अध्याय- 9 “उपनिवेशवाद और देहात” (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन) | Class 12 History Book-3 Chapter-9 Notes In Hindi

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Mamta Kumari

इस लेख में छात्रों को एनसीईआरटी 12वीं कक्षा की इतिहास की पुस्तक- 3 यानी भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग- 3 के अध्याय- 9 उपनिवेशवाद और देहात (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन) के नोट्स दिए गए हैं। विद्यार्थी इन नोट्स के आधार पर अपनी परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ रूप प्रदान कर सकेंगे। छात्रों के लिए नोट्स बनाना सरल काम नहीं है, इसलिए विद्यार्थियों का काम थोड़ा सरल करने के लिए हमने इस अध्याय के क्रमानुसार नोट्स तैयार कर दिए हैं। छात्र अध्याय- 9 इतिहास के नोट्स यहां से प्राप्त कर सकते हैं।

Class 12 History Book-3 Chapter-9 Notes In Hindi

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अध्याय- 9 “उपनिवेशवाद और देहात” (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन)

बोर्डसीबीएसई (CBSE)
पुस्तक स्रोतएनसीईआरटी (NCERT)
कक्षाबारहवीं (12वीं)
विषयइतिहास
पाठ्यपुस्तकभारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग-3
अध्याय नंबरनौ (9)
अध्याय का नाम“उपनिवेशवाद और देहात” (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन)
केटेगरीनोट्स
भाषाहिंदी
माध्यम व प्रारूपऑनलाइन (लेख)
ऑफलाइन (पीडीएफ)
कक्षा- 12वीं
विषय- इतिहास
पुस्तक- भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग-3
अध्याय- 9 “उपनिवेशवाद और देहात” (सरकारी अभिलेखों का अध्ययन)

बंगाल और वहाँ के जमींदार

  • औपनिवेशिक शासन प्रणाली सबसे पहले बंगाल में स्थापित की गई।
  • सबसे पहले इसी प्रांत में भूमि अधिकार संबंधित नियम, ग्रामीण समाज को दुबारा से व्यवस्थित करने और भू-राजस्व प्रणाली लागू करने के प्रयास किए गए थे।

दिए न गए राजस्व की समस्या

  • 1770 के दशक में ब्रिटिश शासन के दौरान भू-राजस्व से जुड़ी कई समस्याएँ उभरने लगी थीं इसलिए बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट में नजर आने लगी थी।
  • अधिकारियों का कहना था कि व्यापार और राज्य का राजस्व संसाधन तभी विकसित होंगे जब कृषि क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा दिया जाएगा और ऐसा होना तभी संभव होगा जब संपत्ति के अधिकार प्राप्त कर लिए जाएं एवं राजस्व दरों को स्थायी कर दिया जाए।
  • बंगाल में 1793 ई. में इस्तमरारी बंदोबस्त (स्थायी बंदोबस्त) व्यवस्था लागू की गई। उस समय चार्ल्स कार्नवालिस बंगाल का गवर्नर जनरल था।
  • स्थायी बंदोबस्त के लागू होने के बाद जो जमींदार राजस्व नहीं चुका पाते थे उनकी जमीनों को नीलाम कर दिया जाता था। इस्तमरारी बंदोबस्त के तहत उस दौरान 75% से भी ज़्यादा जमींदारियाँ हस्तांतरित कर दी गईं।

राजस्व भुगतान में जमींदारों की चूक

  • इस्तमरारी बंदोबस्त लागू होने के बाद जमींदार राजस्व जमा करने में लापरवाही करते थे जिसके कारण उनकी बकाया धनराशि लगातार बढ़ती जाती थी।
  • जमींदारों के अधीन कभी-कभी 400 गाँव होते थे जहाँ से वे राजस्व एकत्रित किया करते थे। समय पर राजस्व अदा न करने के प्रमुख चार कारण थे-
    1. शुरुआत में राजस्व की माँगें बहुत ऊँची होती थीं साथ ही कंपनी द्वारा दलील दी थी कि जैसे-जैसे कृषि उत्पादन में वृद्धि होती जाएगी और कीमतें बढ़ती जाएंगी वैसे-वैसे जमींदारों का बोझ कम होता जाएगा।
    2. जो ऊँची माँग 1990 दशक में लागू की गई थी उसमें कृषि उत्पादों की माँगे तो ऊँची थीं लेकिन उसके उपज की कीमतें बहुत कम थीं। ऐसे में किसान देय राशियाँ नहीं चुका पाते थे जिसके कारण जमींदारों को राजस्व चुकाने में समस्याएँ होती थीं।
    3. राजस्व असमान था और फसल अच्छी हो या खराब निर्धारित समय पर राजस्व भुगतान करना जरूरी होता था।
    4. इस्तमरारी बंदोबस्त के तहत जमींदारों की शक्तियों को समिति कर दिया गया था।

