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भगवान श्री कृष्ण (कहानी-1) रास्ते का मित्र कौन था?

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Ekta Ranga

इस बात से हर कोई अवगत है कि श्री कृष्ण और सुदामा बहुत ही अच्छे मित्र थे। उनकी दोस्ती हर किसी के लिए एक मिसाल की तरह है। श्री कृष्ण तो राजघराने से संबंध रखते थे। जबकि सुदामा गरीब ब्राह्मण परिवार से संबंध रखते थे। जब वह गुरुकुल में थे तभी से ही उनके बीच घनिष्ठ मित्रता हो गई थी।

हालांकि गुरुकुल के अन्य विद्यार्थी इस बात पर कई बार हंसते भी थे लेकिन श्री कृष्ण को इस बात से कोई असर नहीं पड़ा। फिर एक दिन शिक्षा पूरी करने के बाद में उन दोनों के रास्ते जरूर अलग हो गए थे लेकिन उनकी दोस्ती में कोई बदलाव नहीं आया। अब श्री कृष्ण और सुदामा दोनों ही गृहस्थी में व्यस्त हो गए थे। सुदामा की पत्नी यह अच्छी तरह से जानती थी कि श्री कृष्ण और सुदामा घनिष्ठ मित्र हैं।

एक दिन आखिरकार थक हारकर सुदामा की पत्नी ने कहा, “नाथ, हम और कितने दिन तक रूखी सूखी रोटी खाकर अपना जीवन बिताएंगे। आप यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि बहुत बार ऐसा भी होता है जब हमारे बच्चों तक को भी भूखा सोना पड़ता है। हम कैसे भी करके अपना जीवन गरीबी में गुजार सकते हैं।

लेकिन मैं अपने बच्चों को ऐसी स्थिति में बिल्कुल भी नहीं देख सकती। इसलिए मैं चाहती हूं कि आप अपने मित्र श्री कृष्ण के पास जाएं और उनसे हमारे लिए धन और ऐश्वर्य मांगे वह आपके सच्चे मित्र है। मैं विश्वास के साथ कह सकती हूं कि वह आपको कभी भी मना नहीं करेंगे।” अब सुदामा करते तो भी क्या करते। आखिरकार उनको अपने बच्चों के हित को देखते हुए द्वारिका जाने के लिए हामी भरनी पड़ी।

अब सुदामा द्वारिकापुरी के लिए रवाना हो गए थे। रास्ते में चलते हुए उनके मन में अनगिनत सवाल भी उठ रहे थे। वह सोच रहे थे कि क्या वह द्वारिका जाकर सही कर रहे हैं? क्या उनकी दोस्ती केवल दिखावे के लिए है। यह सब सोचते हुए उनका दिमाग घूमने लगा। लेकिन वह लगातार चले ही जा रहे थे।

लगातार चलते-चलते उनके पैर उनको जवाब देने लगे। अब थक हारकर वह एक जगह पर बैठ ही गए। फिर मन में यह भी सवाल आया कि अगर वह ऐसे ही हार मान जाएंगे तो फिर वह द्वारिका कैसे पहुंचेंगे? वह यह सोच ही रहे थे कि तभी अचानक एक व्यक्ति अपनी बैलगाड़ी से नीचे उतरा और सुदामा के पास आकर बोला, “क्या हुआ मित्र? तुम बीच रास्ते में ऐसे उदास होकर क्यों बैठे हो? यदि कोई बड़ी बात है तो वह मुझे बताओ।” सुदामा को उस व्यक्ति का व्यवहार अच्छा लगा इसलिए उसने कहा, “मुझे द्वारिकापुरी जाना है मित्र। वहां पर मेरा परम मित्र श्री कृष्ण रहता है।

मैं उनसे ही मिलने वहां जा रहा हूं। लेकिन जब चलते हुए थक गया तो बीच रास्ते में बैठ गया।” वह आदमी बोला, “अच्छा तो यह बात है। चलो, तुम खड़े हो जाओ मित्र और जाकर मेरी बैलगाड़ी में बैठ जाओ। दरअसल मैं भी द्वारिका ही जा रहा हूं। मैं तुम्हें भी छोड़ दूंगा।” आखिरकार सुदामा उस बैलगाड़ी में बैठ गया और वह दोनों ही द्वारिका के लिए रवाना हो गए।

बीच रास्ते में उस आदमी को जब यह पता चला कि सुदामा तो गरीब ब्राह्मण है तो उसने इस बात पर सुदामा का खूब उपहास उड़ाया। वह बार-बार एक ही बात कहता रहा कि कैसे कोई गरीब व्यक्ति एक राजा का परम मित्र हो सकता है। लेकिन शायद सुदामा को उस आदमी की बातों का बिल्कुल भी बुरा नहीं लगा। बल्कि सुदामा ने तो यह सोचा कि आखिर वह आदमी गलत कहां कह रहा था। पूरे रास्ते भर वह दोनों बातें करते गए।

उनकी इस बातचीत के बीच कब द्वारिकापुरी आ गया इसका बिल्कुल भी अंदाजा ही नहीं लगा। द्वारिका पहुंचते ही उस आदमी ने कहा, “यह लो, मित्र, मैंने तुम्हें द्वारिका पहुंचा दिया है। अब तुम श्री कृष्ण से मिलने जा सकते हो।” सुदामा ने उस आदमी को धन्यवाद दिया। अब उस आदमी ने पास के ही एक मंदिर में प्रस्थान किया। सुदामा ने द्वारिका महल की ओर अपने कदम बढ़ाए ही थे कि अचानक ही उसके पैर रुक गए।

सुदामा को याद आया कि उसने उस आदमी को धन्यवाद ही नहीं किया। जैसे ही सुदामा उस मंदिर में गया तो उसने देखा कि वह आदमी और उसकी बैलगाड़ी कहीं भी आस-पास नहीं थे। मात्र पांच मिनट में कोई कैसे ओझल हो सकता है। अब सुदामा समझ गया था कि वह आदमी कोई और नहीं बल्कि श्री कृष्ण ही थे।

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