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भगवान श्री कृष्ण (कहानी-5) कृष्ण बन गए रखवाले

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Ekta Ranga

इस दुनिया में भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त निवास करते हैं। यह आज की ही बात नहीं है। हज़ारों वर्षों से श्री कृष्ण के खूब सारे भक्त रहे हैं। भक्तों की लिस्ट भी लंबी है जैसे कि मीराबाई, कबीरदास, नरसी मेहता आदि। ऐसे ही एक और भक्त भी थे जो बहुत सालों पहले वृंदावन गाँव में रहते थे।

यहां एक भक्त की बात नहीं हो रही है बल्कि दो भक्तों की बात हो रही है। यह दोनों ही भक्त पति पत्नी थे। इन दोनों पति पत्नी का नाम था रामदरस और पारो। दोनों ही बहुत सुंदर और सुशील थे। दोनों ही दिन रात श्री कृष्ण की भक्ति में डूबे रहते थे। दोनों को इस बात की भी चिंता नहीं थी कि वह गरीब क्यों थे। क्योंकि वह श्री कृष्ण के परम भक्त थे इसलिए उनको कुदरती रूप से दो वक्त की रोजी रोटी नसीब हो जाती थी।

वह दोनों प्रत्येक दिन कृष्ण जी के मंदिर के बाहर बैठा करते थे। वहां पर बैठकर दोनों ही भिक्षा मांगते थे। वह दोनों बड़े ही गुणवान और आस्थावान थे। दया भी उनमें खूब थी। अपनी इसी दया के चलते वह जो कुछ भिक्षा में प्राप्त करते उसमें से थोड़ा हिस्सा मंदिर के बाहर ही बैठने वाले एक दूसरे भिखारी को दे दिया करते थे। उन दोनों को ऐसा करने में आनंद की प्राप्ति हुआ करती थी। उनको किसी भी प्रकार का कोई दुख नहीं था।

बस एक बात थी जो कभी कभार उनके दिमाग को विचलित कर दिया करती थी। दरअसल वह दोनों ही जन्म से अंधे थे। उनको दुनिया तो नहीं दिखाई देती थी मगर श्री कृष्ण को वह अपने अंतर्मन से ही देख लेते थे। बहुत से लोग ऐसे भी हुआ करते थे जो उन दोनों का मज़ाक़ भी उड़ाया करते थे। लेकिन उन दोनों के पांव भगवान की आस्था से कभी भी नहीं लड़खड़ाएं। उन दोनों की आस्था दिनों दिन गहरी होती जा रही थी।

काफी समय गुजर गया था। वह दोनों अब और भी ज्यादा धार्मिक हो गए थे। एक दिन पारो को पता चला कि वह रामदरस के बच्चे की माँ बनने वाली थी। उसने जब अपने पति को यह खबर सुनाई तो उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। अब दोनों ही दंपति अपने होने वाले बच्चे की राह देखने लगे। अब प्रसव की घड़ी नजदीक आ गई थी। सौभाग्य से जिस दिन प्रसव होने वाला था उस दिन जन्माष्टमी भी थी।

आखिरकार जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर उन दोनों को सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। उस बच्चे का नामकरण के समय चंदन नाम रखा गया। वह बहुत ही खूबसूरत बालक था। एक अलग प्रकार का तेज उसके चेहरे पर चमक रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो जैसे श्री कृष्ण ही धरती पर आ गए हों। चंदन अब धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। समय के साथ वह और भी ज्यादा रूपवान और समझदार हो रहा था।

उसका स्वभाव भी अपने माता-पिता जैसा ही कोमल था। माता पिता के साथ मिलकर वह भी श्री कृष्ण की भक्ति किया करता था। जब चंदन थोड़ा और बड़ा हो गया था। अब वह नियमित रूप से ठीक वैसे ही गायें चराने जाता जैसे कृष्ण जी किया करते थे। कई बार तो गायें चराते हुए वह बहुत दूर तक चला जाता था।

एक बार जब वह दूसरे गाँव में प्रवेश कर गया तब एक आदमी चंदन को वहां से लाया। जैसे ही चंदन के माँ बाप ने चंदन को अपनी आंखों के सामने देखा तो उन दोनों ने उस आदमी को धन्यवाद दिया और उससे उसका नाम पूछा। उस आदमी ने अपना नाम मदन बताया।

अब चंदन और मदन के बीच अच्छी दोस्ती हो गई थी। हालांकि चंदन मदन से छोटा था लेकिन फिर भी उन दोनों में खूब पटती थी। चंदन को मदन में अपना अभिभावक नजर आने लगा था। मदन एक पिता के समान चंदन का ख्याल रखता। रामदरस और पारो की चिंता मानो अब दूर हो गई थी।

उन दोनों ने जब मदन से यह पूछा कि वह कहां का रहने वाला है तो मदन ने बताया कि वह मथुरा के एक छोटे से गाँव का गडरिया है। चंदन को उत्सुकता थी मदन के गाँव को देखने की। एक दिन जब मदन अपने गाँव जा रहा था तब वह वह भी मदन के पीछे-पीछे चला गया।

जब चंदन मदन के गाँव पहुंचा तो उसने देखा कि मदन एक मंदिर की ओर बढ़ा और उसमें प्रवेश कर गया। अब पीछे-पीछे चंदन भी मंदिर में प्रवेश कर गया। मंदिर में प्रवेश करते ही उसने देखा कि वहां तो मदन का नामोनिशान ही नहीं था। आखिर एक ही पल में यह मदन कहां चला गया था। अंत में चंदन को यह समझ आ गया कि यह मदन कोई और नहीं बल्कि स्वयं श्री कृष्ण थे जो इतने समय तक हर परिस्थिति में उसके परिवार को संभाल रहे थे।

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