जोतदारों का उदय

  • 18वीं शताब्दी के अंत में एक तरफ तो कई जमींदार संकट की घड़ी से गुजर रहे थे वहीं धनी किसानों के कुछ समूहों ने अपनी स्थिति मजबूत बना ली, उस समय ऐसे किसानों को ‘जोतदार’ कहा जाता था।
  • 19वीं शताब्दी के शुरुआत में जोतदारों ने जमीन के बड़े हिस्सों और स्थानीय व्यवसाय पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
  • जोतदारों की जमीनों का ज़्यादातर हिस्सा बटाईदारों द्वारा जोता और बोया जाता था।
  • उस दौरान जमींदारों की तुलना में जोतदारों के पास अधिक शक्तियाँ आ चुकी थीं इसलिए वे गाँवों में प्रभावशाली बन गए।
  • जोतदारों को कई स्थानों पर हवलदार और गाँटीदार ने नाम से भी जाना जाता था।

जमींदारी बचाने के लिए जमींदारों द्वारा किया गया प्रतिरोध

  • जमींदार फर्जी बिक्री का सहारा लेते थे।
  • कुछ जमींदार अपनी भूमि को अपनी माता या पत्नी के नाम पर कर दिया करते थे।
  • जमीनों की नीलामी न होने पर और ऊँची बोली न लगने पर कंपनी जमींदारों को उनकी भूमि कम कीमतों पर पुनः लौटा देती थी। इस तरह जमींदार वही भूमि दोबारा प्राप्त कर लेते थे।
  • 1793 से 1801 के बीच बंगाल में चार बड़ी जमींदारियों ने बहुत सी बेनाम खरीददारियाँ कीं, जिनसे 30 लाख रुपये की प्राप्ति हुई जिसमें से 15% बिक्री नकली थी।
  • 1930 के दशक में घोर मंदी आई जिसके कारण जमींदारों का पतन हुआ वहीं जोतदारों ने देहातों में अपनी स्थिति को मजबूत बना लिया था।

पाँचवीं रिपोर्ट

  • ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन और क्रियाकलापों के विषय में तैयार की गई पाँचवीं रिपोर्ट 1813 ई. में ब्रिटिश संसद में प्रस्ततु की गई थी।
  • यह रिपोर्ट 1,002 पृष्ठों में तैयार की गई थी।
  • पाँचवीं रिपोर्ट में 800 से ज़्यादा पृष्ठ परिशिष्टों के थे जिनमें जमींदारों और रैयतों की अर्जियाँ, विभिन्न जिलों के कलेक्टरों के रिपोर्ट, राजस्व वीवरण संबंधित सांख्यिकीय तालिकाएँ और बंगाल तथा मद्रास से जुड़ी न्यायिक प्रशासन एवं राजस्व संबंधित टिप्पणियाँ शामिल थीं।
  • 1960 के दशक में जब कंपनी ने बंगाल में अपने आप को स्थापित किया तभी से उसके क्रियाकलापों पर ब्रिटेन में निकटता से नजर रखी जाने लगी थी।
  • पाँचवीं रिपोर्ट में जमींदारों के पतन का भी विशेष उल्लेख मिलता है। इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले कंपनी की आलोचना करने के लिए आतुर थे।

