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Class 12 Geography Book-1 Ch-5 “द्वितीयक क्रियाएँ” Notes In Hindi

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Mamta Kumari
Last Updated on

इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की भूगोल की पुस्तक-1 यानी मानव भूगोल के मूल सिद्धांत के अध्याय- 5 “द्वितीयक क्रियाएँ” के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय- 5 भूगोल के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।

Class 12 Geography Book-1 Chapter-5 Notes In Hindi

आप ऑनलाइन और ऑफलाइन दो ही तरह से ये नोट्स फ्री में पढ़ सकते हैं। ऑनलाइन पढ़ने के लिए इस पेज पर बने रहें और ऑफलाइन पढ़ने के लिए पीडीएफ डाउनलोड करें। एक लिंक पर क्लिक कर आसानी से नोट्स की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं। परीक्षा की तैयारी के लिए ये नोट्स बेहद लाभकारी हैं। छात्र अब कम समय में अधिक तैयारी कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ही आप नीचे दिए हुए लिंक पर क्लिक करेंगे, यह अध्याय पीडीएफ के तौर पर भी डाउनलोड हो जाएगा।

अध्याय- 5 “द्वितीयक क्रियाएँ

बोर्डसीबीएसई (CBSE)
पुस्तक स्रोतएनसीईआरटी (NCERT)
कक्षाबारहवीं (12वीं)
विषयभूगोल
पाठ्यपुस्तकमानव भूगोल के मूल सिद्धांत
अध्याय नंबरपाँच (5)
अध्याय का नाम“द्वितीयक क्रियाएँ”
केटेगरीनोट्स
भाषाहिंदी
माध्यम व प्रारूपऑनलाइन (लेख)
ऑफलाइन (पीडीएफ)
कक्षा- 12वीं
विषय- भूगोल
पुस्तक- मानव भूगोल के मूल सिद्धांत
अध्याय- 5 “द्वितीयक क्रियाएँ”

द्वितीयक क्रियाएँ

  • द्वितीयक क्रियाओं के माध्यम से प्रकृति से प्राप्त कच्चे माल को विभिन्न वस्तुओं के रूप में बदलकर उसके मूल्य को बढ़ाया जाता है।
  • कपास का तंतु में बदला जाना द्वितीयक क्रिया का उदाहरण है जिसका उपयोग वस्त्र बनाने में किया जाता है।
  • द्वितीयक क्रियाओं का संबंध मुख्य रूप से विनिर्माण, प्रसंस्करण, निर्माण/अवसंरचना उद्योग से है।

विनिर्माण का अर्थ

  • विनिर्माण का मतलब हाथ द्वारा वस्तुओं के उत्पादन से है जिसमें हस्तशिल्प के साथ-साथ आधुनिक मशीनों द्वारा बनाई गई वस्तुओं को भी शामिल किया जाता है।
  • विनिर्माण का हिस्सा हस्तशिल्प कार्य, लोहे व इस्पात को गढ़ना, प्लास्टिक के खिलौने बनाना, कंप्यूटर के अत्यधिक सूक्ष्म घटकों को जोड़ना और अंतरिक्षयान निर्माण इत्यादि जैसे सभी उत्पादन हैं।
  • विनिर्माण की विशेषता यह है इसमें शक्ति का उपयोग किया जाता है और इसके द्वारा एक ही तरह की वस्तु का उत्पादन अधिक मात्रा में किया जाता है।
  • इस प्रक्रिया में कारखानों या उद्योगों में श्रमिक मानक वस्तुओं का निर्माण करते हैं।
  • उत्पादन कार्य को पूर्ण करने के लिए आधुनिक शक्ति साधन, मशीनरी और पुराने साधनों का उपयोग किया जाता है।
  • तृतीय विश्व के अधिकतर देशों में विनिर्माण का प्रयोग सिर्फ शाब्दिक अर्थों में किया जाता है साथ ही इन देशों में उत्पादन के लिए भी कम जटिल तंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है।

