वीपीय प्लेटों के बीच
- 2) दो महासागरीय प्लेटों के बीच
- 3) दो महाद्वीपीय प्लेटों के बीच
- रूपांतर सीमा– इस स्थान पर न ही पपर्टी का निर्माण होता है, न ही पपर्टी नष्ट होती है। इसमें प्लेटें एक दूसरे से क्षैतिज दिशा में गति करती हैं। इन दो प्लेटों के तल को अलग करने वाला तल रूपांतर भ्रंश होता है। ये अमूमन मध्य-महासगरीय कटकों से लम्बवत स्थिति में मिलते हैं।
प्लेट प्रवाह दरें
- उत्क्रमण व सामान्य चुंबकीय क्षेत्र की वे पट्टियाँ जो मध्य महासागरीय कंटक के समानांतर होती हैं, इनके द्वारा वैज्ञानिकों को प्रवाह की दर समझने में सहायता हुई। इन प्लेटों की प्रवाह दर अलग होती है, आर्कटिक कटक की प्रावह दर सबसे कम और पूर्वी प्रशांत महासगरीय उभार की प्रवाह दर सबसे तेज होती है।
- प्लेटों को संचलित करने वाले बल– वेगनर के सिद्धांत के प्रस्तुतिकरण के समय के वैज्ञानिकों का मानना था कि पृथ्वी एक गतिरहित एवं ठोस पिंड है जिसकी पूर्ण जानकारी प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत के पश्चात मालूम हुई कि पृथ्वी चलायमान है। इसके लिए संवहनीय प्रवाह की भूमिका अहम है।
- दृढ़ प्लेटों के नीचे चलायमान चट्टानें वृतकार रूप में गति कर रही हैं, इसमें उष्ण पदार्थ धरातल पर आकार ठंडा हो जाता है और वापस गहराई में जाकर उसका विनाश हो जाता है। इसे वैज्ञानिक संवहन प्रवाह कहते हैं।
- पृथ्वी के भीतर ताप उत्पत्ति–
- 1) रेडियोधर्मी तत्वों का क्षय और अवशिष्ट ताप
- 2) दृढ़ प्लेटों के नीचे दुर्बल व उष्ण मैन्टल
भारतीय प्लेटों का संचलन
- इसमें प्रायद्वीपीय भारत और ऑस्ट्रेलिया का भाग आता है। इसकी उत्तरी सीमा का निर्धारण हिमालय पर्वत श्रेणी के साथ मिलने वाला प्रविष्ठन क्षेत्र करता है। ये महाद्वीप के अभिसरण की तरह अवस्थित है, जो म्यांमार के राकिन्योमा पर्वत से होकर एक चाप की तरह जावा खाई तक इसका फैलाव है।
- इसकी पूर्वी सीमा जो विस्तृत तल है, जो ऑस्ट्रेलिया के पूर्व में स्थित दक्षिण पश्चिम प्रशांत महासागर में महासागर के कटक के रूप में विद्यमान है।
- भारत और आर्कटिक प्लेट की सीमा भी महासगरीय कटक से निर्धारित होती है, और पूर्व पश्चिम दिशा से होते हुए न्यूजीलैंड के दक्षिण के विस्तृत तल में मिल जाती है।
- भारत जो कि एक वृहत द्वीप था, यह ऑस्ट्रेलिया के तटों से दूर विशाल महासागर में स्थित था। करीब 22.5 करोड़ साल पहले टेथिस सागर ने इसे एशिया महाद्वीप से पृथक किया। 20 करोड़ साल पहले पैंजिया के विभक्त होने के फलस्वरूप भारत ने उत्तर दिशा में खिसकना आरंभ किया।
- करीब 4 से 5 करोड़ वर्ष पहले जब भारत एशिया से टकराया, तब हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। ऐसा कहा जाता है कि वर्तमान में भी हिमालय की उंचाई बढ़ रही है ।
- दक्कन ट्रैप का निर्माण भी भारतीय प्लेट के एशियाई प्लेट की तरह लावा प्रवाह होने के परिणामस्वरूप हुआ। यह सब तकरीबन 6 करोड़ साल पहले होना शुरू हुआ और उस समय भी भारतीय उपमहाद्वीप भूमध्य रेखा के समीप था।
PDF Download Link |
कक्षा 11 भूगोल के अन्य अध्याय के नोट्स | यहाँ से प्राप्त करें |