कुदाल और हल

राजमहल तथा पहाड़ियाँ

  • बुकानन ने 19वीं शताब्दी में राजमहल की पहाड़ियों का दौरा कीया था। इसकी डायरी से पहाड़ी लोगों की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है लेकिन ये डायरी लोगों तथा स्थानों के विस्तृत इतिहास को नहीं बताती।
  • पहाड़ी लोग राजमहल के आस-पास रहते थे और जंगल से खाने की चीजों को एकत्रित करके अपना जीवन निर्वाह करते थे।
  • पहाड़ी लोग ‘झूम खेती’ और ‘स्थानांतरित कृषि’ भी करते थे। इसके लिए वे जंगल के छोटे-छोटे हिस्सों से झाड़ियाँ व घास-फूस काटकर, जलाकर हटाते थे। उसके बाद उस उपजाऊ भूमि दाले और ज्वार-बाजरा उगाते थे। कुछ समय बाद वे दूसरी जगह जाने के बाद भी यही प्रक्रियाँ अपनाते थे।
  • ये लोग खाने के लिए महुआ एकत्रित करते थे और बेचने के लिए रेशम के कोया, राल और काठकोयला बनाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठा करते थे।
  • पहाड़ी लोग पशुपालन भी करते थे और उनके चारे का इंतजाम जंगल से जमा की गई वस्तुओं के अवशेष से करते थे।
  • पहाड़ी लोग आम के पेड़ों की छाँह में आराम करते थे और इमली के पेड़ों के बीच अपनी झोपड़ियाँ बनाते थे।
  • ये लोग कई बार मैदानी भागों के समुदायों पर अपना वर्चस्व दिखाने के लिए और बाहरी लोगों के साथ राजनीतिक संबंध बनाने के लिए मैदानी भागों पर आक्रमण करते थे।
  • पहाड़ी मुखियाओं के आक्रमणों से बचने के लिए जमींदार लोग ‘खिराज’ नामक कर देते थे वहीं व्यापरियों को ‘पथकर’ देना पड़ता था।
  • फिर ब्रिटिश अधिकारियों ने 1770 दशक में पहाड़ियों को समाप्त करने के लिए उनका संहार और शिकार करना शुरू कर दिया।
  • उसके बाद 1780 के दशक में भागलपुर के एक कलेक्टर ‘ऑगस्टस क्लीवलैंड’ ने शांति स्थापना की एक नीति स्थापित की थी, जिसके अनुसार पहाड़ी मुखियाओं को एक वार्षिक भत्ता दिया जाता था जिसके बदले में उन्हें अपने समुदाय के लोगों से शांति स्थापित करवाना होता था।

राहमहल की पहाड़ियों में संथालों का प्रवेश

  • पहाड़ी लोग खेती के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे इसलिए कुदाल को उनके जीवन का प्रतीक माना जाता था और हल को नए लोगों (संथालों) का प्रतीक माना जाता था। इन दोनों के बीच विद्रोह लंबे समय चला था।
  • बुकानन द्वारा बताया गया कि संथालों ने 1800 ई. में पहाड़ियों को निकाल दिया और खुद यहाँ आकर बस गए।
  • संथाल लोग पहाड़ियों से अधिक सभ्य थे क्योंकि पहाड़ी लोग उपद्रवियों जैसा व्यवहार करते थे जबकि संथाल आदर्शवादी विचारधारा से जुड़े हुए थे।
  • लगभग 1780 के दशक में संथालों ने बंगाल में प्रवेश करना शुरू कर दिया था।
  • कंपनी ने संथालों को रामहल की तराई में बसने के लिए तैयार किया। 1832 ई. में ‘दामिन-ए-कोह’ के नाम से संथालों के अलग से भूमि निर्धारित कर दी थी, जिसे ‘संथालों की भूमि’ के नाम से घोषित किया गया।
  • संथालों को इस तरह से बसाने का मुख्य उद्देश्य उन्हें स्थायी कृषक बनाना था।
  • ‘संथालों की भूमि’ के घोषणा के बाद संथालों की जनसंख्या और उनकी बस्तियों में तेजी से वृद्धि हुई।
  • ये लोग वाणिज्यिक खेती करने लगे थे और साहूकारों के साथ लेन-देन भी करते थे लेकिन बहुत जल्द उन्हें यह समझ आ गया कि जिस भूमि पर वे खेती कर रहे हैं उस पर उनका कोई अधिकार नहीं था।
  • अपनी स्थितियों में सुधार के लिए उन्होंने 1850 ई. में विद्रोह करने का निर्णय लिया।
  • फिर औपनिवेशिक सरकार ने संथालों को संतुष्ट करने के उद्देश्य से 1855-56 ई. के बाद 5,500 वर्गमील के क्षेत्र में ‘संथाल परगने’ का निर्माण करवाया।

देहात में विद्रोह (बंबई और दक्कन)