आधुनिक बड़े पैमाने पर होने वाले विनिर्माण उद्योग की विशेषताएँ

  • कौशल का विशिष्टीकरण/उत्पादन की विधियाँ: शिल्प विधि के माध्यम से उद्योगों में कम वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। दरअसल इसमें उतनी ही वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है जितनी वस्तुओं को बनाने का आदेश मिलता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि इनके उत्पादन प्रक्रिया में लागत अधिक आती है। इस विधि में प्रत्येक श्रमिक एक ही प्रकार का कार्य करता है।
  • यंत्रीकरण: उत्पादन के कार्य को पूर्ण करने के लिए मशीनों का उपयोग करना यंत्रीकरण कहलाता है। यह मनुष्य की सोच को सम्मिलित न करने वाली यंत्रीकरण की एक विकास अवस्था है। आज इसके स्वरूप को पूरे विश्व में कंप्यूटर नियंत्रण प्रणाली से युक्त स्वचलित मशीनों के रूप में अनेक कारखानों में देखा जा सकता है।
  • प्रौद्योगिकीय नवाचार: इसका तात्पर्य शोध और विकासमान युक्तियों के द्वारा विनिर्माण की गुणवत्ता को नियंत्रित करने, अपशिष्टों का निस्तारण करने, अदक्षता को समाप्त करने और प्रदूषण को कम करने के लिए संघर्षरत प्रयास करने से है। प्रौद्योगिकीय नवाचार से उत्पादन के बढ़ने के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।
  • संगठनात्मक ढाँचा एवं स्तरीकरण: इसके अंतर्गत आधुनिक निर्माण की मुख्य विशेषताएँ एक जटिल औद्योगिक तंत्र, अधिक पूँजी, बड़ी संस्था, प्रशासकीय अधिकारिक वर्ग और अत्यधिक विशिष्टीकरण या श्रम विभाजन के द्वारा कम प्रयास व कम लागत के साथ अधिक वस्तुओं का उत्पादन करना शामिल है।
  • अनियमित भौगोलिक वितरण: विश्व में आधुनिक निर्माण का संकेंद्रण पूरे भू-भाग के सिर्फ 10% क्षेत्रों में ही फैला हुआ है। आज इन क्षेत्रों में आने वाले देश आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से शक्ति के केंद्र बन गए हैं। कृषि क्षेत्रों की तुलना में विनिर्माण क्षेत्रों का विस्तार बहुत कम होता है लेकिन फिर भी इसमें हजारों से अधिक श्रमिकों को रोजगार दिया जा सकता है।

उद्योगों की स्थिति को प्रभावित करने वाले कारक

  • बाजार: बाजार उस स्थान को कहा जाता है जहाँ उद्योगों में बनाई गई वस्तुओं को खरीदने की क्षमता वहाँ के निवासियों में होती है। बाजार में निर्मित वस्तुओं की माँग की जाती है। निवासियों द्वारा वस्तुओं को खरीदने की शक्ति ‘क्रय-शक्ति’ कहलाती है। उत्तरी अमेरिका के साथ-साथ दक्षिण-पूर्वी एशिया में बसे गहन क्षेत्र ऐसे बाजार क्षेत्र हैं जहाँ बसे लोगों की क्रय शक्ति अधिक है।
  • कच्चा माल: उद्योगों के लिए कम परिवहन खर्च में सस्ता कच्चा माल मिलना बेहद महत्वपूर्ण होता है। इसलिए कृषि प्रसंस्करण और डेयरी को क्रमशः कृषि उत्पादन क्षेत्रों एवं दुग्ध आपूर्ति वाले स्रोतों के आस-पास ही विकसित किया जाता है।
  • श्रम आपूर्ति: कुशल एवं अर्ध-कुशल श्रमिकों का होना उद्योगों की स्थापना के लिए एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है। आधुनिक युग में मशीनीकरण के कारण उद्योगों ने श्रमिकों पर निर्भता को कम कर दिया है लेकिन अब भी कुशल श्रमिकों की आवश्यकता अधिक होती है।
  • शक्ति के साधन: ऊर्जा के बिना किसी भी उद्योग को संचालित करना संभव नहीं है। एल्यूमिनियम जैसे उद्योगों को उत्पादन के लिए शक्ति की अधिक आवश्यकता पड़ती है। इन्हें ऊर्जा स्रोत के समीप स्थापित किया जाता है। प्रारंभिक काल में कोयला ऊर्जा का मुख्य साधन था लेकिन अब जल विद्युत तथा खनिज तेल भी उद्योगों के लिए ऊर्जा का एक अच्छा साधन बन चुका है।
  • परिवहन एवं संचार की सुविधाएँ: औद्योगिक विकास की आवश्यकता के लिए कच्चे माल को लाने और निर्मित वस्तुओं को बाजार तक पहुँचने में सस्ते परिवहन और संचार सुविधाएँ एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। किसी भी देश में उद्योगों के विकास में ये दोनों ही अहम भूमिका निभाती हैं।
  • सरकारी नीति: सरकार प्रादेशिक नीति संतुलित आर्थिक विकास के लिए अपनाती है। इस नीति के आधार पर विशिष्ट क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना की जाती है।
  • समूहन अर्थव्यवस्था/उद्योगों के मध्य संबंध: मुख्य उद्योग के आस-पास बसे छोटे उद्योगों को कई तरह से लाभ प्राप्त होता है। इस तरह से जब दोनों प्रकार के उद्योगों की बचत और लाभ बढ़ती है तो इसे समूहन अर्थव्यवस्था या उद्योगों के मध्य संबंध कहा जाता है।

आकार, कच्चे माल, उत्पाद और स्वामित्व के आधार पर विनिर्माण उद्योगों का वर्गीकरण

आकार, कच्चे माल, उत्पाद और स्वामित्व के आधार पर विनिर्माण उद्योगों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है-

आकार पर आधारित उद्योग

निवेश की गई पूँजी, कार्य करने वाले श्रमिकों की संख्या और प्राप्त उत्पादन की मात्र से उद्योगों का आकार पता चलता है। इस आधार पर उद्योगों को तीन भागों में बाँटा गया है-

  • कुटीर उद्योग: इसे निर्माण की सबसे छोटी इकाई के रूप में देखा जाता है। इसमें परिवार के सभी सदस्य मिलकर स्थानीय कच्चे माल और साधारण औजार की सहायता से दैनिक जीवन के उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। इन वस्तुओं का उपयोग शिल्पकार स्वयं करते हैं या पास के बाजार में बेच देते हैं। कभी-कभी ये लोग अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वस्तु-विनिमय का भी सहारा लेते हैं। इस तरह के उद्योगों में खाने की चीजें, कपड़ा, चटाइयाँ, बर्तन, जूते और छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाई जाती हैं।
  • छोटे पैमाने के उद्योग: ऐसे उद्योगों के उत्पादन की तकनीक और निर्माण स्थल दोनों कुटीर उद्योग से भिन्न होते हैं। इसमें वस्तुओं का उत्पादन घर से बाहर होता है। इस उद्योग में रोजगार के अवसर अधिक होते हैं इसलिए उद्योगों के आस-पास के स्थानों पर रहने वाले लोगों की क्रय शक्ति बढ़ जाती है। वर्तमान समय में भारत, चीन, इंडोनेशिया और ब्राजील जैसे देशों ने लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए ऐसे उद्योगों को बढ़ावा दिया है।
  • बड़े पैमाने के उद्योग: इस प्रकार के उद्योग को स्थापित करने के लिए अधिक पूँजी के साथ-साथ विशाल बाजार, विभिन्न प्रकार के कच्चे माल, शक्ति के साधन, कुशल श्रमिक और विकसित प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है। इन उद्योगों में वस्तुओं का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है। विश्व के मुख्य औद्योगिक प्रदेशों को बड़े पैमाने पर किए गए निर्माण के आधार पर दो समूहों में बाँटा गया है- अत्यधिक विकसित देशों में स्थापित परंपरागत वृहत औद्योगिक प्रदेश और कम विकसित देशों में स्थापित उच्च प्रौद्योगिकी वाले वृहत औद्योगिक प्रदेश।

कच्चे माल पर आधारित उद्योग

कच्चे माल पर आधारित पाँच तरह के उद्योगों का वर्णन निम्नलिखित है-

  • कृषि आधारित उद्योग: ये वे उद्योग होते हैं जिन्हें उत्पादन के लिए कृषि से प्राप्त उत्पादों पर आश्रित रहना पड़ता है। भोजन तैयार करने वाले उद्योग में मुख्य रूप से शक्कर, आचार, फलों के रस, पेय जल, मसाले, तेल और वस्त्र के उद्योग इसमें शामिल हैं।
  • खनिज आधारित उद्योग: इसमें खनिजों का उपयोग कच्चे माल के रूप में किया जाता है। इस उद्योग में उद्योगों के तीन रूप देखने को मिलते हैं। पहला लौह अंश वाले धात्विक खनिज पर आधारित उद्योग जिसमें लौह-इस्पात से जुड़े कार्य होते हैं। दूसरा अलौह अंश वाले धात्विक खनिज पर आधारित उद्योग जिसमें एल्युमीनियम, ताँबा और जवाहरात से संबंधित कार्य होते हैं, फिर तीसरा है अधात्विक खनिज पर आधारित उद्योग जिसमें मिट्टी के बर्तन बनाने व सीमेंट तैयार करने के कार्य शामिल हैं।
  • रसायन पर आधारित उद्योग: इन उद्योगों में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले रासायनिक खनिजों का उपयोग किया जाता है जैसे कि पेट्रो रसायन उद्योग में खनिज तेल/पेट्रोलियम का उपयोग। इसके अलावा नमक, गंधक और पोटाश उद्योग में भी प्राकृतिक खनिजों का उपयोग किया जाता है। प्लास्टिक का निर्माण करना और कृत्रिम रेशे बनाना भी रसायन उद्योग के उदाहरण हैं।
  • वनों पर आधारित उद्योग: जिन उद्योगों में कच्चे माल के रूप में वनों से प्राप्त उत्पादों का उपयोग किया जाता है उन्हें वन आधारित उद्योग कहा जाता है। फर्नीचर, कागज और लाख उद्योग ऐसे उद्योग हैं जिनमें कच्चे माल के रूप में बाँस, लकड़ी एवं लाख का इस्तेमाल किया जाता है।
  • पशु आधारित उद्योग: जिन उद्योगों में कच्चा माल पशुओं से प्राप्त किया जाता है वे उद्योग पशु आधारित उद्योग कहलाते हैं। चमड़ा उद्योग के लिए चमड़ा, ऊनी वस्त्र उद्योग के लिए ऊन, हाथीदाँत उद्योग के लिए दाँत पशुओं से प्राप्त किये जाते हैं। इस प्रकार के उद्योग मुख्य रूप से पशुओं पर निर्भर होते हैं।