  • जैसे ही 19वीं शताब्दी का प्रारंभ हुआ भारत में विभिन्न प्रांतों के किसानों, साहूकारों और अनाज के व्यापरियों के खिलाफ कई विद्रोह शुरू कर दिए और ऐसे अनेक विद्रोह 19वीं शताब्दी के अंत तक चलते रहे।
  • किसानों से जुड़ा ऐसा ही एक विद्रोह भारत के दक्कन में वर्ष 1875 ई. में हुआ जिसे ‘दक्कन विद्रोह’ कहा जाता है।
  • इस विद्रोह की शुरुआत पूना (वर्तमान पुणे) जिले के एक गाँव सूपा से हुई जहाँ कई व्यापारी और साहूकार रहते थे।
  • 12 मई वर्ष 1875 के आस-पास सभी किसानों ने इकट्ठा होकर साहूकारों से उनके बही-खातों और ऋणबंधों की माँग करते हुए उन पर हमला कर दिया था। उस दौरान रैयतों ने साहूकारों के बही-खाते जला दिए, अनाज की दुकाने लूट लीं साथ ही उनके घरों को आग भी लगा दिया। इस तरह एक आंदोलन ने विद्रोह का रूप धारण कर लिया।
  • यह विद्रोह पूना/दक्कन के बाद अहमदनगर में फैल गया। इस तरह सिर्फ दो महीने के अंदर इस विद्रोह ने 6,500 वर्ग किमी. क्षेत्र को अपनी चपेट में कर लिया। ऐसे भयानक विद्रोह को देखकर बहुत से भयभीत साहूकारों ने गाँव में रहना छोड़ दिया।
  • इस विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार को पूरी तरह से चौंका दिया था। अंत में विद्रोह फैलने वाले गाँवों में पुलिस थाने स्थापित किए गए और उस दौरान लगभग 95 व्यक्तियों की गिरफ्तारी की गई।

एक नई राजस्व प्रणाली

  • कंपनी का शासन जब बंगाल से भारत के अन्य भागों में फैलने लगा तो उसके साथ-साथ नई राजस्व प्राणली भी लागू की गई।
  • बंगाल से बाहर इस्तमरारी बंदोबस्त बहुत कम लागू की गई थी। ऐसा करने के पीछे निम्नलिखित कारण थे-
    • कृषि के उपज मूल्यों में 1810 ई. में वृद्धि होने लगी। इस वजह से जमींदारों की आय में वृद्धि हो गई।
    • सरकार जमींदारों की बढ़ती आय में अपने हिस्से का दावा नहीं कर सकती थी क्योंकि राजस्व की माँग इस्तमरारी बंदोबस्त के तहत निश्चित की गई थी।
  • किरायाजीवी शब्द उन लोगों के लिए उपयोग किया जाता था जो अपनी संपत्ति के किराए की आय पर जीवनयापन करते थे। यह शब्द मुख्य रूप से उस समय के जमींदारों के लिए उपयोग किया गया।
  • अंग्रेजी सरकार ने जो राजस्व प्रणाली बंबई दक्कन में लागू की उसे ‘रैयतवाड़ी बंदोबस्त’ कहा गया। इसके अंतर्गत राजस्व की राशि सीधे राजस्व देने वाले रैयत के साथ निश्चित की जाती थी।
  • रैयतवाड़ी बंदोबस्त में राजस्व दर इस्तमरारी बंदोबस्त की तरह निर्धारित नहीं थी। यह दर हर 30 साल बाद जमीनों के सर्वेक्षण के बाद निश्चित की जाती थी।

किसान का कर्ज और राजस्व की माँग

  • पहला राजस्व बंदोबस्त बंबई दक्कन में 1820 ई. में किया गया। निर्धारित राजस्व राशि अधिक होने के कारण कई किसान अपने स्थानों को छोड़कर दूसरे स्थानों पर चले गए।
  • फिर 1830 ई. में किसानों की स्थिति और भी ज़्यादा खराब हो गई। उसके बाद 1830 ई. के बाद कृषि उत्पादों की कीमतों में आई तेजी से गिरावट ने किसानों की आय में कमी कर दी।
  • ग्रामीण क्षेत्र 1832-34 ई. में अकाल की चपेट में आ गए जिसके कारण दक्कन का एक-तिहाई पशुधन और वहाँ की आधी मानव जनसंख्या मौत का शिकार बन गई।
  • किसानों ने ऐसे समय में अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसा उधार लेना शुरू कर दिया लेकिन कई बार वे उधार नहीं चुका पाते थे।
  • इस तरह ज़्यादा कर्ज लेना, उधार न लौटाना, ऋणदाताओं पर निर्भरता ने किसानों की स्थिति इतनी खराब कर दी कि 1840 ई. तक अधिकारियों को भी पता चल गया कि किसान कर्ज के बोझ तले दबते जा रहे हैं।
  • 1845 ई. के बाद उत्पादों की कीमतों में वृद्धि हुई जिसके बाद किसानों ने कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देना शुरू कर दिया।