उत्पाद या उत्पादन पर आधारित उद्योग

इसके अंतर्गत आने वाले उद्योगों को दो भागों में बाँटा गया है-

  • उपभोक्ता वस्तु उद्योग: इस उद्योग में ऐसी वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है जिनका उपभोग प्रत्यक्ष रूप से उपभोक्ता द्वारा किया जाता है। इन उद्योगों को गैर-आधारभूत उद्योग भी कहा जाता है। चाय, साबुन, कागज, टेलीविजन और शृंगार का सामान आदि का उत्पादन उपभोक्ता वस्तु उद्योग द्वारा ही किया जाता है।
  • आधारभूत उद्योग: इस तरह के उद्योग दूसरे उद्योगों के लिए कच्चा माल तैयार करते हैं उदाहरण के लिए लौह-इस्पात उद्योग को सबसे बड़ा आधारभूत उद्योग कहा जाता है।

स्वामित्व के आधार पर उद्योग

स्वामित्व के आधार पर उद्योगों को तीन वर्गों में बाँटा गया है-

  • सार्वजनिक क्षेत्र उद्योग: इन उद्योगों को सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है। भारत में ऐसे उद्योगों की संख्या अधिक है जो सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन हैं। कुछ समाजवादी देशों में भी बहुत से उद्योग सरकार के नियंत्रण में हैं लेकिन मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देशों में निजी और सार्वजनिक दोनों प्रकार के उद्योग पाए जाते हैं।
  • निजी क्षेत्र उद्योग: इन उद्योगों का संचालन व्यक्ति विशेष या निजी निवेशकों या फिर निजी संगठनों द्वारा किया जाता है। ऐसे उद्योग ज्यादातर पूँजीवादी/धनी देशों में पाए जाते हैं।
  • संयुक्त क्षेत्र उद्योग: जिन उद्योगों को निजी और सार्वजनिक क्षेत्र संचालित करते हैं या दोनों की सहमति से कोई उद्योग संचालित होता है, तो ऐसे उद्योग संयुक्त क्षेत्र के उद्योग कहलाते हैं।

विश्व में उच्च प्रौद्योगिकी उद्योग की संकल्पना

  • विश्व में उच्च प्रौद्योगिकी उद्योग उन्हें कहा जाता है जो उन्नत वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग उत्पादकों के शोध पर आधारित हैं।
  • इन उद्योगों को नवीन पीढ़ी का उद्योग भी कहा जाता है।
  • उच्च प्रौद्योगिकी उद्योगों में नीले कॉलर वाले श्रमिकों की अपेक्षा सफेद कॉलर वाले श्रमिकों की संख्या अधिक होती है।
  • इन उद्योगों में कंप्यूटर आधारित डिजाइन/निर्माण, इस्पात व इलेक्ट्रॉनिक नियंत्रण और नए रासायनिक व औषधीय उत्पाद से जुड़े उत्पादन कार्य प्रमुख स्थान रखते हैं।
  • उच्च प्रौद्योगिकी उद्योगों का वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी काफी बड़ा योगदान है।
  • वर्तमान समय में जो भी प्रादेशिक और स्थानीय विकास की परियोजनाएँ बनाई जा रही हैं उनमें नियोजित व्यवसाय पार्क का निर्माण भी किया जाता है।
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