वैश्विक स्तर पर कपास में तेजी

  • ब्रिटेन में कच्चे माल के रूप में आयात की जाने वाली कुल कपास का तीन-चौथाई हिस्सा 1860 के दशक से पहले अमेरिका से आता था।
  • 1857 ई. में ब्रिटेन में ‘कपास आपूर्ति संघ’ की स्थापना की गई थी और 1859 ई. में ‘मैनचेस्टर कॉटन कंपनी’ बनाई गई थी।
  • उस दौरान भारत को कपास उत्पादन के लिए सबसे अच्छे उत्पादक के रूप में स्वीकार किया गया।

अमेरिका गृहयुद्ध के कारण कपास क्षेत्र में पड़ा प्रभाव

  • जब 1861 ई. में अमेरिका गृह युद्ध हुआ तब अमेरिका से कपास की आपूर्ति बहुत कम हो गई।
  • युद्ध के बढ़ते प्रभाव के कारण भारत और बाकी देशों को ब्रिटेन में अधिक मात्रा में कपास निर्यात करने का प्रस्ताव भेजा गया।
  • 1860 से 1864 ई. तक कपास उगाने वाले क्षेत्रों की संख्या देखते ही देखते दोगुनी हो गई। उस समय 1862 ई. तक ब्रिटेन में जितना भी कपास आयात हुआ उसका 90% सिर्फ भारत से निर्यात होता था।
  • 1865 ई. में अमेरिका में जैसे ही गृहयुद्ध शांत हुआ वहाँ फिर से कपास उत्पादन शुरू कर दिया गया था।
  • ऋणदाता समृद्ध और ताकतवर होते थे। एक सामान्य मानक के अनुसार ब्याज मूल धन से अधिक नहीं लिया जा सकता था लेकिन अंग्रेजी सरकार ने इसका उल्लंघनन अनेक बार किया था।
  • औपनिवेशिक सरकार द्वारा 1859 ई. में एक ‘परिसीमन कानून’ पारित किया गया था। जिसके अंतर्गत यह तय किया गया कि ऋणदाता और रैयत (किसान) के बीच हस्ताक्षरित ऋणपत्र सिर्फ तीन साल के लिए मान्य होगा।
  • बाद में ऋणदाताओं ने कुछ हेरफेर करके ‘परिसीमन कानून’ को अपने पक्ष में कर लिया और प्रत्येक तीन साल बाद रैयतों से नया बंधपत्र (ऋणपत्र) भरवाने लगे।

दक्कन का दंगा आयोग

  • जब दक्कन में विद्रोह फैला तो आरंभ में बंबई सरकार ने उसे अनदेखा कर दिया और गंभीरता से उसपर कार्यवाही नहीं की थी।
  • उसके बाद सरकार के आदेश पर आयोग ने 1878 ई. में एक रिपोर्ट तैयार कर ब्रिटिश पार्लियामेंट में पेश की जिसे ‘दक्कन दंगा रिपोर्ट’ के नाम से जाना जाता है।
  • आयोग द्वारा दंगा पीड़ितों जिलों में जाँच बैठाई गई थी। किसानों, साहूकारों और उस दौरान उपस्थित गवाहों के बयान दर्ज किए गए, विभिन्न क्षेत्रों के राजस्व दरों के आँकड़ों को इकट्ठा किया और अंत में जिला कलेक्टरों द्वारा भेजी गई रिपोर्टों का संकलन किया गया था।
  • दक्कन दंगा आयोग को मुख्य रूप से यह जाँच करने के लिए कहा गया था कि ‘क्या सरकारी राजस्व की माँग का स्तर विद्रोह का कारण बना था?’
  • लेकिन अंग्रेजी सरकार ये मानने को तैयार नहीं थी कि विद्रोह सरकारी कार्यवाहियों के कारण उग्र हुआ था।

समयावधि अनुसार मुख्य औपनिवेशिक घटनाक्रम

क्रम संख्याकालघटनाक्रम
1.1765इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल की दीवानी प्राप्त की
2.1773ईस्ट इंडिया कंपनी के क्रियाकलापों को विनियमित करने के लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया गया
3.1793बंगाल में इस्तमरारी बंदोबस्त
4.1800 का दशकसंथाल लोग राजमहल की पहाड़ियों में आने लगे और वहाँ बसने लगे
5.1818बंबई दक्कन में पहला राजस्व बंदोबस्त
6.1820 का दशककृषि कीमतें गिरने लगीं
7.1840 और1850 का दशकबंबई दक्कन में कृषि विस्तार की धीमी प्रक्रिया
8.1855-56संथालों की बगावत
9.1861कपास में तेजी का समारंभ
10.1875दक्कन के गाँवों में रैयतों ने बगावत की
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